Books - शरीर की अद्भुत क्षमताएँ एवं विशेषताएँ
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स्वास्थ्य विज्ञान का निष्कर्ष
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आहार पर संयम करने वाले अपने दीर्घायुष्य के बारे में निश्चिन्त हो सकते हैं। थाम्स एडीसन शर्त लगाकर कहते थे कि मैं सौ वर्ष अवश्य जीऊंगा। गांधी जी गोली से न मारे गये होते तो सम्भवतः उतनी लम्बी आयु वे भी अपने आहार संयम के बल पर पा भी सकते थे।
विश्व विख्यात डॉक्टर मैक्फेडन ने कहा है—भोजन के अभाव से संसार में जितने लोग अकाल पीड़ित होकर मरते हैं उससे कहीं अधिक अनावश्यक भोजन करने के कारण रोगग्रस्त होकर मरते हैं।
यूनान की एक कहावत है—तलवार उतने लोगों को नहीं मारती जितने अधिक खाकर मरते हैं। सुलेमान कहते हैं—जो अधिक खायेगा वह अपना दाना-पानी जल्द खतम करके मौत के मुंह में समय से पहले ही चला जायगा।
आस्ट्रेलिया के ख्यातिनामा डॉक्टर हर्न कहते थे लोग जितना खाते हैं उसका एक तिहाई भी पचा नहीं पाते। स्वास्थ्य विज्ञानी हेरी बेंजामिन ने लिखा है—बेवकूफियों में परले सिरे की बेवकूफी है—अधिक भोजन करना। डॉक्टर लोएन्ड ने आयु को घटाने वाले जो दस कारण बताये हैं उनमें प्रथम भोजन करने की बुरी आदत को गिना है।
संसार के महापुरुषों में से प्रायः प्रत्येक की यह विशेषता रही है कि उन्होंने पेट की मांग से कम मात्रा में भोजन लेने का नियम रखा और अपने स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाये रह सके।
संसार के दीर्घजीवियों में सात को अग्रिम पंक्ति में खड़ा किया जाता है। (1) अमेरिका के मेलेटोजा 187 वर्ष के होकर मरे (2) हंगरी के पीटर्स झोर्टन जो 185 वर्ष जिये (3) यार्क शायर के हेनरी जेनकिस जिन्होंने 161 वर्ष की आयु पाई (4) इटली के जोसेफ रीगटन जिन्होंने 160 वर्ष की आयु पाई, जब वे मरे तब उनका बड़ा लड़का 108 वर्ष का और छोटा 89 वर्ष का था। (5) इंग्लैंड के थामस पार जिनकी मृत्यु 152 वर्ष की आयु में हुई (6) लेडी कैथराइन काउण्टेस डेसमांड जो 146 वर्ष तक जीवित रहे और जिनके मुंह में तीन बार दांत निकले (7) जोनाथन हारपोट जो 139 वर्ष के होकर मरे। उनके 7 पुत्र 26 पौत्र और 140 प्रपौत्र उनके सामने ही पैदा हुए थे।
इन सबने अपने दीर्घजीवन के अन्यान्य कारणों के अतिरिक्त एक कारण एक स्वर से बताया कि उन्होंने सदा भूख से कम भोजन किया और पेट को खाली रखने का स्वभाव बनाया।
बंगाल के प्रख्यात डॉक्टर और सर्व विदित नेता डा. विधानचन्द्र राय कहते थे कि 80 प्रतिशत मनुष्य आवश्यकता से अधिक मात्रा में भोजन करने के कारण बीमार पड़ते हैं।
सर विलियम टेम्पिल ने अपने ‘लोंग लाइफ’ ग्रन्थ में मिताहार पर बहुत जोर दिया है और कहा है यदि अधिक दिन जीना हो तो अपनी खुराक को घटाकर उतनी रखें। जितने से पेट को बराबर हलकापन अनुभव होता रहे।
मनुष्य ने अनेक प्रकार की भली बुरी उन्नतियां की हैं उनमें से एक बहुत बुरी उन्नति अपने आहार सम्बन्धी बुरी आदत के बारे में है। भूख न लगने पर भी खाना, एक ऐसी गलती है जिसका दण्ड मिलने के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। इस गलती का कारण यह मालूम होता है कि जिह्वा इन्द्रिय को नकली जायकों में बहका-बहकाकर उसे एक रिश्वतखोर राज कर्मचारी अथवा अभ्यस्त नशेबाज की स्थिति में पहुंचा दिया गया है। किसी भी प्राणी का स्वाभाविक आहार उसके मूल रूप में उपलब्ध स्थिति में ही हो सकता है। चिड़िया दाने चुगती है, पशु घास खाते हैं, हिंसक जीव, मांस और कीड़े मकोड़े अपनी-अपनी उपयोगी चीजें खाते हैं, पर वे खाते उसी रूप में हैं जिसमें कि प्राकृतिक रूप से वह आहार उपलब्ध होता है। कोई भी उसे न पकाता, न पीसता है और न स्वाद के लिए कोई अतिरिक्त मिर्च-मसाला उसमें मिलाता है। इस मर्यादा का पालन करने पर ही भूख के अनुसार आहार का नियम वे ठीक प्रकार चला पाते हैं। मनुष्य ने अपने आहार में पोषण की उपयोगिता की उपेक्षा करके स्वाद को प्रधानता दी है। वह चाहता तो शाक, फल, दूध, पर अपना गुजारा कर सकता था। अन्न के बिना काम नहीं चलता था तो उसे हरे रूप में अथवा सूखे अन्न को भिगोकर पुनः अंकुरित करके सजीव रूप में ले सकता था। पाचन क्रिया को बहुत दुर्बल बना लिया तो उबालने की क्रिया भी अपना सकता था, पर हर पदार्थ को जला डालने, भून डालने से उसके पोषक तत्व नष्ट करने की प्रक्रिया अपनाने से तो उसमें बचता ही क्या है? पोषण की दृष्टि से हमारे स्वादिष्ट कहलाने वाले पदार्थ केवल कोयला या छूंछ की श्रेणी में गिने जा सकते हैं।
इस स्वत्व-विहीन, निर्जीव आहार को भी यदि मनुष्य भूख की मर्यादा का ध्यान रखते हुए खाता तो भी गनीमत थी, पर मिर्च-मसालों के आधार पर उन्हें भी अधिक मात्रा में और बिना आवश्यकता के समय-कुसमय खाने की ठान ली। ऐसी दशा में पाचन यन्त्र कब तक अपना सही काम कर सकता था, बिगड़ना ही था, बिगड़ा भी हुआ है। मिर्च मसाले जो आज हमारे भोजन के प्रधान अंग बने हुए हैं न केवल व्यर्थ हैं वरन् हानिकारक भी हैं। छोटे बच्चे को लाल मिर्च खिलाई जाय तो वह उसकी जलन से बेचैन हो जायगा और बुरी तरह तड़प-तड़प कर रोने लगेगा। जिसने अपनी जीभ की आदत नहीं बिगाड़ी है उस प्रत्येक व्यक्ति का यही हाल होगा, चाहे छोटी आयु का हो, चाहे बड़ी आयु का डॉक्टर न मिर्च को शरीर के लिए उपयोगी स्वीकार करता है न मसाले को, पर हमारी बुद्धि ही है जो हर किसी की आदत बिगाड़ देती है। रिश्वत खोरी का चस्का, सिनेमा का चस्का, व्यभिचार का चस्का, नशेबाजी का चस्का जैसी आदत में शामिल होने पर मुश्किल से छूटता है उसी प्रकार प्रत्यक्ष हानिकर दीखते हुए भी मिर्च-मसाले और खटाई मिठाई के सम्मिश्रण से बनी हुई जायकेदार कहलाने वाली चीजें भी हमें प्रिय लगने लगती हैं और उन्हीं के स्वाद के लालच में मनुष्य समय, कुसमय आवश्यक, अनावश्यक भोजन करता रहता है। भूख न लगने पर भी जब थाली सामने आती है या जायके की हुड़क लगती है तो लोग कुछ न कुछ मुंह में ठूंसना आरम्भ कर देते हैं ऐसे लोग कितने हैं जो भूख की तृप्ति के लिए उपयोगी आहार को औषधि रूप में ग्रहण करते हैं? कितने लोग हैं जो आहार का चुनाव करते समय उसकी पोषण शक्ति का ध्यान रखते हैं? आमतौर से एक आनन्द, स्वाद, विनोद, फैशन के रूप में ही तरह-तरह के चित्र-विचित्र भोज किये जाते हैं। इसी बुरी आदत ने हमारे जीवन वृक्ष की जड़ पर कुल्हाड़ा चलाया है, जब तक यह बनी रहेगी तब तक पेट को सुधारने और शरीर के निरोग रहने की आशा दुराशा मात्र ही मानी जानी चाहिए।
सृष्टि के सभी प्राणी अपना आहार उनके प्राकृतिक स्वरूप में ही गृहण करते हैं। पशुओं को घास, वृक्षा-चारियों को फल, मांसाहारियों को मांस, सड़न भोजियों को सड़न अपने प्राकृतिक रूप में ही ग्राह्य होती है। उन्हें उसी में स्वाद आता है और उनका पेट उसी रूप में उसे पचा लेता है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। मनुष्य अपने खाद्य को उसके स्वाभाविक रूप में गृहण करने की अपेक्षा उसे अनेकानेक अग्नि संस्कारों से विकृत बनाता है जिन वस्तुओं का प्राकृतिक स्वाद उसके अनुकूल नहीं पड़ता वे स्पष्टतः उसके लिए चाहिए। कच्चे मांस का न तो स्वाद उनके अनुकूल पड़ता है और न गन्ध न स्वरूप। इससे जाहिर है कि वह उसके लिए किसी भी प्रकार करने योग्य नहीं, फिर भी प्रकृति के विपरीत जिह्वा की अस्वीकृति को झुठलाने के लिए उसे तरह-तरह से पकाने भूनने का क्रियाएं करके चिकनाई तथा मसालों की भरमार करके इस योग्य बनाया जाता है कि चटोरी बनाई गई जीभ उसे पेट में घुसने की इजाजत देदे। मनुष्य बन्दर जाति का फलाहारी प्राणी है। उसके लिए उसी स्तर के पदार्थ उपयोगी हो सकते हैं जो कच्चे खाये जा सकें। कच्चे अन्न, स्वादिष्ट शाक तथा उपयोगी फल उसके लिए स्वाभाविक भोजन हैं। यदि यही आहार अपनाया जाय तो निस्संदेह नीरोग और दीर्घजीवी रहने में कोई कठिनाई उत्पन्न न होगी।
आहार को विकृत न करें
जीभ की आदत बिगाड़ने के लिए उसे नशीली, जहरीली चीजें खिला-खिला कर विकृत स्वभाव का बनाया जाता है। इन नशों में नमक, मसाले और शकर, चिकनाई प्रधान हैं। इनमें से एक भी वस्तु हमारे लिए आवश्यक नहीं और न इनका स्वाद ही प्राकृतिक रूप से ग्राह्य है। नमक या मसाले यदि एक दो तोले भी हम खाना चाहें तो न खा सकेंगे। नमक जरा सा खाने पर उलटी होने लगेगी। मिर्च प्राकृतिक रूप से खाई जाय तो जीभ जलने लगेगी और नाक, आंख आदि से पानी टपकने लगेगा। हींग, लौंग थोड़ी-सी भी खाकर देखा जा सकता है कि उनकी कितनी भयंकर विकृति होती है। बालक की जीभ जब तक विकृत नहीं हो जाती तब तक वह उन्हें स्वीकार नहीं करता। घर में खाये जाने वाले मसाले युक्त आहार का तो वह धीरे-धीरे बहुत समय में अभ्यस्त होता है तब कहीं उसकी जीभ नशेबाज बनती है। अफीम और शराब जैसी कड़ुई वस्तुओं को भी आदी लोग मजे-मजे में पीते हैं, पीते ही नहीं उनके न मिलने पर बेचैन भी होते हैं। ठीक वही हाल विकृत बनाई गई स्वादेन्द्रियों का भी होता है। वह नमक मसाले बिना भोजन को स्वादिष्ट ही नहीं मानतीं और उसके न मिलने पर दुःख अनुभव करती हैं।
वस्तुतः शरीर को जितना और जिस स्तर का नमक चाहिए वह प्रत्येक खाद्य पदार्थ में समुचित मात्रा में मौजूद है। अनाज, फल, शाक, मेवा आदि में बहुत ही बढ़िया स्तर का नमक मौजूद है और वह आसानी से शरीर में घुल जाता है। जो खनिज नमक खाते हैं वह अनावश्यक ही नहीं वरन् हानिकारक भी है। वह खनिज लवण है जिसे हमारा शरीर स्वीकार नहीं करता। पसीना, पेशाब, कफ आदि में जो अनावश्यक खारीपन पाया जाता है वह वस्तुतः प्रकृति द्वारा उस नमक को बाहर धकेले जाने का ही प्रमाण है जिसे हमने विकृत स्वादवश शरीर में ठूंसा था।
हम यदि अपने भोजन में से नमक निकाल दें तो इसमें रत्ती भर भी हानि नहीं होने वाली है। वरन् एक विजातीय द्रव्य को जबरदस्ती पेट पर लादने के दुष्परिणाम से बचत ही हो जायगी। इतना ही नहीं उपयोगी पदार्थों की उनके प्राकृतिक रूप में जानने ग्रहण करने की उपयोगी आदत का विकास भी हो जायगा। स्वाद वश जो पेट की आवश्यकता से कहीं अधिक भोजन खा जाते हैं उसका परिणाम पाचन यन्त्र के रुग्ण एवं नष्ट होने के रूप में सामने आता है। पाचन यन्त्र बिगड़ जाने से खाद्य वस्तुएं ठीक तरह पच कर पोषण प्रदान करने की अपेक्षा, पेट में सड़न पैदा करेंगी और बीमारियां सामने आयेंगी। इस प्रकार जिन नमक मसालों को हम सुखद मानते हैं पसन्द करते हैं, वे ही हमारे लिए भयंकर स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करने वाले होते हैं। मिर्चें प्रत्यक्ष अखाद्य हैं। उन्हें शरीर में प्रवेश कराते समय जीभ से लेकर नाक आंख तक विद्रोह खड़ा करती हैं और जल स्राव करके उन्हें बहा देने का प्रयत्न करती हैं।
‘आर्कटिक की खोज में’ पुस्तक के लेखक जार्ज स्टीफेन्शन ने उत्तरी ध्रुव प्रदेश के निवासी एक्सिमो लोगों में नमक के प्रति घृणा करने की बात लिखी है। विद्वान वाथौलाम्ये ने चीन के देहाती प्रदेशों के विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि वहां पिछले दिनों तक बिना नमक का ही भोजन करने का प्रचलन था।
जिन क्षेत्रों अथवा वर्गों में नमक नहीं खाया जाता वहां के निवासी उन लोगों की तुलना में अधिक स्वस्थ हैं जो नमक मिला भोजन करने के आदी हैं। मनुष्य शरीर के लिए जिन प्राकृतिक लवणों की आवश्यकता है वे उसे सामान्य खाद्य पदार्थों से ही सरलतापूर्वक एवं समुचित मात्रा में मिल जाते हैं। सोडियम, मैग्नीशियम, फ्लोरियम कॉपर, कैल्शियम आदि लवण साग भाजियों में, फलों में एवं अन्न दूध में मौजूद हैं। फिर अलग से नमक खाने की आवश्यकता स्वाद के अतिरिक्त और किसी प्रयोजन के लिए नहीं रह जाती। यह स्वाद अन्ततः हमें बहुत महंगा पड़ता है। उनके कारण गुर्दे, हृदय, जिगर, आमाशय आदि यन्त्रों पर अनावश्यक दबाव पड़ता है और चर्म रोग, रक्त विकार, मस्तिष्कीय विकृतियां, स्नायविक तनाव आदि ऐसे कितने ही रोग उत्पन्न होते हैं जिनसे नमकीन स्वाद पर नियन्त्रण करके सहज ही बचा जा सकता था।
योग तत्व उपनिषद् में शाण्डिल्य ऋषि ने योग साधकों को नमक न खाने का उपदेश दिया है।
अमेरिका में नमक का प्रचलन घट रहा है। डॉक्टर ग्राहम सरीखे मनीषी, लोगों को बिना नमक का अथवा न्यूनतम नमक का आहार लेने की सलाह देते हैं। उस देश के आदिवासी, रैड इंडियन तो औषधि रूप में ही यदा कदा नमक का सेवन करते हैं।
अब तक यह मान्यता चली आती थी कि गर्मी के दिनों में मांस तथा पसीने के मार्ग से शरीर का नमक अधिक मात्रा में बाहर निकल जाता है, उस कमी के कारण लू मारने का डर रहता है इसलिए गर्मी के दिनों में अधिक नमक खाना चाहिए। इस किम्वदन्ती को ठीक मानकर भारत की सेनाओं के भोजन में अपेक्षाकृत अधिक नमक प्रयोग कराया जाता था।
प्रति रक्षा अनुसंधान संस्था ने इस संबंध में गम्भीर अध्ययन करके यह पाया कि वह किम्वदन्ती सर्वथा भ्रमपूर्ण थी। गर्मी के दिनों में भी मनुष्य को नमक की मात्रा बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं, संस्था के प्रधान अधिकारी डा. कोठारी के अनुसार अधिक नमक खाने से हाई ब्लड प्रेशर उत्पन्न होने का खतरा बढ़ता है।
फ्रांस के डाक्टर क्वाइरोल्ड ने अनिद्रा ग्रसित रोगियों को नमक छोड़ने की सलाह देकर इस कष्टकारक व्यथा से छुटकारा दिलाया। उसका प्रतिपादन है कि खनिज लवण जिसे आमतौर से लोग स्वाद के लिए खाते हैं अनावश्यक ही नहीं हानिकारक भी है। शरीर में उसकी बढ़ी हुई मात्रा मस्तिष्कीय तन्तुओं को उत्तेजित करती है और उससे निद्रा में रुकावट उत्पन्न होती है। यदि नमक कम खाया जाय अथवा न खाया जाय तो उससे नींद न आने के कष्ट से बहुत कुछ बचा जा सकता है।
कितने ही पशु पक्षियों को नमक का सेवन बहुत हानिकारक सिद्ध होता है। मैना पक्षी को नमक युक्त भोजन दिया जाय तो वह बीमार पड़ जायगी। यही बात अनेक अन्य पशुओं तथा पक्षियों और चूहों पर लागू होती है।
कोलम्बिया नदी के किनारे पर बसे हुए रैड इण्डियन आदिवासी नमक बिलकुल नहीं खाते। ऐसा ही नमक न छूने का प्रचलन अलजीरिया के आदिवासियों में है। सहारा रेगिस्तान में रहने वाले बद्दू कबीले के लोग भी नमक नहीं खाते। अफ्रीका प्रशान्त सागर के मध्यद्वीप, साइबेरिया आदि के आदिवासी भी नमक के स्वाद से अपरिचित हैं। और तो और अपने पड़ौसी नेपाल का भी एक ऐसा वन्य प्रदेश है जहां के लोग नमक नहीं खाते।
सभी जानते हैं कि रक्तचाप के मरीज को यदि नमक का सेवन बन्द करा दिया जाय अथवा घटा दिया जाय तो उसे बहुत राहत मिलती है।
जोन्स होपकिन्स विश्व विद्यालय के तीन वैज्ञानिकों ने नमक पर संयुक्त शोध करके यह निष्कर्ष निकाला है कि नमक सचमुच ही उग्र रक्तचाप का एक बहुत बड़ा कारण है। इन अनुसंधान कर्त्ताओं के नाम हैं—डा. लुई.सी. लेसाग्ना नार्मा फालिस और लिवो ट्रेटियाल्ट। इस मण्डली का यह भी कहना है कि नमक के चटोरों की स्वाद अनुभव करने की शक्ति घटती चली जाती है फलतः अधिक मात्रा में नमक खाने पर ही उन्हें कुछ स्वाद आता है। यह मात्रा वृद्धि उनके रोग को बढ़ाने में और भी अधिक सहायक बनती है। मण्डली का एक निष्कर्ष यह भी है कि महिलायें, पुरुषों की तुलना में अधिक निठल्ली रहती हैं और अधिक चटोरी होती हैं। इसलिए रक्तचाप की शिकायत भी पुरुषों की तुलना में उन्हें ही अधिक होती है।
रक्तचाप जैसी बीमारियों में तो आधुनिक चिकित्सक भी नमक त्याग की सलाह देते हैं। हृदय रोगियों को भी उसे कम मात्रा में लेने को कहा जाता है।सूजन बढ़ाने वाली बीमारियों में भी नमक छोड़ने में जल्दी लाभ होता देखा गया है।
अस्वाद व्रत अध्यात्म साधनाओं का प्रथम सोपान माना गया है। व्रत उपवासों में, तप अनुष्ठानों में नमक त्याग एक आवश्यक नियम माना जाता है। योगी तपस्वी स्वाद रहित भोजन करने की दृष्टि से नमक छोड़ देते हैं। यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए उपयोगी कदम है। जीभ को चटोरी बनाने से कामेन्द्रिय तथा अन्य इन्द्रियां उत्तेजित होती हैं और अनेकों शारीरिक मानसिक विकार उत्पन्न करती हैं।
आहार, मात्र पेट भरने के लिए नहीं है और न जिह्वा का स्वाद तृप्त करने के लिए। उसे शरीर को उचित पोषण प्रदान करने की दृष्टि से ग्रहण किया जाना चाहिए। गन्ध, स्वरूप और स्वाद की दृष्टि से नहीं वरन् उसे इस दृष्टि से परखा जाना चाहिए कि उपयुक्त पोषण प्रदान कर सकने के तत्व उसमें हैं या नहीं। उपयुक्त भोजन के सम्बन्ध में सतर्कता बरतने पर ही हम नीरोग और दीर्घजीवी बन सकते हैं। इस दिशा में बरती गई उपेक्षा एवं भूल का दुष्परिणाम हर किसी के लिए बहुत महंगा पड़ता है।
विश्व विख्यात डॉक्टर मैक्फेडन ने कहा है—भोजन के अभाव से संसार में जितने लोग अकाल पीड़ित होकर मरते हैं उससे कहीं अधिक अनावश्यक भोजन करने के कारण रोगग्रस्त होकर मरते हैं।
यूनान की एक कहावत है—तलवार उतने लोगों को नहीं मारती जितने अधिक खाकर मरते हैं। सुलेमान कहते हैं—जो अधिक खायेगा वह अपना दाना-पानी जल्द खतम करके मौत के मुंह में समय से पहले ही चला जायगा।
आस्ट्रेलिया के ख्यातिनामा डॉक्टर हर्न कहते थे लोग जितना खाते हैं उसका एक तिहाई भी पचा नहीं पाते। स्वास्थ्य विज्ञानी हेरी बेंजामिन ने लिखा है—बेवकूफियों में परले सिरे की बेवकूफी है—अधिक भोजन करना। डॉक्टर लोएन्ड ने आयु को घटाने वाले जो दस कारण बताये हैं उनमें प्रथम भोजन करने की बुरी आदत को गिना है।
संसार के महापुरुषों में से प्रायः प्रत्येक की यह विशेषता रही है कि उन्होंने पेट की मांग से कम मात्रा में भोजन लेने का नियम रखा और अपने स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाये रह सके।
संसार के दीर्घजीवियों में सात को अग्रिम पंक्ति में खड़ा किया जाता है। (1) अमेरिका के मेलेटोजा 187 वर्ष के होकर मरे (2) हंगरी के पीटर्स झोर्टन जो 185 वर्ष जिये (3) यार्क शायर के हेनरी जेनकिस जिन्होंने 161 वर्ष की आयु पाई (4) इटली के जोसेफ रीगटन जिन्होंने 160 वर्ष की आयु पाई, जब वे मरे तब उनका बड़ा लड़का 108 वर्ष का और छोटा 89 वर्ष का था। (5) इंग्लैंड के थामस पार जिनकी मृत्यु 152 वर्ष की आयु में हुई (6) लेडी कैथराइन काउण्टेस डेसमांड जो 146 वर्ष तक जीवित रहे और जिनके मुंह में तीन बार दांत निकले (7) जोनाथन हारपोट जो 139 वर्ष के होकर मरे। उनके 7 पुत्र 26 पौत्र और 140 प्रपौत्र उनके सामने ही पैदा हुए थे।
इन सबने अपने दीर्घजीवन के अन्यान्य कारणों के अतिरिक्त एक कारण एक स्वर से बताया कि उन्होंने सदा भूख से कम भोजन किया और पेट को खाली रखने का स्वभाव बनाया।
बंगाल के प्रख्यात डॉक्टर और सर्व विदित नेता डा. विधानचन्द्र राय कहते थे कि 80 प्रतिशत मनुष्य आवश्यकता से अधिक मात्रा में भोजन करने के कारण बीमार पड़ते हैं।
सर विलियम टेम्पिल ने अपने ‘लोंग लाइफ’ ग्रन्थ में मिताहार पर बहुत जोर दिया है और कहा है यदि अधिक दिन जीना हो तो अपनी खुराक को घटाकर उतनी रखें। जितने से पेट को बराबर हलकापन अनुभव होता रहे।
मनुष्य ने अनेक प्रकार की भली बुरी उन्नतियां की हैं उनमें से एक बहुत बुरी उन्नति अपने आहार सम्बन्धी बुरी आदत के बारे में है। भूख न लगने पर भी खाना, एक ऐसी गलती है जिसका दण्ड मिलने के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। इस गलती का कारण यह मालूम होता है कि जिह्वा इन्द्रिय को नकली जायकों में बहका-बहकाकर उसे एक रिश्वतखोर राज कर्मचारी अथवा अभ्यस्त नशेबाज की स्थिति में पहुंचा दिया गया है। किसी भी प्राणी का स्वाभाविक आहार उसके मूल रूप में उपलब्ध स्थिति में ही हो सकता है। चिड़िया दाने चुगती है, पशु घास खाते हैं, हिंसक जीव, मांस और कीड़े मकोड़े अपनी-अपनी उपयोगी चीजें खाते हैं, पर वे खाते उसी रूप में हैं जिसमें कि प्राकृतिक रूप से वह आहार उपलब्ध होता है। कोई भी उसे न पकाता, न पीसता है और न स्वाद के लिए कोई अतिरिक्त मिर्च-मसाला उसमें मिलाता है। इस मर्यादा का पालन करने पर ही भूख के अनुसार आहार का नियम वे ठीक प्रकार चला पाते हैं। मनुष्य ने अपने आहार में पोषण की उपयोगिता की उपेक्षा करके स्वाद को प्रधानता दी है। वह चाहता तो शाक, फल, दूध, पर अपना गुजारा कर सकता था। अन्न के बिना काम नहीं चलता था तो उसे हरे रूप में अथवा सूखे अन्न को भिगोकर पुनः अंकुरित करके सजीव रूप में ले सकता था। पाचन क्रिया को बहुत दुर्बल बना लिया तो उबालने की क्रिया भी अपना सकता था, पर हर पदार्थ को जला डालने, भून डालने से उसके पोषक तत्व नष्ट करने की प्रक्रिया अपनाने से तो उसमें बचता ही क्या है? पोषण की दृष्टि से हमारे स्वादिष्ट कहलाने वाले पदार्थ केवल कोयला या छूंछ की श्रेणी में गिने जा सकते हैं।
इस स्वत्व-विहीन, निर्जीव आहार को भी यदि मनुष्य भूख की मर्यादा का ध्यान रखते हुए खाता तो भी गनीमत थी, पर मिर्च-मसालों के आधार पर उन्हें भी अधिक मात्रा में और बिना आवश्यकता के समय-कुसमय खाने की ठान ली। ऐसी दशा में पाचन यन्त्र कब तक अपना सही काम कर सकता था, बिगड़ना ही था, बिगड़ा भी हुआ है। मिर्च मसाले जो आज हमारे भोजन के प्रधान अंग बने हुए हैं न केवल व्यर्थ हैं वरन् हानिकारक भी हैं। छोटे बच्चे को लाल मिर्च खिलाई जाय तो वह उसकी जलन से बेचैन हो जायगा और बुरी तरह तड़प-तड़प कर रोने लगेगा। जिसने अपनी जीभ की आदत नहीं बिगाड़ी है उस प्रत्येक व्यक्ति का यही हाल होगा, चाहे छोटी आयु का हो, चाहे बड़ी आयु का डॉक्टर न मिर्च को शरीर के लिए उपयोगी स्वीकार करता है न मसाले को, पर हमारी बुद्धि ही है जो हर किसी की आदत बिगाड़ देती है। रिश्वत खोरी का चस्का, सिनेमा का चस्का, व्यभिचार का चस्का, नशेबाजी का चस्का जैसी आदत में शामिल होने पर मुश्किल से छूटता है उसी प्रकार प्रत्यक्ष हानिकर दीखते हुए भी मिर्च-मसाले और खटाई मिठाई के सम्मिश्रण से बनी हुई जायकेदार कहलाने वाली चीजें भी हमें प्रिय लगने लगती हैं और उन्हीं के स्वाद के लालच में मनुष्य समय, कुसमय आवश्यक, अनावश्यक भोजन करता रहता है। भूख न लगने पर भी जब थाली सामने आती है या जायके की हुड़क लगती है तो लोग कुछ न कुछ मुंह में ठूंसना आरम्भ कर देते हैं ऐसे लोग कितने हैं जो भूख की तृप्ति के लिए उपयोगी आहार को औषधि रूप में ग्रहण करते हैं? कितने लोग हैं जो आहार का चुनाव करते समय उसकी पोषण शक्ति का ध्यान रखते हैं? आमतौर से एक आनन्द, स्वाद, विनोद, फैशन के रूप में ही तरह-तरह के चित्र-विचित्र भोज किये जाते हैं। इसी बुरी आदत ने हमारे जीवन वृक्ष की जड़ पर कुल्हाड़ा चलाया है, जब तक यह बनी रहेगी तब तक पेट को सुधारने और शरीर के निरोग रहने की आशा दुराशा मात्र ही मानी जानी चाहिए।
सृष्टि के सभी प्राणी अपना आहार उनके प्राकृतिक स्वरूप में ही गृहण करते हैं। पशुओं को घास, वृक्षा-चारियों को फल, मांसाहारियों को मांस, सड़न भोजियों को सड़न अपने प्राकृतिक रूप में ही ग्राह्य होती है। उन्हें उसी में स्वाद आता है और उनका पेट उसी रूप में उसे पचा लेता है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। मनुष्य अपने खाद्य को उसके स्वाभाविक रूप में गृहण करने की अपेक्षा उसे अनेकानेक अग्नि संस्कारों से विकृत बनाता है जिन वस्तुओं का प्राकृतिक स्वाद उसके अनुकूल नहीं पड़ता वे स्पष्टतः उसके लिए चाहिए। कच्चे मांस का न तो स्वाद उनके अनुकूल पड़ता है और न गन्ध न स्वरूप। इससे जाहिर है कि वह उसके लिए किसी भी प्रकार करने योग्य नहीं, फिर भी प्रकृति के विपरीत जिह्वा की अस्वीकृति को झुठलाने के लिए उसे तरह-तरह से पकाने भूनने का क्रियाएं करके चिकनाई तथा मसालों की भरमार करके इस योग्य बनाया जाता है कि चटोरी बनाई गई जीभ उसे पेट में घुसने की इजाजत देदे। मनुष्य बन्दर जाति का फलाहारी प्राणी है। उसके लिए उसी स्तर के पदार्थ उपयोगी हो सकते हैं जो कच्चे खाये जा सकें। कच्चे अन्न, स्वादिष्ट शाक तथा उपयोगी फल उसके लिए स्वाभाविक भोजन हैं। यदि यही आहार अपनाया जाय तो निस्संदेह नीरोग और दीर्घजीवी रहने में कोई कठिनाई उत्पन्न न होगी।
आहार को विकृत न करें
जीभ की आदत बिगाड़ने के लिए उसे नशीली, जहरीली चीजें खिला-खिला कर विकृत स्वभाव का बनाया जाता है। इन नशों में नमक, मसाले और शकर, चिकनाई प्रधान हैं। इनमें से एक भी वस्तु हमारे लिए आवश्यक नहीं और न इनका स्वाद ही प्राकृतिक रूप से ग्राह्य है। नमक या मसाले यदि एक दो तोले भी हम खाना चाहें तो न खा सकेंगे। नमक जरा सा खाने पर उलटी होने लगेगी। मिर्च प्राकृतिक रूप से खाई जाय तो जीभ जलने लगेगी और नाक, आंख आदि से पानी टपकने लगेगा। हींग, लौंग थोड़ी-सी भी खाकर देखा जा सकता है कि उनकी कितनी भयंकर विकृति होती है। बालक की जीभ जब तक विकृत नहीं हो जाती तब तक वह उन्हें स्वीकार नहीं करता। घर में खाये जाने वाले मसाले युक्त आहार का तो वह धीरे-धीरे बहुत समय में अभ्यस्त होता है तब कहीं उसकी जीभ नशेबाज बनती है। अफीम और शराब जैसी कड़ुई वस्तुओं को भी आदी लोग मजे-मजे में पीते हैं, पीते ही नहीं उनके न मिलने पर बेचैन भी होते हैं। ठीक वही हाल विकृत बनाई गई स्वादेन्द्रियों का भी होता है। वह नमक मसाले बिना भोजन को स्वादिष्ट ही नहीं मानतीं और उसके न मिलने पर दुःख अनुभव करती हैं।
वस्तुतः शरीर को जितना और जिस स्तर का नमक चाहिए वह प्रत्येक खाद्य पदार्थ में समुचित मात्रा में मौजूद है। अनाज, फल, शाक, मेवा आदि में बहुत ही बढ़िया स्तर का नमक मौजूद है और वह आसानी से शरीर में घुल जाता है। जो खनिज नमक खाते हैं वह अनावश्यक ही नहीं वरन् हानिकारक भी है। वह खनिज लवण है जिसे हमारा शरीर स्वीकार नहीं करता। पसीना, पेशाब, कफ आदि में जो अनावश्यक खारीपन पाया जाता है वह वस्तुतः प्रकृति द्वारा उस नमक को बाहर धकेले जाने का ही प्रमाण है जिसे हमने विकृत स्वादवश शरीर में ठूंसा था।
हम यदि अपने भोजन में से नमक निकाल दें तो इसमें रत्ती भर भी हानि नहीं होने वाली है। वरन् एक विजातीय द्रव्य को जबरदस्ती पेट पर लादने के दुष्परिणाम से बचत ही हो जायगी। इतना ही नहीं उपयोगी पदार्थों की उनके प्राकृतिक रूप में जानने ग्रहण करने की उपयोगी आदत का विकास भी हो जायगा। स्वाद वश जो पेट की आवश्यकता से कहीं अधिक भोजन खा जाते हैं उसका परिणाम पाचन यन्त्र के रुग्ण एवं नष्ट होने के रूप में सामने आता है। पाचन यन्त्र बिगड़ जाने से खाद्य वस्तुएं ठीक तरह पच कर पोषण प्रदान करने की अपेक्षा, पेट में सड़न पैदा करेंगी और बीमारियां सामने आयेंगी। इस प्रकार जिन नमक मसालों को हम सुखद मानते हैं पसन्द करते हैं, वे ही हमारे लिए भयंकर स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करने वाले होते हैं। मिर्चें प्रत्यक्ष अखाद्य हैं। उन्हें शरीर में प्रवेश कराते समय जीभ से लेकर नाक आंख तक विद्रोह खड़ा करती हैं और जल स्राव करके उन्हें बहा देने का प्रयत्न करती हैं।
‘आर्कटिक की खोज में’ पुस्तक के लेखक जार्ज स्टीफेन्शन ने उत्तरी ध्रुव प्रदेश के निवासी एक्सिमो लोगों में नमक के प्रति घृणा करने की बात लिखी है। विद्वान वाथौलाम्ये ने चीन के देहाती प्रदेशों के विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि वहां पिछले दिनों तक बिना नमक का ही भोजन करने का प्रचलन था।
जिन क्षेत्रों अथवा वर्गों में नमक नहीं खाया जाता वहां के निवासी उन लोगों की तुलना में अधिक स्वस्थ हैं जो नमक मिला भोजन करने के आदी हैं। मनुष्य शरीर के लिए जिन प्राकृतिक लवणों की आवश्यकता है वे उसे सामान्य खाद्य पदार्थों से ही सरलतापूर्वक एवं समुचित मात्रा में मिल जाते हैं। सोडियम, मैग्नीशियम, फ्लोरियम कॉपर, कैल्शियम आदि लवण साग भाजियों में, फलों में एवं अन्न दूध में मौजूद हैं। फिर अलग से नमक खाने की आवश्यकता स्वाद के अतिरिक्त और किसी प्रयोजन के लिए नहीं रह जाती। यह स्वाद अन्ततः हमें बहुत महंगा पड़ता है। उनके कारण गुर्दे, हृदय, जिगर, आमाशय आदि यन्त्रों पर अनावश्यक दबाव पड़ता है और चर्म रोग, रक्त विकार, मस्तिष्कीय विकृतियां, स्नायविक तनाव आदि ऐसे कितने ही रोग उत्पन्न होते हैं जिनसे नमकीन स्वाद पर नियन्त्रण करके सहज ही बचा जा सकता था।
योग तत्व उपनिषद् में शाण्डिल्य ऋषि ने योग साधकों को नमक न खाने का उपदेश दिया है।
अमेरिका में नमक का प्रचलन घट रहा है। डॉक्टर ग्राहम सरीखे मनीषी, लोगों को बिना नमक का अथवा न्यूनतम नमक का आहार लेने की सलाह देते हैं। उस देश के आदिवासी, रैड इंडियन तो औषधि रूप में ही यदा कदा नमक का सेवन करते हैं।
अब तक यह मान्यता चली आती थी कि गर्मी के दिनों में मांस तथा पसीने के मार्ग से शरीर का नमक अधिक मात्रा में बाहर निकल जाता है, उस कमी के कारण लू मारने का डर रहता है इसलिए गर्मी के दिनों में अधिक नमक खाना चाहिए। इस किम्वदन्ती को ठीक मानकर भारत की सेनाओं के भोजन में अपेक्षाकृत अधिक नमक प्रयोग कराया जाता था।
प्रति रक्षा अनुसंधान संस्था ने इस संबंध में गम्भीर अध्ययन करके यह पाया कि वह किम्वदन्ती सर्वथा भ्रमपूर्ण थी। गर्मी के दिनों में भी मनुष्य को नमक की मात्रा बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं, संस्था के प्रधान अधिकारी डा. कोठारी के अनुसार अधिक नमक खाने से हाई ब्लड प्रेशर उत्पन्न होने का खतरा बढ़ता है।
फ्रांस के डाक्टर क्वाइरोल्ड ने अनिद्रा ग्रसित रोगियों को नमक छोड़ने की सलाह देकर इस कष्टकारक व्यथा से छुटकारा दिलाया। उसका प्रतिपादन है कि खनिज लवण जिसे आमतौर से लोग स्वाद के लिए खाते हैं अनावश्यक ही नहीं हानिकारक भी है। शरीर में उसकी बढ़ी हुई मात्रा मस्तिष्कीय तन्तुओं को उत्तेजित करती है और उससे निद्रा में रुकावट उत्पन्न होती है। यदि नमक कम खाया जाय अथवा न खाया जाय तो उससे नींद न आने के कष्ट से बहुत कुछ बचा जा सकता है।
कितने ही पशु पक्षियों को नमक का सेवन बहुत हानिकारक सिद्ध होता है। मैना पक्षी को नमक युक्त भोजन दिया जाय तो वह बीमार पड़ जायगी। यही बात अनेक अन्य पशुओं तथा पक्षियों और चूहों पर लागू होती है।
कोलम्बिया नदी के किनारे पर बसे हुए रैड इण्डियन आदिवासी नमक बिलकुल नहीं खाते। ऐसा ही नमक न छूने का प्रचलन अलजीरिया के आदिवासियों में है। सहारा रेगिस्तान में रहने वाले बद्दू कबीले के लोग भी नमक नहीं खाते। अफ्रीका प्रशान्त सागर के मध्यद्वीप, साइबेरिया आदि के आदिवासी भी नमक के स्वाद से अपरिचित हैं। और तो और अपने पड़ौसी नेपाल का भी एक ऐसा वन्य प्रदेश है जहां के लोग नमक नहीं खाते।
सभी जानते हैं कि रक्तचाप के मरीज को यदि नमक का सेवन बन्द करा दिया जाय अथवा घटा दिया जाय तो उसे बहुत राहत मिलती है।
जोन्स होपकिन्स विश्व विद्यालय के तीन वैज्ञानिकों ने नमक पर संयुक्त शोध करके यह निष्कर्ष निकाला है कि नमक सचमुच ही उग्र रक्तचाप का एक बहुत बड़ा कारण है। इन अनुसंधान कर्त्ताओं के नाम हैं—डा. लुई.सी. लेसाग्ना नार्मा फालिस और लिवो ट्रेटियाल्ट। इस मण्डली का यह भी कहना है कि नमक के चटोरों की स्वाद अनुभव करने की शक्ति घटती चली जाती है फलतः अधिक मात्रा में नमक खाने पर ही उन्हें कुछ स्वाद आता है। यह मात्रा वृद्धि उनके रोग को बढ़ाने में और भी अधिक सहायक बनती है। मण्डली का एक निष्कर्ष यह भी है कि महिलायें, पुरुषों की तुलना में अधिक निठल्ली रहती हैं और अधिक चटोरी होती हैं। इसलिए रक्तचाप की शिकायत भी पुरुषों की तुलना में उन्हें ही अधिक होती है।
रक्तचाप जैसी बीमारियों में तो आधुनिक चिकित्सक भी नमक त्याग की सलाह देते हैं। हृदय रोगियों को भी उसे कम मात्रा में लेने को कहा जाता है।सूजन बढ़ाने वाली बीमारियों में भी नमक छोड़ने में जल्दी लाभ होता देखा गया है।
अस्वाद व्रत अध्यात्म साधनाओं का प्रथम सोपान माना गया है। व्रत उपवासों में, तप अनुष्ठानों में नमक त्याग एक आवश्यक नियम माना जाता है। योगी तपस्वी स्वाद रहित भोजन करने की दृष्टि से नमक छोड़ देते हैं। यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए उपयोगी कदम है। जीभ को चटोरी बनाने से कामेन्द्रिय तथा अन्य इन्द्रियां उत्तेजित होती हैं और अनेकों शारीरिक मानसिक विकार उत्पन्न करती हैं।
आहार, मात्र पेट भरने के लिए नहीं है और न जिह्वा का स्वाद तृप्त करने के लिए। उसे शरीर को उचित पोषण प्रदान करने की दृष्टि से ग्रहण किया जाना चाहिए। गन्ध, स्वरूप और स्वाद की दृष्टि से नहीं वरन् उसे इस दृष्टि से परखा जाना चाहिए कि उपयुक्त पोषण प्रदान कर सकने के तत्व उसमें हैं या नहीं। उपयुक्त भोजन के सम्बन्ध में सतर्कता बरतने पर ही हम नीरोग और दीर्घजीवी बन सकते हैं। इस दिशा में बरती गई उपेक्षा एवं भूल का दुष्परिणाम हर किसी के लिए बहुत महंगा पड़ता है।