Books - शरीर की अद्भुत क्षमताएँ एवं विशेषताएँ
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Language: HINDI
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अद्भुत और विलक्षण यह शरीर
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हमारी शरीर यात्रा जिस रथ पर सवार होकर चल रही है उसके कलपुर्जे कितनी विशिष्टताएं अपने अन्दर धारण किये हुए हैं, हम कितने समर्थ और कितने सक्रिय हैं, इस पर हमने कभी विचार ही नहीं किया। बाहर की छोटी-छोटी चीजों को देखकर चकित हो जाते हैं और उनका बढ़ा-चढ़ा मूल्यांकन करते हैं, पर अपनी ओर—अपने छोटे-छोटे कलपुर्जों की महत्ता की ओर—कभी ध्यान तक नहीं देते। यदि उस ओर भी कभी दृष्टिपात किया होता तो पता चलता कि अपने छोटे से छोटे अंग अवयव कितनी जादू जैसी विशेषता और क्रियाशीलता अपने में धारण किये हुए हैं। उन्हीं के सहयोग से हम अपना सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन जी रहे हैं। विशिष्टता मानवी काया के रोम-रोम में संव्याप्त है। आत्मिक गरिमा पर विचार करना पीछे के लिए छोड़कर मात्र काय संरचना और उसकी क्षमता पर विचार करें तो इस क्षेत्र में भी सब कुछ अद्भुत दीखता है। वनस्पति तो क्या—पिछड़े स्तर के प्राणि—शरीरों में भी विशेषताएं नहीं मिलतीं जो मनुष्य के छोटे और बड़े अवयवों में सन्निहित हैं। कलाकार ने अपनी सारी कला को इसके निर्माण में झोंका है।
शरीर रचना से लेकर मनःसंस्थान और अन्तःकरण की भाव सम्वेदनाओं तक सर्वत्र असाधारण ही असाधारण दृष्टिगोचर होता है। यह सोद्देश्य होना चाहिए। अन्यथा एक ही घटक पर कलाकार का इतना श्रम और कौशल नियोजित होने की क्या आवश्यकता थी? यह मात्र संयोग नहीं है और न इसे रचनाकार का कौतुक—कौतूहल कहा जाना चाहिए। मनुष्य की विशेष प्रयोजन के लिए बनाया गया। इस ‘विशेष’ को सम्पन्न करने के लिए उसका प्रत्येक उपकरण इस योग्य बनाया गया है कि उसके कण-कण में विशेषता देखी जा सके।
शरीर पर दृष्टि डालने से सबसे पहले चमड़ी नजर आती है। मोटेतौर से वह ऐसी लगती है मानो शरीर पर कोई मोमी कागज चिपका हो, बारीकी से देखने पर प्रतीत होता है कि उसमें भी पूरा कल कारखाना काम कर रहा है। एक वर्ग इंच त्वचा में प्रायः 72 फुट तन्त्रिकाओं का जाल बिछा होता है। इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लम्बाई नापी जाय तो वे भी 12 फुट से कम न बैठेंगी। यह रक्त वाहनियां सर्दी में सिकुड़ती और गर्मी में फैलती रहती हैं ताकि तापमान का सन्तुलन ठीक बना रहे। चमड़ी की सतह पर प्रायः 2 लाख स्वेद ग्रन्थियां होती हैं जिनमें से पसीने के रूप में हानिकारक पदार्थ बाहर निकलते रहते हैं। पसीना दीखता तो तब है जब वह बूंदों के रूप में बाहर आता है वैसे वह धीरे-धीरे रिसता सदा ही रहता है।
त्वचा देखने में एक प्रतीत होती है, पर उसके तीन विभाग किये जा सकते हैं—ऊपरी चमड़ी, भीतरी चमड़ी और हड्डी के ऊपर के ऊतक। नीचे वाली तीसरी परत में रक्त वाहनियां, तन्त्रिकाएं और वसा के कण होते हैं। इन्हीं के द्वारा चमड़ी हड्डियों से चिपकी रहती है। आयु बढ़ने के साथ-साथ जब यह वसा कण सूखने लगते हैं तो त्वचा पर झुर्रियां लटकने लगती हैं। भीतरी चमड़ी में तन्त्रिकाएं, रक्त वाहनियां, रोम कूप, स्वेद ग्रन्थियां तथा तेल ग्रन्थियां होती हैं। इन तन्त्रिकाओं को एक प्रकार से सम्वेदना वाहक टेलीफोन के तार कह सकते हैं। वे त्वचा स्पर्श की अनुभूतियों को मस्तिष्क तक पहुंचाते हैं और वहां के निर्देश—सन्देशों को अवयवों तक पहुंचाते हैं।
पसीने के साथ जो गन्दगी बाहर निकलती है, वह चमड़ी पर परत की तरह जमने लगती है यदि स्नान द्वारा उसे साफ न किया जाय तो उस परत से पसीना निकालने वाले छेद बन्द हो जाते हैं और दाद, खाज, जुएं आदि कई तरह के विकार उठ खड़े होते हैं।
त्वचा के भीतर घुसे तो मांस पेशियों का ढांचा खड़ा है। उन्हीं के आधार पर शरीर का हिलना, जुलना, मुड़ना, चलना, फिरना सम्भव हो रहा है। शरीर की सुन्दरता और सुडौलता बहुत करके मांस-पेशियों की सन्तुलित स्थिति पर ही निर्भर रहती है। फैली, पोली, बेडौल सूखी पेशियों के कारण ही अक्सर शरीर कुरूप लगता है। प्रत्येक अवयव को उचित श्रम मिलने से वे ठीक रहती हैं अन्यथा निठल्लापन एवं अत्यधिक श्रम साधन उन्हें भोंड़ा, निर्जीव और अशक्त बना देता है। श्रम सन्तुलन का ही दूसरा नाम व्यायाम है, प्रत्येक अंग को यदि उचित श्रम का अवसर मिलता रहे तो वहां की मांसपेशियां सुदृढ़, सशक्त रहकर स्वास्थ्य और सौन्दर्य के आदर्श बनाये रहेंगी।
शरीर का 50 प्रतिशत भाग मांसपेशियों के रूप में है। मोटे और पतले आदमी इन मांसपेशियों की बनावट एवं वजन के हिसाब से ही वैसे मालूम पड़ते हैं। प्रत्येक मांसपेशी अनेकों तन्तुओं से मिलकर बनी है। वे बाल के समान पतले होते हैं, पर मजबूत इतने कि अपने वजन की तुलना में एक लाख गुना वजन उठा सकें। इन पेशियों में एक चौथाई प्रोटीन और तीन चौथाई पानी होता है। इनमें जो बारीक रक्त नलिकाएं फैली हुई हैं वे ही रक्त तथा दूसरे आवश्यक आहार पहुंचाती हैं। मस्तिष्क का सीधा नियन्त्रण इन मांसपेशियों पर रहता है तभी हमारा शरीर मस्तिष्क की आज्ञानुसार विभिन्न प्रकार के क्रिया-कलाप करने में सक्षम रहता है। कुछ मांसपेशियां ऐसी हैं जो अचेतन मन के आधीन हैं। पलक झपकना, हृदय का धड़कना, फेफड़ों का सिकुड़ना, फैलना, आहार का पचना, मल विसर्जन, रक्त-संचार आदि कि क्रियाएं अनवरत रूप से होती रहती हैं और हमें पता भी नहीं चलता कि कौन उनका नियन्त्रण-संचालन कर रहा है। वस्तुतः यह हमारे अचेतन मन का खेल है और अंग-प्रत्यंगों को उनके नियत निर्धारित विषयों में संलग्न किये रहता है।
इन मांसपेशियों को विशेष प्रयोजनों के लिए सधाया, सिखाया जा सकता है। सर्कस में काम करने वाले नट, नर्तक अपने अंगों को इस प्रकार अभ्यस्त कर लेते हैं कि वे आश्चर्यजनक कार्य कर दिखाते हैं। चोट लगने पर हड्डियों को टूटने से बचाने का कार्य यह मांसपेशियां ही करती हैं। शरीर से मुड़ने-तुड़ने, उछलने-कूदने जैसे विविध-विधि काम करना हमारे लिए इन मांसपेशियों के कारण ही सम्भव होता है। मर्दों की पेशियां स्त्रियों की तुलना में अधिक कड़ी और मजबूत होती हैं, ताकि वे अधिक परिश्रम के काम कर सकें, अन्य अंगों की अपेक्षा हाथों की पेशियां अधिक शक्तिशाली होती हैं।
इन अवयवों में से जिस पर भी तनिक गहराई से विचार करें उसी में विशेषताओं का भण्डार भरा दीखता है। यहां तक कि बाल जैसी निर्जीव और बार-बार खर-पतवार की तरह उखाड़ काट कर फेंक दी जाने वाली वस्तु भी अपने आप में अद्भुत है।
औसत मनुष्य के सिर में 120000 बाल होते हैं। प्रत्येक बाल एक नन्हे गड्ढे से निकलता है जिसे रोम कूप कहते हैं। यह चमड़ी के शिरोवल्क के भीतर प्रायः एक तिहाई इंच गहरा घुसा होता है। इसी गहराई में बालों की जड़ को रक्त का पोषण प्राप्त होता है।
बालों की वृद्धि प्रतिमास तीन चौथाई इंच होती है। इसके बाद वह घटती जाती है। जब बाल दो वर्ष के हो जाते हैं तो उनकी गति प्रायः रुक जाती है। किसी के बाल तेजी से और किसी के धीमी गति से बढ़ते हैं। बालों की आयु डेढ़ वर्ष से लेकर छह वर्ष तक होती है। आयु पूरी करके बाल अपनी जड़ से टूट जाता है और उसके स्थान पर नया बाल उगता है।
यों बाल तिरछे निकलते हैं, पर उनके मूल में एक पेशी होती है जो कड़ाके के शीत या भय की अनुभूति में रोमांच में बाल खड़े कर देती है। बिल्ली कभी-कभी अपने बाल सीधे खड़े कर लेती है। बालों की जड़ों में पसीना निकालने वाले छिद्र भी होते हैं और उन्हें चिकनाई देने वाले छेद भी। बालों की कोमलता, चिकनाई और चमक रोम कूपों से निकलने वाली चिकनाई की मात्रा पर ही निर्भर है।
शरीर रचना से लेकर मनःसंस्थान और अन्तःकरण की भाव सम्वेदनाओं तक सर्वत्र असाधारण ही असाधारण दृष्टिगोचर होता है। यह सोद्देश्य होना चाहिए। अन्यथा एक ही घटक पर कलाकार का इतना श्रम और कौशल नियोजित होने की क्या आवश्यकता थी? यह मात्र संयोग नहीं है और न इसे रचनाकार का कौतुक—कौतूहल कहा जाना चाहिए। मनुष्य की विशेष प्रयोजन के लिए बनाया गया। इस ‘विशेष’ को सम्पन्न करने के लिए उसका प्रत्येक उपकरण इस योग्य बनाया गया है कि उसके कण-कण में विशेषता देखी जा सके।
शरीर पर दृष्टि डालने से सबसे पहले चमड़ी नजर आती है। मोटेतौर से वह ऐसी लगती है मानो शरीर पर कोई मोमी कागज चिपका हो, बारीकी से देखने पर प्रतीत होता है कि उसमें भी पूरा कल कारखाना काम कर रहा है। एक वर्ग इंच त्वचा में प्रायः 72 फुट तन्त्रिकाओं का जाल बिछा होता है। इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लम्बाई नापी जाय तो वे भी 12 फुट से कम न बैठेंगी। यह रक्त वाहनियां सर्दी में सिकुड़ती और गर्मी में फैलती रहती हैं ताकि तापमान का सन्तुलन ठीक बना रहे। चमड़ी की सतह पर प्रायः 2 लाख स्वेद ग्रन्थियां होती हैं जिनमें से पसीने के रूप में हानिकारक पदार्थ बाहर निकलते रहते हैं। पसीना दीखता तो तब है जब वह बूंदों के रूप में बाहर आता है वैसे वह धीरे-धीरे रिसता सदा ही रहता है।
त्वचा देखने में एक प्रतीत होती है, पर उसके तीन विभाग किये जा सकते हैं—ऊपरी चमड़ी, भीतरी चमड़ी और हड्डी के ऊपर के ऊतक। नीचे वाली तीसरी परत में रक्त वाहनियां, तन्त्रिकाएं और वसा के कण होते हैं। इन्हीं के द्वारा चमड़ी हड्डियों से चिपकी रहती है। आयु बढ़ने के साथ-साथ जब यह वसा कण सूखने लगते हैं तो त्वचा पर झुर्रियां लटकने लगती हैं। भीतरी चमड़ी में तन्त्रिकाएं, रक्त वाहनियां, रोम कूप, स्वेद ग्रन्थियां तथा तेल ग्रन्थियां होती हैं। इन तन्त्रिकाओं को एक प्रकार से सम्वेदना वाहक टेलीफोन के तार कह सकते हैं। वे त्वचा स्पर्श की अनुभूतियों को मस्तिष्क तक पहुंचाते हैं और वहां के निर्देश—सन्देशों को अवयवों तक पहुंचाते हैं।
पसीने के साथ जो गन्दगी बाहर निकलती है, वह चमड़ी पर परत की तरह जमने लगती है यदि स्नान द्वारा उसे साफ न किया जाय तो उस परत से पसीना निकालने वाले छेद बन्द हो जाते हैं और दाद, खाज, जुएं आदि कई तरह के विकार उठ खड़े होते हैं।
त्वचा के भीतर घुसे तो मांस पेशियों का ढांचा खड़ा है। उन्हीं के आधार पर शरीर का हिलना, जुलना, मुड़ना, चलना, फिरना सम्भव हो रहा है। शरीर की सुन्दरता और सुडौलता बहुत करके मांस-पेशियों की सन्तुलित स्थिति पर ही निर्भर रहती है। फैली, पोली, बेडौल सूखी पेशियों के कारण ही अक्सर शरीर कुरूप लगता है। प्रत्येक अवयव को उचित श्रम मिलने से वे ठीक रहती हैं अन्यथा निठल्लापन एवं अत्यधिक श्रम साधन उन्हें भोंड़ा, निर्जीव और अशक्त बना देता है। श्रम सन्तुलन का ही दूसरा नाम व्यायाम है, प्रत्येक अंग को यदि उचित श्रम का अवसर मिलता रहे तो वहां की मांसपेशियां सुदृढ़, सशक्त रहकर स्वास्थ्य और सौन्दर्य के आदर्श बनाये रहेंगी।
शरीर का 50 प्रतिशत भाग मांसपेशियों के रूप में है। मोटे और पतले आदमी इन मांसपेशियों की बनावट एवं वजन के हिसाब से ही वैसे मालूम पड़ते हैं। प्रत्येक मांसपेशी अनेकों तन्तुओं से मिलकर बनी है। वे बाल के समान पतले होते हैं, पर मजबूत इतने कि अपने वजन की तुलना में एक लाख गुना वजन उठा सकें। इन पेशियों में एक चौथाई प्रोटीन और तीन चौथाई पानी होता है। इनमें जो बारीक रक्त नलिकाएं फैली हुई हैं वे ही रक्त तथा दूसरे आवश्यक आहार पहुंचाती हैं। मस्तिष्क का सीधा नियन्त्रण इन मांसपेशियों पर रहता है तभी हमारा शरीर मस्तिष्क की आज्ञानुसार विभिन्न प्रकार के क्रिया-कलाप करने में सक्षम रहता है। कुछ मांसपेशियां ऐसी हैं जो अचेतन मन के आधीन हैं। पलक झपकना, हृदय का धड़कना, फेफड़ों का सिकुड़ना, फैलना, आहार का पचना, मल विसर्जन, रक्त-संचार आदि कि क्रियाएं अनवरत रूप से होती रहती हैं और हमें पता भी नहीं चलता कि कौन उनका नियन्त्रण-संचालन कर रहा है। वस्तुतः यह हमारे अचेतन मन का खेल है और अंग-प्रत्यंगों को उनके नियत निर्धारित विषयों में संलग्न किये रहता है।
इन मांसपेशियों को विशेष प्रयोजनों के लिए सधाया, सिखाया जा सकता है। सर्कस में काम करने वाले नट, नर्तक अपने अंगों को इस प्रकार अभ्यस्त कर लेते हैं कि वे आश्चर्यजनक कार्य कर दिखाते हैं। चोट लगने पर हड्डियों को टूटने से बचाने का कार्य यह मांसपेशियां ही करती हैं। शरीर से मुड़ने-तुड़ने, उछलने-कूदने जैसे विविध-विधि काम करना हमारे लिए इन मांसपेशियों के कारण ही सम्भव होता है। मर्दों की पेशियां स्त्रियों की तुलना में अधिक कड़ी और मजबूत होती हैं, ताकि वे अधिक परिश्रम के काम कर सकें, अन्य अंगों की अपेक्षा हाथों की पेशियां अधिक शक्तिशाली होती हैं।
इन अवयवों में से जिस पर भी तनिक गहराई से विचार करें उसी में विशेषताओं का भण्डार भरा दीखता है। यहां तक कि बाल जैसी निर्जीव और बार-बार खर-पतवार की तरह उखाड़ काट कर फेंक दी जाने वाली वस्तु भी अपने आप में अद्भुत है।
औसत मनुष्य के सिर में 120000 बाल होते हैं। प्रत्येक बाल एक नन्हे गड्ढे से निकलता है जिसे रोम कूप कहते हैं। यह चमड़ी के शिरोवल्क के भीतर प्रायः एक तिहाई इंच गहरा घुसा होता है। इसी गहराई में बालों की जड़ को रक्त का पोषण प्राप्त होता है।
बालों की वृद्धि प्रतिमास तीन चौथाई इंच होती है। इसके बाद वह घटती जाती है। जब बाल दो वर्ष के हो जाते हैं तो उनकी गति प्रायः रुक जाती है। किसी के बाल तेजी से और किसी के धीमी गति से बढ़ते हैं। बालों की आयु डेढ़ वर्ष से लेकर छह वर्ष तक होती है। आयु पूरी करके बाल अपनी जड़ से टूट जाता है और उसके स्थान पर नया बाल उगता है।
यों बाल तिरछे निकलते हैं, पर उनके मूल में एक पेशी होती है जो कड़ाके के शीत या भय की अनुभूति में रोमांच में बाल खड़े कर देती है। बिल्ली कभी-कभी अपने बाल सीधे खड़े कर लेती है। बालों की जड़ों में पसीना निकालने वाले छिद्र भी होते हैं और उन्हें चिकनाई देने वाले छेद भी। बालों की कोमलता, चिकनाई और चमक रोम कूपों से निकलने वाली चिकनाई की मात्रा पर ही निर्भर है।