Books - प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
एकाकी प्रयत्न से चल पड़ने वाले प्रज्ञा मंदिर
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
प्रज्ञा अभियान को अग्रगामी बनाने के लिए प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना एवं संचालन के तीव्र प्रयास इन दिनों चल रहे हैं। यह प्रचलित निर्जीव मंदिरों से भिन्न हैं। जागृति केन्द्रों के रूप में इनकी प्राण प्रतिष्ठा हो रही हैं। हर प्रज्ञा पुत्र को इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में अपना भाव भरा सक्रिय योगदान देना चाहिए।
प्रज्ञा संस्थानों के अन्तर्गत सबसे छोटी स्थापना प्रज्ञा मन्दिर की है। इस माध्यम से उन कार्यक्रमों को छोटे रूप में क्रियान्वित किया जा सकता है, जो प्रज्ञापीठों में बड़े रूप में सम्पन्न किए जाते हैं। यह स्थापना, अपने रहने के मकान के एक कमरे में भी की जा सकती है। अपना एक कमरा खाली न हो तो किसी मित्र का, मन्दिर, धर्मशाला का या किराये का कमरा प्राप्त किया जाय। उसमें दो चौकियां ऊपर नीचे रखकर पूजा मंच बनाया जाय। इस पर बड़े साइज का गायत्री चित्र स्थापित किया जाय। नित्य का पूजा उपचार तथा आरती सहगान का प्रबन्ध किया जाय।
इसी कमरे की दो अलमारियों में प्रज्ञा पुस्तकालय की स्थापना हो। उसे घर पर पहुंचाने और वापिस लाने के लिए झोला पुस्तकालय की नियमित व्यवस्था बनाई जाय। यह कार्य स्वयं ही दो घंटे निकालने पर अत्यन्त सरलता एवं सफलता के साथ चलता रह सकता है। जहां सुविधा हो वहां इस पुण्य प्रक्रिया को नियमित रखने के लिए दो या अधिक घंटों के लिए कोई पार्ट टाइम विद्यार्थी वेतन पर भी रखा जा सकता है। उस क्षेत्र के शिक्षित लोगों में सम्पर्क साधा जाय और नियमित रूप से पढ़ने के लिए सहमत किया जाय। जो उत्साह दिखायें, उनके पास सप्ताह में एक या दो बार युग साहित्य पहुंचाने और वापिस लेने को क्रम बिठाया जाय। जिनके पास यह पुस्तकें पहुंचा करें वे अपने परिवार के अन्य सदस्यों को भी पढ़ाया या सुनाया करें। ऐसी प्रेरणा भी उन्हें देनी चाहिए। विद्यार्थी अपनी कक्षा एवं पाठशाला के सहपाठियों को युग साहित्य की छोटी-छोटी पुस्तिकाएं अदल-बदल कर पढ़ाते रह सकते हैं। अध्यापकों, अध्यापिकाओं के लिये अपने छात्रों को, घर ले जाकर इन पुस्तकों को पढ़ने की प्रेरणा देना और भी सरल है। चिकित्सक, दुकानदार, दफ्तर के बाबू, अधिकारी अपने सम्पर्क वालों में यह पढ़ाने वापिस लेने की प्रक्रिया अत्यन्त सरलतापूर्वक चलाते रह सकते हैं। प्रज्ञा मन्दिर संस्थापकों को इनसे सम्पर्क साधना चाहिए और अपने प्रज्ञा पुस्तकालय की पुस्तकें इन क्षेत्रों में भी प्रसारित करने का प्रयत्न करना चाहिए। अपना निजी परिवार-पड़ोस एवं मित्र परिचितों का क्षेत्र तो इस प्रक्रिया से लाभान्वित होता ही रह सकता है।
प्रज्ञापीठों को अपना कार्य क्षेत्र सात गांवों का रखना होता है। प्रज्ञा मन्दिर छोटे होने के कारण अपना क्षेत्र—अपने नगर तक भी सीमित रख सकते हैं ओर उसे 6 हिस्सों में बांटकर दो घंटे की अवधि में पुस्तकें देने और वापस लेने का क्रम चला सकते हैं। छोटा क्षेत्र हो—पढ़ने वाले कम हों तो वह क्रम सप्ताह में दो बार का भी चल सकता है।
सातवां दिन छुट्टी का दिन साप्ताहिक सत्संग का रखा जाये। सामूहिक जप, संक्षिप्त हवन एवं सहगान के तीन उपासनात्मक कार्यक्रम और एक घंटे का विचार-विनिमय चलने लगे तो समझना चाहिए कि प्रज्ञापीठों में चलने वाले ज्ञान यज्ञ की संक्षिप्त विधि-व्यवस्था क्रियान्वित होने लगी। छोटे कमरे में हवन की व्यवस्था ठीक से न बन पड़े और धुंए या गर्मी के कारण सत्संग में व्यवधान पड़े तो अगरबत्ती के रूप में हवन और दीपक के रूप में घृत की आहुति की भावना करके चौबीस बार के गायत्री मन्त्र पाठ से भी संक्षिप्त हवन की आवश्यकता पूर्ण कर सकते हैं। संगीत समेत सहगान कीर्तन हो या बिना संगीत के, यह स्थानीय सुविधा व्यवस्था पर निर्भर करता है। साप्ताहिक सत्संग में विचार-विनिमय का विषय यह होना चाहिए कि उपस्थिति लोग अपनी वर्तमान परिस्थिति में—अपने सीमित क्षेत्र में प्रज्ञा अभियान को अग्रगामी बनाने के लिए क्या कुछ कर सकते हैं। प्रज्ञा परिजनों के लिए न्यूनतम कार्यक्रम उसी दृष्टि से बना है कि उसे कोई भावनाशील व्यक्ति व्यस्त या व्यग्र परिस्थितियों में भी अत्यन्त सरलता पूर्वक निभाता रह सके। सत्संग में उपस्थित लोगों को प्रेरणा दी जाये कि वे युग संधि के (न्यूनतम) कार्यक्रम को अपनायें, जिनका यह क्रम चल पड़ा है उनसे उस सन्दर्भ में पूछताछ की जाये और कठिनाइयों का समाधान बताया जाये।
प्रज्ञा मन्दिर में आने वालों तथा युग साहित्य पढ़ने वालों को स्थानीय ‘प्रज्ञा परिवार’ मान लिया जाये और उनमें से जो-जो सहमत होते चलें उन-उन के जन्मदिन मनाने की व्यवस्था बनाते रहा जाये। प्रज्ञा मन्दिर के संचालक या सहयोगी सरलतापूर्वक इतने जन्म दिवसोत्सवों का प्रारम्भ कर सकते हैं। नये लोगों को इस नई व्यवस्था की जानकारी नहीं होती अतएव उनका मार्गदर्शन ही नहीं सहयोग भी करना होता है। इन उत्सवों की पद्धति नितांत सरल और मात्र 5-7 रुपये खर्च जितनी है। इसे क्रियान्वित करने में कहीं कुछ भी कठिनाई नहीं पड़नी चाहिए। इसे आसानी से प्रज्ञा मन्दिर के संचालक सिखा सकते हैं और इस माध्यम से परिवार निर्माण अभियान का प्रवेश उन घरों में सफलता पूर्वक करा सकते हैं।
प्रज्ञा मन्दिरों की व्यवस्था कोई तेजस्वी व्यक्ति अकेले भी कर सकता है। पर अच्छा यह हो कि 4-5 की टोली यह कार्य संभाले। जीवन्त महिलाएं भी मिल जुलकर प्रज्ञा मन्दिर की गतिविधियां चला सकती हैं। सब प्रयास करें तो 15-20 घरों में ज्ञानघट तथा धर्मघट तो रखे ही जा सकते हैं। महिलाएं धर्मघट में न्यूनतम एक मुट्ठी अन्न डालें। इतने में प्रज्ञा मन्दिर में नियुक्त कार्यकर्ता का निर्वाह खर्च निकल सकता है। इसे ब्रह्म भोज के समकक्ष पुण्य माना जाना चाहिए। पुरुष ज्ञानघट में न्यूनतम 10 पैसा प्रति दिन ज्ञानयज्ञ के लिए डालें। माह में एक दिन की आय भी इस निमित्त निकाली जा सकती है। इससे प्रज्ञा मन्दिर के लिए साहित्य एवं आवश्यक उपकरण जुटाने की व्यवस्था रहेगी।
थोड़ा धन एकत्रित हो जाय तो फेरी वालों की धकेल जैसा सादा सस्ता ज्ञानरथ बनाया जा सकता है। उसके माध्यम से घर-घर पुस्तकें पहुंचाने वापस लाने के अतिरिक्त—बिक्री का सिलसिला भी जारी रखा जाय। बिक्री के कमीशन से नियुक्त कार्यकर्ता की आंशिक पूर्ति हो जाती है। जो कमी पड़े उसकी पूर्ति ज्ञानघटों वाली राशि में से कर दी जाय। नियुक्त कार्यकर्ता भोजन के उपरान्त नित्य ज्ञानरथ लेकर साहित्य पढ़ाने और बेचने निकलें। हाट-बाजारों से लेकर घरों, स्कूलों, कारखानों, घाटों, मन्दिरों आदि जनसंकुल स्थानों पर पहुंचें। प्रचार बोर्ड एवं सजे ज्ञानरथ को लेकर दर्शकों का ध्यान आकर्षित करें। चलाने वाला वाक्पटु हो तो रास्ता चलतों को रोककर प्रज्ञा अभियान की, प्रस्तुत युग साहित्य की गरिमा से सर्वसाधारण को परिचित कराता रह सकता है। चटाई बिछाकर लोगों को बैठने और पढ़ने के लिए साहित्य देता रह सकता है। इस प्रकार बिक्री का सिलसिला भी चलता रहेगा और पढ़ाने वापस लेने वाली प्रक्रिया भी भली प्रकार जारी रहेगी।
आरम्भ में मन्दिर का श्रीगणेश करते समय अखण्ड ज्योति, युगशक्ति, महिला जागृति पत्रिकाओं को पुराने अंक संग्रह करके, उन पर बांसी कागज चिपका लिया जाय और उसे ही प्रारम्भिक पुस्तकालय मानकर चलाया जाय। इसके बाद ज्ञानघटों धर्मघटों की राशि से प्रज्ञा मन्दिर के साहित्य एवं कार्यकर्ता के पारिश्रमिक की पूर्ति का कार्यक्रम चलता रह सकता है। चल पुस्तकालय के अतिरिक्त स्लाइड प्रोजेक्टर एवं टेप रिकॉर्डर के दो यन्त्र भी ऐसे ही हैं जिनसे घर-घर युग चेतना को प्रवेश कराने का अवसर मिल सकता है। स्लाइड प्रोजेक्टर प्रवचन सहित मुफ्त का सिनेमा है। टेप रिकॉर्डर द्वारा शान्तिकुंज जा पहुंचने, देव कन्याओं के गीत तथा सूत्र संचालक के प्रेरणाप्रद प्रवचन सुनने का अवसर मिलता रह सकता है। जो प्रज्ञा मन्दिर इतनी पूंजी जुटा सकें वे इसके लिए उपाय सोचें।
जहां प्रज्ञा मन्दिरों के उपरोक्त सामान्य क्रियाकलाप चल पड़ें वहां प्रज्ञापीठों द्वारा चलाये जाने वाले रचनात्मक एवं सुधारात्मक प्रयास भी प्रारम्भ किये जा सकते हैं।
प्रयास किया जाना चाहिए कि प्रज्ञा मन्दिर आगे चलकर प्रज्ञापीठ के रूप में विकसित हो जावें। उसके लिए छोटा मन्दिर तथा बहुउद्देशीय हॉल उपयुक्त स्थल पर बनाया होता है। हर प्रज्ञापीठ में बहुउद्देशीय ‘हॉल’ का निर्माण इसलिए किया जाता है कि दिन में दो-दो घंटे की तीन-तीन पाठशालाएं चलें। एक बच्चों की, दूसरी महिलाओं की, तीसरी प्रौढ़ों की। एक कक्षा स्वास्थ्य संवर्धन की आसन-प्राणायाम, खेल-कूद, ड्रिल एवं आवश्यक प्रशिक्षण की चला करे। रात्रि का सामयिक समस्याओं के समाधान के निमित्त कथा-प्रवचन का सिलसिला चले। जगह कम पड़ती हो या लोगों के पहुंचने में असुविधा हो तो कथा के लिए कोई दूसरा सुविधाजनक स्थान भी चुना जा सकता है।
परमार्थ परायण जागृतात्माओं के लिए यह सब काम कठिन नहीं है। क्योंकि इस स्तर के व्यक्तियों की यह एक मौलिक विशेषता होती है—लक्ष्य को निजी स्वार्थ जितना ही महत्वपूर्ण मानना। सामान्य व्यक्ति परमार्थ कार्य को करते समय मनोरंजन मात्र मानते हैं, जबकि मूर्धन्यों के लिए वह प्रमुख ही नहीं सब कुछ बन जाता है। चुनाव जीतने के लिए लोग कितना श्रम, कितना व्यय कितना चातुर्य नियोजित करते हैं इसे देखने से प्रतीत होता है कि लगन गहरी होने पर मनुष्य की कार्य क्षमता किस प्रकार सैकड़ों गुनी अधिक हो जाती है। उन दिनों खाने-सोने तक की बात भुला दी जाती है। उदासीनों और शत्रुओं तक से मदर की याचना की जाती है। कर्ज लेकर या सामान बेचकर भी चुनाव की व्यय राशि जुटाई जाती है। चुनाव जीतने जितनी लगन एवं उमंग यदि नवसृजन के लिये उभर सके तो समझना चाहिये सामान्य परिस्थितियों का व्यक्ति भी उसी स्तर के पराक्रम करने लगेगा जिसकी तुलना पवन पुत्र से की जा सके और उसे प्रज्ञा पुत्र कहा जा सके।
इन दिनों ऐसे प्राणवानों की ही पुकार महाकाल ने की है। उन्हीं को युग-देवता ने बुलाया है। मानवता की परान्मुख अन्तरात्मा ने ऐसे ही महामानवों पर अपनी आशा भरी दृष्टि केन्द्रित की है। आवश्यकता नहीं है कि ऐसे लोग धनी, प्रतिभाशाली साधन सम्पन्न भी हों। इन सभी साधनों से रहित होते हुए हजारी किसान और शालीकलां के डेमन्या भील की तरह ऐसे अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किये जा सकते हैं, जिन्हें देखकर मृतकों के भी प्राण छटपटाने लगें।
गतिविधियों के संचालन के लिए प्रज्ञा मन्दिरों की संचालक मंडली के सदस्य स्वयं तो नियमित समय दान किया ही करें, प्रज्ञा परिवार के अन्य लोगों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करें। हर दिन दो घंटे, एवं साप्ताहिक अवकाश का पूरा दिन देते रहने भर से इतना बड़ा काम हो सकता है कि उस गांव, कस्बे में नवजागरण के चिह्न प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगें। यह समय दानी टोलियां बनाकर योजनाबद्ध ढंग से जन सम्पर्क के लिए निकलें और मिशन की गतिविधियों का परिचय कराने तथा सम्मिलित रहने के लिए प्रोत्साहित करते रहें, तो सहज ही सहयोगियों की संख्या बढ़ती रहेगी और वे सभी कार्यक्रम क्षेत्र में चल पड़ेंगे जो उपेक्षित हैं।
‘प्रज्ञा मन्दिर’ ऐसी छोटी शक्तिपीठ है जिसकी स्थापना तत्काल एवं एकाकी प्रयास से भी सम्भव हो सकती है। आगे चलकर सहयोगियों की सहायता से अपना भवन बनाने की योजना बन पड़े तो इसके लिये जन सहयोग में भी कमी न पड़ेगी। बड़ी स्थापना के लिए देर तक प्रतीक्षा करने के स्थान पर यही उत्तम हैं कि प्रज्ञा अभियान को व्यापक बनाने के लिए छोटा शुभारम्भ कर दिया जाय। इस दृष्टि से प्रज्ञा मन्दिरों की उपयोगिता समझी और समझाई जाय।
प्रज्ञा संस्थानों का प्रारम्भिक ढांचे में खड़ा होने पर उन्हें समर्थ और विकसित माना जाएगा और उन्हें वे अगले महत्वपूर्ण काम सौंपे जायेंगे जिनसे प्रस्तुत विभीषिकाओं का निराकरण एवं उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण सुनिश्चित रूप से सम्भव हो सके।