Books - शरीर की अद्भुत क्षमताएँ एवं विशेषताएँ
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ऐसी विलक्षणता और कहीं नहीं
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परमात्मा से इतनी विलक्षण विशेषतायें संसार के अन्य किसी प्राणी को नहीं मिली हैं। जितना सर्वांगपूर्ण शरीर उसने मनुष्य को दिया है। मस्तिष्क से लेकर पैर तक और चर्म केश से लेकर अस्थि मज्जा तक मनुष्य शरीर में इतनी विशेषतायें भरी हैं। अन्य जीवों के शरीर में वे कहीं भी देखने को नहीं मिलतीं।पानी में पाया जाने वाला एक कोशीय जीव अमीबा आकृति में जितना छोटा होता है, शारीरिक रचना में उतना ही सरल। सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखने में वह ‘‘संशय’’ के स में लगे बिन्दु (.) जितना लगता है, मनुष्य के शरीर की तरह न तो उसके हाथ-पांव होते हैं न फेफड़े, आंतें, आमाशय मुंह, दांत, नाक आंखें आदि। एक तो उसका नाभिक (न्यूक्लियस) शेष साइटोप्लाज्म (जीव द्रव्य अर्थात् वह प्राकृतिक तत्व जिनसे जीवित शरीर बनते हैं) दोनों को मिलाकर वही प्रोटोप्लाज्मा कहलाता है। चलना हो तो उसी में दो चिमटी निकाल कर चल लेगा, दो चिमटी बनाकर चल लेगा, प्रोटोप्लाज्मा आगे बढ़ाकर ही वह चल लेता है। यह तो मनुष्य शरीर ही है जिसे भगवान् ने इतना सुन्दर, सर्वांगपूर्ण और ऐसा बनाया है कि उससे संसार का कोई भी प्रयोजन पूरा किया जा सके हमें संसार के अन्य जीवों से अपनी तुलना करनी चाहिए और यह विचार करना चाहिए इतनी परिपूर्ण देन क्या अन्य जीवों की तरह ही व्यर्थ इन्द्रिय भोगों में गुजार देने के लिए है या उसका कोई और भी बड़ा उपयोग हो सकता है?
प्राणियों की दुनिया में जीव-जन्तुओं की कोई कमी नहीं है। गणना की जाये तो 84 लाख से एक भी कम न निकले। एक से एक विचित्र आकृति, एक से एक विचित्र प्रकृति। समुद्र में एक ऑक्टोपस जीव पाया जाता है, आकार में बहुत छोटा पर आठ भुजायें कभी-कभी अंगड़ाई लेता है तो इतना बढ़ जाता है कि एक सिरे से दूसरे सिरे तक 20 फुट लम्बा हो जाता है। न्यूयार्क के ‘‘म्यूजियम आफ नेचुरल हिस्ट्री’’ में ‘‘मोआ’’ नामक एक पक्षी के अस्थि-अवशेष (फासिल्स) सुरक्षित हैं अनुमान है कि यह 700 वर्ष पूर्व कभी न्यूजीलैण्ड में पाया जाता था। इसकी टांगें 6 फुट लम्बी और लगभग इतनी ही लम्बी गर्दन। दो सिरों वाली 12 फुट की लकड़ी जैसा यह पक्षी भी प्राणि-जगत का आश्चर्य रहा होगा कभी।
‘‘डायाट्राइमा’’ भी इसी तरह एक न उड़ने वाला पक्षी था। उसकी आकृति देखते ही हंसी आ जाती है। अफ्रीकन राइनो के थुथनों के ऊपर सींग और पीछे दो कान—चार स्थम्भों वाला सिर भी कुछ कम विचित्र नहीं। ओरंग उठान, गिब्बन और चिम्पैंजी—बन्दर, डकर्विल, डिप्लोडोकस (इस 6 करोड़ वर्ष पूर्व भयंकर छिपकली के नाम से जाने वाले जीव की लम्बाई आज तक पाये जाने वाले जीवों में सबसे अधिक लगभग 21 मीटर होती थी) और दरियाई घोड़े जैसे विलक्षण जीव, घोंघे, मछलियां, मेढ़क आदि के शरीर देखकर पता चलता है कि प्रकृति कितनी चतुर, कितनी विदूषक और कैसी कलाकार है, वह जो कुछ न गढ़ दें सो थोड़ा।
एक बड़े दृष्टिकोण से सोचें तो पता चलेगा कि सृष्टि के अन्य मानवेत्तर जीवों को प्रकृति ने विलक्षण अवश्य बनाया है पर उनको इतना अशक्त-इतना कमजोर बनाया है कि वे अपनी रक्षा एक सीमा तक कर सकने में समर्थ होते हैं। किसी तरह बेचारे अपनी तुच्छ सी इच्छायें पूर्ण करने के चक्कर में पड़े भारतीय तत्व दर्शन की यह मान्यता प्रमाणित करते रहते हैं। जिसके लिए योग वशिष्ठ में कहा गया है—जैसे जल के ऊपर बुलबुले उठा करते हैं और नष्ट होते रहते हैं। वैसे ही प्रत्येक देश और काल में अनन्त जीव उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं।’’
(4।43।4)
वैज्ञानिकों ने मनुष्य शरीर जैसी कोई भी मशीन बनाने में असमर्थता व्यक्त की है। एलिवेटर या लिफ्ट एक ऐसी मशीन बनाई गई है, जिस पर बैठकर कई मंजिल की ऊंची इमारतों में क्षण भर में चढ़ा जा सकता है और सीढ़ियां चढ़ने की थकान से बचा जा सकता है। तार से सन्देश भेजने और उन्हें लिखित रूप में प्राप्त करने के लिए ‘टेलीप्रिन्टर’ मशीनें बनाई गई हैं। फैक सिमली नामक मशीनों पर आज-कल तार से चित्र भेजना भी सम्भव हो गया है। अमेरिका में हो रहे अधिवेशन के चित्र दूसरे ही दिन भारतीय समाचार पत्रों में छप जाते हैं, यह सब इसी मशीन की कृपा का फल है।
इसी प्रकार कैमरे, घड़ी, प्रेस, जाइनोस्कोप, जनरेटर, कन्सर्टिना वेसिमर कन्वर्टर, बिलियर्ड, टैंक आदि सैकड़ों मशीनें और आयुध मनुष्य की बुद्धिमत्ता की दाद देते हैं। ‘टेलस्टार’ नामक रैकेट को तो संसार का महानतम आश्चर्य कहना चाहिए। सारी पृथ्वी को एक संचार सूत्र में बांधने वाले 170 पौण्ड भार और कुल 34 इंच व्यास के इस यन्त्र में 3600 सौर बैटरियां लगी हैं, इसी की सहायता से हम संसार के किसी भी कोने में बैठे हुए व्यक्ति से ऐसे बात-चीत कर सकते हैं, मानो वह अपने सामने या बगल में बैठा हुआ हो। इन सबके बनाने में मनुष्य की विलक्षण बौद्धिक क्षमता चमत्कार रूप में प्रकट हुई है, उस पर हम चाहें तो गर्व भी कर सकते हैं।
किन्तु मनुष्य शरीर जैसी मशीन बनाना मनुष्य के लिए भी सम्भव नहीं हुआ। ऐसी परिपूर्ण मशीन जो शरीर के रूप में परमात्मा ने बनाकर आत्मा को विश्व विहार के लिए दी है, आज तक कोई भी वैज्ञानिक नहीं बना सका। भविष्य में बना सकने की भी कोई आशा मनुष्य से नहीं हैं। यह परमात्मा ही है, जो अपनी इच्छा से ऐसी प्राण युक्त मशीन का निर्माण कर सका। संसार की विलक्षण से विलक्षण मशीन भी उसकी तुलना नहीं कर सकती।
कल्पना करें और वैज्ञानिक दृष्टि से आंखें उघाड़कर देखें तो पता चलेगा कि मनुष्य शरीर के निर्माण में प्रकृति ने जो बुद्धि कौशल खर्च किया तथा परिश्रम जुटाया वह अन्य किसी भी शरीर के लिए नहीं किया मनुष्य शरीर सृष्टि का सबसे विलक्षण उपादान है। ऐसा आश्चर्य और कोई दूसरा नहीं है। यह एक अभेद्य दुर्ग है, जिसमें रह रहे जीवात्मा को अन्य जीवों की तरह संसार की किसी भी परिस्थिति या संकट से भयभीत होने का कोई कारण नहीं। जबकि अन्य जीव अपनी इन्द्रियों की तृप्ति और अपने शरीर की दुश्मनों से रक्षा इन दो कारणों को लेकर ही जीते रहते हैं, मनुष्य के लिए यह दोनों बातें बिलकुल गौण हैं वह अपने बुद्धि कौशल से धर्म, कला, संस्कृति का निर्माण करता है और इनके सहारे अपनी आत्मा को ऊपर उठाते हुए स्वर्ग और मुक्ति जैसे दिव्य लाभ प्राप्त करता है। आत्म-दर्शन और ईश्वर—साक्षात्कार जैसी विभूतियां प्राप्त करने की समस्त सुविधायें मनुष्य शरीर को ही प्राप्त हैं। यह सर्व क्षमता सम्पन्न जीवात्मा का अभेद्य दुर्ग यन्त्र और वाहन है, जिसका उपयोग करके मनुष्य सारे संसार में विचरण कर सकता है।
आज के वैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि जो विशेषतायें और सामर्थ्यं प्रकृति ने मनुष्य को प्रदान की हैं वह सृष्टि के किसी भी प्राणि-शरीर को उपलब्ध नहीं। गर्भोपनिषद् के अनुसार शरीर की 180 सन्धियां, 107 मर्मस्थान, 109 स्नायु, 700 शिरायें, और 500 मज्जायें 360 हड्डियां, 41।2 करोड़ रोम, हृदय के 8 और जिह्वा के 12 पल, 1 प्रस्थ पित्त, 1 कफ आढ़क, 1 शुक्र कुड़व भेद, 2 प्रस्थ और आहार ग्रहण करने व मल-मूत्र निष्कासन के जो अच्छे से अच्छे यन्त्र इस शरीर में लगे हैं वह प्रकृति द्वारा निर्मित किसी भी शरीर में नहीं है।
जीव गर्भ में आता है प्रकृति तभी से उसकी सेवा सुरक्षा, प्यार-दुलार एक जीवित माता की तरह प्रारम्भ कर देती है। जीव उस समय तैत्तिरीय संहिता के अनुसार—सोने की तरह शुचि और पावक आपः अर्थात् अग्नि के विद्युत रूप में था। उसमें प्रकाश, जल और आकाश तत्व भी थे।’’ 5।6।1 अतएव उसकी सर्दी-गर्मी से रक्षा की नितान्त आवश्यकता थी। ऐसा न होता तो शीत या ग्रीष्म के कारण जल जाता और भ्रूण प्रारम्भ में ही नष्ट हो जाता उस समय मां के गर्भ जैसा रक्षा कवच और किसी प्राणी को नहीं मिलता। जिसमें मौसम से तो सुरक्षा होती ही है, शरीर के विकास के लिए मां के शरीर से ही हर आवश्यक तत्व पहुंचने लगते हैं। कई बार जो तत्व जीव शरीर के लिए आवश्यक होते हैं वह मां के शरीर में कम होते हैं। उस समय प्रकृति अपने आप मां को उस तरह के पदार्थ खाने की रुचि उत्पन्न करती है गर्भावस्था में दांतों का दुखना, हड्डियों और कमर में दर्द शरीर में कैल्शियम लोहा आदि की कमी के सूचक होते हैं। यह तत्व औषधि के रूप में तुरन्त मां को दिये जाते हैं और इस तरह गर्भावस्था में पड़े जीव की सारी आवश्यकतायें पूर्ण हो जाती हैं।
बच्चे का गर्भ से बाहर आना और सैकड़ों करोड़ों दुश्मनों का तैयार मिलना एक साथ होता है। हवा, पानी, मिट्टी में न दिखाई देने वाले करोड़ों जीवाणु, (बैक्टीरिया) विषाणु (वायरस), मच्छर, मक्खी सब उस पर आक्रमण को तैयार मिलते हैं। सबसे बड़ी कठिनाई पल-पल बदलते मौसम की होती है पर धन्य री प्रकृति मनुष्य शरीर के प्रति उसके प्यार और सजगता को शब्दों में नहीं सराहा जा सकता। बाल्यावस्था में वह शरीर का तापमान सदैव 37 डिग्री से. स्थिर रखती है। कहते हैं बच्चों को जाड़ा नहीं लगता, दरअसल यह सच है और प्रकृति की सबसे बड़ी कृपा कि बाहर का कितना ही मौसम बदले बच्चा जब तक स्वयं संवेदनशील नहीं हो जाता ऋतु-परिवर्तन का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
आंख में किरकिरी गई और आंसू निकले। आंसू निकलना दुःख का कारण माना जाता है, पर सच यह है कि आंसू के रूप में निकला हुआ द्रव कीटाणुनाशक औषधि होता है। वैज्ञानिकों ने आंसुओं का रासायनिक विश्लेषण करके पाया कि उसमें ‘‘लीसोजीम’’ नामक एक तत्व होता है, जो इतना प्रबल कीटाणु नाशक होता है कि उसकी एक बूंद दो लीटर पानी में डाल दी जाय तो पानी के सख्त से सख्त बैक्टीरिया भी मर जायेंगे। इसके अतिरिक्त ‘‘लाइसिंस ल्यूकिंस’’ प्लाकिंसनात्मक तत्व भी कीटाणु नाशक होते हैं, जो थूक और शरीर के अन्य तरल पदार्थों में भी पाये जाते हैं। प्रसिद्ध रसायन शास्त्री श्री रूथ और एडवर्ड ब्रेचर ने जांच करके लिखा है कि पेचिश का जीवाणु (बैक्टीरिया) कांच के स्लाइड पर 6-6 घण्टे तक जीवित बना रहता है, पर यदि उसे हथेली पर रखें तो वह त्वचा के रासायनिक पदार्थों के कारण 20 मिनट से अधिक समय तक जीवित न रह पायेगा।
कफ होते ही खांसी, नाक में कोई चीज फंसते ही छींक, नींद आते ही जम्हाई, हवा और बाहरी आकाश को छानते रहने की प्रतिक्षण आंख मिचकाने की क्रिया मनुष्य शरीर की विलक्षण विशेषताएं हैं। कोई कीटाणु नाक में घुसा कि बालों ने रोका, उनसे नहीं रुका, तो चिपचिपे पदार्थ में पहुंचते ही छींक आई, नाक निकली और कीटाणु बाहर। दुश्मन सख्त हुआ माना नहीं, गले में चला गया तो खांसी, पेट में पहुंच गया तो पाचक रस सुरक्षा का काम करने लगेंगे और उसे मार भगायेंगे। कहीं शत्रु फेफड़े में पहुंच गया तो श्लेष्मा उन्हें तुरन्त बाहर फेंकेगी।
शरीर में अमीबा की तरह का ‘‘लियोसोसाइटिस’’ जीवाणु होता है। वह शरीर की सुरक्षा का सबसे वफादार सिपाही माना जाता है। इसमें कैसे भी शत्रु जीवाणु को खजाने की क्षमता होती है, शरीर के किसी भी हिस्से में कोई विषाक्त जीवाणु पहुंच जाये यह ‘‘लियोसोसाइटिस’’ हजारों लाखों की संख्या में पहुंच कर उन्हें मार भगाते हैं।
कई बार ऐसा होता है कि शत्रु जीवाणु शक्तिशाली होता है, वह कर—छल-बल से ‘‘लियोसोसाइटिस’’ को भी अपने पक्ष में कर लेता है। प्रकृति ने ऐसे देश द्रोहियों से निबटने के लिए मनुष्य शरीर में ‘‘मैक्रोफैजेस’’ नामक कुछ सुरक्षित सैनिक (रिजर्व फोर्स) रखे हैं। ऐसे समय यह वफादार सैनिक आगे बढ़ते और शत्रु तथा देशद्रोहियों दोनों का सफाया कर देते हैं। ऐसी जरूरतों के लिए अलग साधन, पृथक संचार व्यवस्थाएं भी प्रकृति ने शरीर में तैयार की हैं, उन्हें ‘‘लिम्फैटिक सिस्टम’’ के नाम से जाना जाता है।
कई बार शरीर में चोट लग जाती है, शरीर में सूजन हो आती है। सूजन देखते ही घबराहट होती है, पर घबराने की आवश्यकता नहीं, सूजन इस बात का संकेत है कि रक्त के प्लाज्मा में स्थित रक्षक द्रव ‘‘फिब्रिनोजिन’’ आ पहुंचा है और उसने चोट लगे स्थान के शत्रु जीवाणुओं को आगे बढ़ने से रोकने के लिए रक्त का थक्का बनाकर उन्हें उतने ही स्थान में घेर दिया है। यदि प्रकृति ने यह व्यवस्था न की होती तो यह जीवाणु हर 20 मिनट बाद दूनी संख्या में बढ़ते और शरीर को नष्ट कर डालते। धन्यवाद प्रकृति को, पिता परमेश्वर को जिसने जीवात्मा को एक ऐसे दुर्ग में रखा जहां का हर सैनिक उसकी रक्षा और विकास के लिए सोते, जागते हर घड़ी जागरूक रहता है।
भगवान ने मनुष्य शरीर को इस विशेषता के साथ बनाया है कि यदि परिस्थिति वश कहीं कोई दुर्घटना भी हो तो उसका प्रतिकार करने की व्यवस्था भी अपने आप ही काम करती रहती है। इस शरीर की आन्तरिक व्यवस्था, आन्तरिक संरचना इस प्रकार की है कि वह सामान्य रुकावटों को ही नहीं भीषण दुर्घटनाओं के कारण होने वाली क्षति को भी अपने आप ही पूरा कर लेती है। कहने का अर्थ यह कि परमात्मा ने मनुष्य की जीवनी शक्ति को इतना प्रबल बनाया है कि वह असमय में आने वाली मृत्यु को भी टाल सकता है।
इस प्रकार की कितनी ही घटनाएं आये दिनों देर-सवेर सुनने में आती रहती हैं जिनसे यह तथ्य सामने आते हैं कि मनुष्य की जीवनी शक्ति मृत्यु को अनेकों बार परास्त कर देती है और उसे सुरक्षित रखा जाय तो परास्त करती भी रहती है।
सन् 65 की घटना है। अमेरिका का एक हवाई जहाज समुद्र पर ऊपर उड़ते हुए, आग लगने के कारण जल गया। पायलट समुद्र में कूद पड़ा। उसे बहुत चोट लगी। फिर भी वह तैरता रहा और लगातार 40 घण्टे से अधिक परिश्रम के बाद वह किनारे पर पहुंचा। बुखार, निमोनिया, भूख, थकान, दर्द, चोट से पीड़ित बदहवासी की स्थिति में उसे अस्पताल पहुंचाया गया। हालत इतनी गम्भीर थी कि डॉक्टर उसके अब तक बचे रहने पर आश्चर्य करते रहे।
पायलट मरा नहीं, उसकी जीवनी शक्ति ने उसका साथ दिया और वह धीरे-धीरे अच्छा होता चला गया।
पोर्ट लैण्ड में एक आठ वर्षीय बालक सड़क कूटने वाले तीन टन भारी इंजन के नीचे आ गया। उसकी कमर से नीचे का भाग बुरी तरह पिस गया। किसी को उसके बचने की आशा न थी, पर जीवनी शक्ति ने काम किया और एक वर्ष अस्पताल में रहकर वह अच्छा हो गया। पैर चलने लायक तो न हो सके, पर जीवन रक्षा तो हो ही गई।
न्यूयार्क की पन्द्रह मंजिल ऊंची इमारत से एक वर्ष का नन्हा टामी पेइवा गिरा। उसकी हड्डियां टूट गईं फिर भी वह मरा नहीं।
कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय के भौतिकी प्राध्यापक डॉक्टर क्रेग टेलर ने स्वयं अपने ऊपर प्रयोग करके यह साबित किया कि संसार के सबसे गरम क्षेत्र में रहकर भी औसत स्वास्थ्य वाला आदमी 100 दिन तक जी सकता है। यदि स्नायु संस्थान अपेक्षा कृत अधिक समर्थ हों तो 200 दिन तक जिया जा सकता है। आमतौर से अत्यधिक गर्मी वाले स्थान के बारे में अब तक यह मान्यता प्रचलित है कि वहां कोई 24 घण्टे से अधिक नहीं जी सकता। डॉक्टर टेलर ने 220 डिग्री तक की गर्मी देर तक सहन करके दिखाई और वे 250 डिग्री तापमान में भी 14 मिनट तक सहन करने में सफल रहे।
कितना शीत मनुष्य शरीर सह सकता है इसका परीक्षण सर डोनमल्ड ने बर्फीले पानी की शीत एक घण्टे तक सह कर दिखाया। वे कहते हैं यदि शीत रक्षक सूट पहन रखा हो तो शीत से मृत्यु नहीं हो सकती।
इंग्लैंड का एक विमान चालक टेड ग्रीनवे को, द्वितीय महायुद्ध के दौरान विपत्ति में फंस गया। उसके दो और साथी भी थे। भयंकर शीत प्रदेश के बर्फीले प्रदेश में उसे भूखे-प्यासे वहां दिन गुजारने पड़े। कपड़े भी गरम न थे। इतनी विपत्ति का सामना करते हुए उस प्रदेश को पार करते हुए वे लोग बच सकने की स्थिति में पहुंचे।
अमेरिका के युद्ध रोमांच इतिहास में यह घटना जुड़ी हुई है कि उसकी एक सैनिक टुकड़ी ग्रीनलैण्ड के बर्फ से ढके यंत्र में फंस गई और नितान्त सादे कपड़े, 88 दिन बिता कर बाहर आ सकने में सफल हुई। 10 दिन तो उस टुकड़ी को बिना भोजन के रहना पड़ा।
मनुष्य के शरीर का तापमान 98.6 डिग्री होता है। यदि वह 19 डिग्री घट जाय अर्थात् 79 के करीब रह जाय तो जीवन संकट उत्पन्न हो जायगा। इसी तरह 9 डिग्री बढ़ जाय अर्थात् तापमान 107 पर जा पहुंचे तो भी मृत्यु हो जायगी। बुखार में तापमान अधिक न बढ़ने पाये इससे इसके लिए डॉक्टर सिर पर बर्फ रखते हैं। इस प्रतिपादन को झुठलाने वाली एक नर्स है जिसने 110 डिग्री बुखार से कई दिनों तक लड़ाई लड़ी और आखिर वह अच्छी हो गई। डॉक्टर कह चुके थे कि इसका बचना सम्भव नहीं। यदि बच भी गई तो इतनी गर्मी उसके दिमाग को विक्षिप्त अवश्य कर देगी, पर नर्स ने न तो मौत को अपने पास फटकने दिया न पागल मन को। अमेरिका के ब्रुकलिंस पुशावक नामक अस्पताल की इस नर्स ने मानवी जीवनी शक्ति को मृत्युंजयी सिद्ध करते हुए नया प्रतिपादन प्रस्तुत किया कि मृत्यु से जीवन अधिक सामर्थ्यवान है।
आयरिश स्वाधीनता यज्ञ के उद्गाता टेरेन्स मेकस्विनी ने जेल में अनशन किया और तिहत्तर दिन तक निराहार रह कर मौत से जूझते रहे। भारतीय स्वाधीनता के सेनानी यतीन्द्रनाथ दास बिना आहर किये 68 दिन की लम्बी अवधि तक मौत से लड़ते रहे।
आपरेशनों के दर्म्यान कितने ही लोगों का एक फेफड़ा, एक मुर्दा, जिगर का एक भाग, आंतों का बड़ा भाग आदि काट कर अलग कर दिये जाते हैं, पर जो शेष बचा रहता है उतने से ही शरीर अपना काम चलाता रहता है और जीवित रहता है।
आये दिन समाचार पत्रों में छपती रहने वाली घटनाएं बार-बार इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि जीवन मृत्यु से बलवान है और शरीर प्राकृतिक अवरोधों, अनपेक्षित दुर्घटनाओं से भी अपने आपको सुरक्षित रख सकता है, या उन विकृतियों को दूर करने में सफल रहता है। परमात्मा ने मनुष्य को जो अद्भुत शरीर प्रदान किया है उसे अद्भुत और अनुपम ही कहना चाहिए। इन पंक्तियों में तो शरीर की रचना प्रक्रिया का थोड़ा सा विवेचन विशेषण प्रस्तुत किया गया। यदि शरीर की रचना प्रक्रिया का गम्भीरता से अध्ययन किया जाय, उसके एक-एक अंग अवयव का विश्लेषण किया जाय तो विदित हो सकता है कि मनुष्य को कितना मूल्यवान साधन शरीर के रूप में प्राप्त हुआ है और वह यदि इसका बुद्धिमत्तापूर्वक उपयोग कर सके तो कोई आश्चर्य नहीं कि शरीर को हजार वर्ष तक भी जीवित रखा जा सके।
प्राणियों की दुनिया में जीव-जन्तुओं की कोई कमी नहीं है। गणना की जाये तो 84 लाख से एक भी कम न निकले। एक से एक विचित्र आकृति, एक से एक विचित्र प्रकृति। समुद्र में एक ऑक्टोपस जीव पाया जाता है, आकार में बहुत छोटा पर आठ भुजायें कभी-कभी अंगड़ाई लेता है तो इतना बढ़ जाता है कि एक सिरे से दूसरे सिरे तक 20 फुट लम्बा हो जाता है। न्यूयार्क के ‘‘म्यूजियम आफ नेचुरल हिस्ट्री’’ में ‘‘मोआ’’ नामक एक पक्षी के अस्थि-अवशेष (फासिल्स) सुरक्षित हैं अनुमान है कि यह 700 वर्ष पूर्व कभी न्यूजीलैण्ड में पाया जाता था। इसकी टांगें 6 फुट लम्बी और लगभग इतनी ही लम्बी गर्दन। दो सिरों वाली 12 फुट की लकड़ी जैसा यह पक्षी भी प्राणि-जगत का आश्चर्य रहा होगा कभी।
‘‘डायाट्राइमा’’ भी इसी तरह एक न उड़ने वाला पक्षी था। उसकी आकृति देखते ही हंसी आ जाती है। अफ्रीकन राइनो के थुथनों के ऊपर सींग और पीछे दो कान—चार स्थम्भों वाला सिर भी कुछ कम विचित्र नहीं। ओरंग उठान, गिब्बन और चिम्पैंजी—बन्दर, डकर्विल, डिप्लोडोकस (इस 6 करोड़ वर्ष पूर्व भयंकर छिपकली के नाम से जाने वाले जीव की लम्बाई आज तक पाये जाने वाले जीवों में सबसे अधिक लगभग 21 मीटर होती थी) और दरियाई घोड़े जैसे विलक्षण जीव, घोंघे, मछलियां, मेढ़क आदि के शरीर देखकर पता चलता है कि प्रकृति कितनी चतुर, कितनी विदूषक और कैसी कलाकार है, वह जो कुछ न गढ़ दें सो थोड़ा।
एक बड़े दृष्टिकोण से सोचें तो पता चलेगा कि सृष्टि के अन्य मानवेत्तर जीवों को प्रकृति ने विलक्षण अवश्य बनाया है पर उनको इतना अशक्त-इतना कमजोर बनाया है कि वे अपनी रक्षा एक सीमा तक कर सकने में समर्थ होते हैं। किसी तरह बेचारे अपनी तुच्छ सी इच्छायें पूर्ण करने के चक्कर में पड़े भारतीय तत्व दर्शन की यह मान्यता प्रमाणित करते रहते हैं। जिसके लिए योग वशिष्ठ में कहा गया है—जैसे जल के ऊपर बुलबुले उठा करते हैं और नष्ट होते रहते हैं। वैसे ही प्रत्येक देश और काल में अनन्त जीव उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं।’’
(4।43।4)
वैज्ञानिकों ने मनुष्य शरीर जैसी कोई भी मशीन बनाने में असमर्थता व्यक्त की है। एलिवेटर या लिफ्ट एक ऐसी मशीन बनाई गई है, जिस पर बैठकर कई मंजिल की ऊंची इमारतों में क्षण भर में चढ़ा जा सकता है और सीढ़ियां चढ़ने की थकान से बचा जा सकता है। तार से सन्देश भेजने और उन्हें लिखित रूप में प्राप्त करने के लिए ‘टेलीप्रिन्टर’ मशीनें बनाई गई हैं। फैक सिमली नामक मशीनों पर आज-कल तार से चित्र भेजना भी सम्भव हो गया है। अमेरिका में हो रहे अधिवेशन के चित्र दूसरे ही दिन भारतीय समाचार पत्रों में छप जाते हैं, यह सब इसी मशीन की कृपा का फल है।
इसी प्रकार कैमरे, घड़ी, प्रेस, जाइनोस्कोप, जनरेटर, कन्सर्टिना वेसिमर कन्वर्टर, बिलियर्ड, टैंक आदि सैकड़ों मशीनें और आयुध मनुष्य की बुद्धिमत्ता की दाद देते हैं। ‘टेलस्टार’ नामक रैकेट को तो संसार का महानतम आश्चर्य कहना चाहिए। सारी पृथ्वी को एक संचार सूत्र में बांधने वाले 170 पौण्ड भार और कुल 34 इंच व्यास के इस यन्त्र में 3600 सौर बैटरियां लगी हैं, इसी की सहायता से हम संसार के किसी भी कोने में बैठे हुए व्यक्ति से ऐसे बात-चीत कर सकते हैं, मानो वह अपने सामने या बगल में बैठा हुआ हो। इन सबके बनाने में मनुष्य की विलक्षण बौद्धिक क्षमता चमत्कार रूप में प्रकट हुई है, उस पर हम चाहें तो गर्व भी कर सकते हैं।
किन्तु मनुष्य शरीर जैसी मशीन बनाना मनुष्य के लिए भी सम्भव नहीं हुआ। ऐसी परिपूर्ण मशीन जो शरीर के रूप में परमात्मा ने बनाकर आत्मा को विश्व विहार के लिए दी है, आज तक कोई भी वैज्ञानिक नहीं बना सका। भविष्य में बना सकने की भी कोई आशा मनुष्य से नहीं हैं। यह परमात्मा ही है, जो अपनी इच्छा से ऐसी प्राण युक्त मशीन का निर्माण कर सका। संसार की विलक्षण से विलक्षण मशीन भी उसकी तुलना नहीं कर सकती।
कल्पना करें और वैज्ञानिक दृष्टि से आंखें उघाड़कर देखें तो पता चलेगा कि मनुष्य शरीर के निर्माण में प्रकृति ने जो बुद्धि कौशल खर्च किया तथा परिश्रम जुटाया वह अन्य किसी भी शरीर के लिए नहीं किया मनुष्य शरीर सृष्टि का सबसे विलक्षण उपादान है। ऐसा आश्चर्य और कोई दूसरा नहीं है। यह एक अभेद्य दुर्ग है, जिसमें रह रहे जीवात्मा को अन्य जीवों की तरह संसार की किसी भी परिस्थिति या संकट से भयभीत होने का कोई कारण नहीं। जबकि अन्य जीव अपनी इन्द्रियों की तृप्ति और अपने शरीर की दुश्मनों से रक्षा इन दो कारणों को लेकर ही जीते रहते हैं, मनुष्य के लिए यह दोनों बातें बिलकुल गौण हैं वह अपने बुद्धि कौशल से धर्म, कला, संस्कृति का निर्माण करता है और इनके सहारे अपनी आत्मा को ऊपर उठाते हुए स्वर्ग और मुक्ति जैसे दिव्य लाभ प्राप्त करता है। आत्म-दर्शन और ईश्वर—साक्षात्कार जैसी विभूतियां प्राप्त करने की समस्त सुविधायें मनुष्य शरीर को ही प्राप्त हैं। यह सर्व क्षमता सम्पन्न जीवात्मा का अभेद्य दुर्ग यन्त्र और वाहन है, जिसका उपयोग करके मनुष्य सारे संसार में विचरण कर सकता है।
आज के वैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि जो विशेषतायें और सामर्थ्यं प्रकृति ने मनुष्य को प्रदान की हैं वह सृष्टि के किसी भी प्राणि-शरीर को उपलब्ध नहीं। गर्भोपनिषद् के अनुसार शरीर की 180 सन्धियां, 107 मर्मस्थान, 109 स्नायु, 700 शिरायें, और 500 मज्जायें 360 हड्डियां, 41।2 करोड़ रोम, हृदय के 8 और जिह्वा के 12 पल, 1 प्रस्थ पित्त, 1 कफ आढ़क, 1 शुक्र कुड़व भेद, 2 प्रस्थ और आहार ग्रहण करने व मल-मूत्र निष्कासन के जो अच्छे से अच्छे यन्त्र इस शरीर में लगे हैं वह प्रकृति द्वारा निर्मित किसी भी शरीर में नहीं है।
जीव गर्भ में आता है प्रकृति तभी से उसकी सेवा सुरक्षा, प्यार-दुलार एक जीवित माता की तरह प्रारम्भ कर देती है। जीव उस समय तैत्तिरीय संहिता के अनुसार—सोने की तरह शुचि और पावक आपः अर्थात् अग्नि के विद्युत रूप में था। उसमें प्रकाश, जल और आकाश तत्व भी थे।’’ 5।6।1 अतएव उसकी सर्दी-गर्मी से रक्षा की नितान्त आवश्यकता थी। ऐसा न होता तो शीत या ग्रीष्म के कारण जल जाता और भ्रूण प्रारम्भ में ही नष्ट हो जाता उस समय मां के गर्भ जैसा रक्षा कवच और किसी प्राणी को नहीं मिलता। जिसमें मौसम से तो सुरक्षा होती ही है, शरीर के विकास के लिए मां के शरीर से ही हर आवश्यक तत्व पहुंचने लगते हैं। कई बार जो तत्व जीव शरीर के लिए आवश्यक होते हैं वह मां के शरीर में कम होते हैं। उस समय प्रकृति अपने आप मां को उस तरह के पदार्थ खाने की रुचि उत्पन्न करती है गर्भावस्था में दांतों का दुखना, हड्डियों और कमर में दर्द शरीर में कैल्शियम लोहा आदि की कमी के सूचक होते हैं। यह तत्व औषधि के रूप में तुरन्त मां को दिये जाते हैं और इस तरह गर्भावस्था में पड़े जीव की सारी आवश्यकतायें पूर्ण हो जाती हैं।
बच्चे का गर्भ से बाहर आना और सैकड़ों करोड़ों दुश्मनों का तैयार मिलना एक साथ होता है। हवा, पानी, मिट्टी में न दिखाई देने वाले करोड़ों जीवाणु, (बैक्टीरिया) विषाणु (वायरस), मच्छर, मक्खी सब उस पर आक्रमण को तैयार मिलते हैं। सबसे बड़ी कठिनाई पल-पल बदलते मौसम की होती है पर धन्य री प्रकृति मनुष्य शरीर के प्रति उसके प्यार और सजगता को शब्दों में नहीं सराहा जा सकता। बाल्यावस्था में वह शरीर का तापमान सदैव 37 डिग्री से. स्थिर रखती है। कहते हैं बच्चों को जाड़ा नहीं लगता, दरअसल यह सच है और प्रकृति की सबसे बड़ी कृपा कि बाहर का कितना ही मौसम बदले बच्चा जब तक स्वयं संवेदनशील नहीं हो जाता ऋतु-परिवर्तन का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
आंख में किरकिरी गई और आंसू निकले। आंसू निकलना दुःख का कारण माना जाता है, पर सच यह है कि आंसू के रूप में निकला हुआ द्रव कीटाणुनाशक औषधि होता है। वैज्ञानिकों ने आंसुओं का रासायनिक विश्लेषण करके पाया कि उसमें ‘‘लीसोजीम’’ नामक एक तत्व होता है, जो इतना प्रबल कीटाणु नाशक होता है कि उसकी एक बूंद दो लीटर पानी में डाल दी जाय तो पानी के सख्त से सख्त बैक्टीरिया भी मर जायेंगे। इसके अतिरिक्त ‘‘लाइसिंस ल्यूकिंस’’ प्लाकिंसनात्मक तत्व भी कीटाणु नाशक होते हैं, जो थूक और शरीर के अन्य तरल पदार्थों में भी पाये जाते हैं। प्रसिद्ध रसायन शास्त्री श्री रूथ और एडवर्ड ब्रेचर ने जांच करके लिखा है कि पेचिश का जीवाणु (बैक्टीरिया) कांच के स्लाइड पर 6-6 घण्टे तक जीवित बना रहता है, पर यदि उसे हथेली पर रखें तो वह त्वचा के रासायनिक पदार्थों के कारण 20 मिनट से अधिक समय तक जीवित न रह पायेगा।
कफ होते ही खांसी, नाक में कोई चीज फंसते ही छींक, नींद आते ही जम्हाई, हवा और बाहरी आकाश को छानते रहने की प्रतिक्षण आंख मिचकाने की क्रिया मनुष्य शरीर की विलक्षण विशेषताएं हैं। कोई कीटाणु नाक में घुसा कि बालों ने रोका, उनसे नहीं रुका, तो चिपचिपे पदार्थ में पहुंचते ही छींक आई, नाक निकली और कीटाणु बाहर। दुश्मन सख्त हुआ माना नहीं, गले में चला गया तो खांसी, पेट में पहुंच गया तो पाचक रस सुरक्षा का काम करने लगेंगे और उसे मार भगायेंगे। कहीं शत्रु फेफड़े में पहुंच गया तो श्लेष्मा उन्हें तुरन्त बाहर फेंकेगी।
शरीर में अमीबा की तरह का ‘‘लियोसोसाइटिस’’ जीवाणु होता है। वह शरीर की सुरक्षा का सबसे वफादार सिपाही माना जाता है। इसमें कैसे भी शत्रु जीवाणु को खजाने की क्षमता होती है, शरीर के किसी भी हिस्से में कोई विषाक्त जीवाणु पहुंच जाये यह ‘‘लियोसोसाइटिस’’ हजारों लाखों की संख्या में पहुंच कर उन्हें मार भगाते हैं।
कई बार ऐसा होता है कि शत्रु जीवाणु शक्तिशाली होता है, वह कर—छल-बल से ‘‘लियोसोसाइटिस’’ को भी अपने पक्ष में कर लेता है। प्रकृति ने ऐसे देश द्रोहियों से निबटने के लिए मनुष्य शरीर में ‘‘मैक्रोफैजेस’’ नामक कुछ सुरक्षित सैनिक (रिजर्व फोर्स) रखे हैं। ऐसे समय यह वफादार सैनिक आगे बढ़ते और शत्रु तथा देशद्रोहियों दोनों का सफाया कर देते हैं। ऐसी जरूरतों के लिए अलग साधन, पृथक संचार व्यवस्थाएं भी प्रकृति ने शरीर में तैयार की हैं, उन्हें ‘‘लिम्फैटिक सिस्टम’’ के नाम से जाना जाता है।
कई बार शरीर में चोट लग जाती है, शरीर में सूजन हो आती है। सूजन देखते ही घबराहट होती है, पर घबराने की आवश्यकता नहीं, सूजन इस बात का संकेत है कि रक्त के प्लाज्मा में स्थित रक्षक द्रव ‘‘फिब्रिनोजिन’’ आ पहुंचा है और उसने चोट लगे स्थान के शत्रु जीवाणुओं को आगे बढ़ने से रोकने के लिए रक्त का थक्का बनाकर उन्हें उतने ही स्थान में घेर दिया है। यदि प्रकृति ने यह व्यवस्था न की होती तो यह जीवाणु हर 20 मिनट बाद दूनी संख्या में बढ़ते और शरीर को नष्ट कर डालते। धन्यवाद प्रकृति को, पिता परमेश्वर को जिसने जीवात्मा को एक ऐसे दुर्ग में रखा जहां का हर सैनिक उसकी रक्षा और विकास के लिए सोते, जागते हर घड़ी जागरूक रहता है।
भगवान ने मनुष्य शरीर को इस विशेषता के साथ बनाया है कि यदि परिस्थिति वश कहीं कोई दुर्घटना भी हो तो उसका प्रतिकार करने की व्यवस्था भी अपने आप ही काम करती रहती है। इस शरीर की आन्तरिक व्यवस्था, आन्तरिक संरचना इस प्रकार की है कि वह सामान्य रुकावटों को ही नहीं भीषण दुर्घटनाओं के कारण होने वाली क्षति को भी अपने आप ही पूरा कर लेती है। कहने का अर्थ यह कि परमात्मा ने मनुष्य की जीवनी शक्ति को इतना प्रबल बनाया है कि वह असमय में आने वाली मृत्यु को भी टाल सकता है।
इस प्रकार की कितनी ही घटनाएं आये दिनों देर-सवेर सुनने में आती रहती हैं जिनसे यह तथ्य सामने आते हैं कि मनुष्य की जीवनी शक्ति मृत्यु को अनेकों बार परास्त कर देती है और उसे सुरक्षित रखा जाय तो परास्त करती भी रहती है।
सन् 65 की घटना है। अमेरिका का एक हवाई जहाज समुद्र पर ऊपर उड़ते हुए, आग लगने के कारण जल गया। पायलट समुद्र में कूद पड़ा। उसे बहुत चोट लगी। फिर भी वह तैरता रहा और लगातार 40 घण्टे से अधिक परिश्रम के बाद वह किनारे पर पहुंचा। बुखार, निमोनिया, भूख, थकान, दर्द, चोट से पीड़ित बदहवासी की स्थिति में उसे अस्पताल पहुंचाया गया। हालत इतनी गम्भीर थी कि डॉक्टर उसके अब तक बचे रहने पर आश्चर्य करते रहे।
पायलट मरा नहीं, उसकी जीवनी शक्ति ने उसका साथ दिया और वह धीरे-धीरे अच्छा होता चला गया।
पोर्ट लैण्ड में एक आठ वर्षीय बालक सड़क कूटने वाले तीन टन भारी इंजन के नीचे आ गया। उसकी कमर से नीचे का भाग बुरी तरह पिस गया। किसी को उसके बचने की आशा न थी, पर जीवनी शक्ति ने काम किया और एक वर्ष अस्पताल में रहकर वह अच्छा हो गया। पैर चलने लायक तो न हो सके, पर जीवन रक्षा तो हो ही गई।
न्यूयार्क की पन्द्रह मंजिल ऊंची इमारत से एक वर्ष का नन्हा टामी पेइवा गिरा। उसकी हड्डियां टूट गईं फिर भी वह मरा नहीं।
कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय के भौतिकी प्राध्यापक डॉक्टर क्रेग टेलर ने स्वयं अपने ऊपर प्रयोग करके यह साबित किया कि संसार के सबसे गरम क्षेत्र में रहकर भी औसत स्वास्थ्य वाला आदमी 100 दिन तक जी सकता है। यदि स्नायु संस्थान अपेक्षा कृत अधिक समर्थ हों तो 200 दिन तक जिया जा सकता है। आमतौर से अत्यधिक गर्मी वाले स्थान के बारे में अब तक यह मान्यता प्रचलित है कि वहां कोई 24 घण्टे से अधिक नहीं जी सकता। डॉक्टर टेलर ने 220 डिग्री तक की गर्मी देर तक सहन करके दिखाई और वे 250 डिग्री तापमान में भी 14 मिनट तक सहन करने में सफल रहे।
कितना शीत मनुष्य शरीर सह सकता है इसका परीक्षण सर डोनमल्ड ने बर्फीले पानी की शीत एक घण्टे तक सह कर दिखाया। वे कहते हैं यदि शीत रक्षक सूट पहन रखा हो तो शीत से मृत्यु नहीं हो सकती।
इंग्लैंड का एक विमान चालक टेड ग्रीनवे को, द्वितीय महायुद्ध के दौरान विपत्ति में फंस गया। उसके दो और साथी भी थे। भयंकर शीत प्रदेश के बर्फीले प्रदेश में उसे भूखे-प्यासे वहां दिन गुजारने पड़े। कपड़े भी गरम न थे। इतनी विपत्ति का सामना करते हुए उस प्रदेश को पार करते हुए वे लोग बच सकने की स्थिति में पहुंचे।
अमेरिका के युद्ध रोमांच इतिहास में यह घटना जुड़ी हुई है कि उसकी एक सैनिक टुकड़ी ग्रीनलैण्ड के बर्फ से ढके यंत्र में फंस गई और नितान्त सादे कपड़े, 88 दिन बिता कर बाहर आ सकने में सफल हुई। 10 दिन तो उस टुकड़ी को बिना भोजन के रहना पड़ा।
मनुष्य के शरीर का तापमान 98.6 डिग्री होता है। यदि वह 19 डिग्री घट जाय अर्थात् 79 के करीब रह जाय तो जीवन संकट उत्पन्न हो जायगा। इसी तरह 9 डिग्री बढ़ जाय अर्थात् तापमान 107 पर जा पहुंचे तो भी मृत्यु हो जायगी। बुखार में तापमान अधिक न बढ़ने पाये इससे इसके लिए डॉक्टर सिर पर बर्फ रखते हैं। इस प्रतिपादन को झुठलाने वाली एक नर्स है जिसने 110 डिग्री बुखार से कई दिनों तक लड़ाई लड़ी और आखिर वह अच्छी हो गई। डॉक्टर कह चुके थे कि इसका बचना सम्भव नहीं। यदि बच भी गई तो इतनी गर्मी उसके दिमाग को विक्षिप्त अवश्य कर देगी, पर नर्स ने न तो मौत को अपने पास फटकने दिया न पागल मन को। अमेरिका के ब्रुकलिंस पुशावक नामक अस्पताल की इस नर्स ने मानवी जीवनी शक्ति को मृत्युंजयी सिद्ध करते हुए नया प्रतिपादन प्रस्तुत किया कि मृत्यु से जीवन अधिक सामर्थ्यवान है।
आयरिश स्वाधीनता यज्ञ के उद्गाता टेरेन्स मेकस्विनी ने जेल में अनशन किया और तिहत्तर दिन तक निराहार रह कर मौत से जूझते रहे। भारतीय स्वाधीनता के सेनानी यतीन्द्रनाथ दास बिना आहर किये 68 दिन की लम्बी अवधि तक मौत से लड़ते रहे।
आपरेशनों के दर्म्यान कितने ही लोगों का एक फेफड़ा, एक मुर्दा, जिगर का एक भाग, आंतों का बड़ा भाग आदि काट कर अलग कर दिये जाते हैं, पर जो शेष बचा रहता है उतने से ही शरीर अपना काम चलाता रहता है और जीवित रहता है।
आये दिन समाचार पत्रों में छपती रहने वाली घटनाएं बार-बार इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि जीवन मृत्यु से बलवान है और शरीर प्राकृतिक अवरोधों, अनपेक्षित दुर्घटनाओं से भी अपने आपको सुरक्षित रख सकता है, या उन विकृतियों को दूर करने में सफल रहता है। परमात्मा ने मनुष्य को जो अद्भुत शरीर प्रदान किया है उसे अद्भुत और अनुपम ही कहना चाहिए। इन पंक्तियों में तो शरीर की रचना प्रक्रिया का थोड़ा सा विवेचन विशेषण प्रस्तुत किया गया। यदि शरीर की रचना प्रक्रिया का गम्भीरता से अध्ययन किया जाय, उसके एक-एक अंग अवयव का विश्लेषण किया जाय तो विदित हो सकता है कि मनुष्य को कितना मूल्यवान साधन शरीर के रूप में प्राप्त हुआ है और वह यदि इसका बुद्धिमत्तापूर्वक उपयोग कर सके तो कोई आश्चर्य नहीं कि शरीर को हजार वर्ष तक भी जीवित रखा जा सके।