Books - शरीर की अद्भुत क्षमताएँ एवं विशेषताएँ
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Language: HINDI
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आन्तरिक अवयव और भी विलक्षण
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शरीर के आन्तरिक अवयवों की रचना तो और भी विलक्षण है। उनकी सबसे बड़ी एक विशेषता तो यही है कि वे दिन-रात गतिशील क्रियाशील रहते हैं। उनकी क्रियाएं एक क्षण को भी रुक जायं तो जीवन संकट तक उपस्थित हो जाता है। उदाहरण के लिए हृदय को ही लें। हृदय की धड़कन में सिकुड़ने की—सिस्टोल और फैलने की—डायेस्टोल क्रिया होती रहती है। इसी क्रिया के कारण रक्त-संचार होता है और जीवन के समस्त क्रिया-कलाप चलते हैं। यह रक्त प्रवाह नदी नाले की तरह नहीं चलता, वरन् पम्पिंग स्टेशन जैसी विशेषता उसमें रहती है। पम्प में झटका मारने की क्रिया होती है। उससे गति मिलती है। नीचे की दिशा में तो प्रवाह अपने आप भी होता है, पर ऊपर की ओर ले जाना हो तो उसके पीछे शक्ति का दबाव होना आवश्यक है। आकुंचन-प्रकुंचन से झटका लगता है और उसके दबाव से रक्त-चक्र नीचे जाने और ऊपर आने की दोनों आवश्यकताएं पूरी कर लेता है। हृदय की धड़कन रक्त के परिभ्रमण में काम आने वाली गति की व्यवस्था करती है।कोई यन्त्र लगातार काम करने से गरम हो जाता है। श्रम के साथ विश्राम भी आवश्यक है। श्रम में शक्ति का व्यय होता है, विश्राम उसको फिर से जुटा देता है। हृदय के आकुंचन-प्रकुंचन से जहां झटके द्वारा शक्ति उत्पादन की आवश्यकता पूरी होती है वहां इन दोनों क्रियाओं के बीच मध्यान्तर की अवधि में विश्राम का लाभ भी उसे मिलता रहता है। एक धड़कन एक मिनट के 72 वें भाग में सैकिण्ड के पांच बंटे छह भाग में सम्पन्न होती है। इस अल्प अवधि में ही असंख्य विद्युत तरंगें उस संस्थान से प्रवाहित होती हैं। इन तरंगों के विद्युत आवेशों को इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम के माध्यम से रिकार्ड करके हृदय की स्वास्थ्य परीक्षा की जाती है। नवजात शिशु की प्रगति आवश्यकता के अनुरूप उन दिनों हृदय एक मिनट में 140 बार धड़कता है किन्तु वह जरूरत कम होते जाने से यह चाल भी घटती है। 3 वर्ष के बच्चे का एक मिनट में 100 बार और युवा मनुष्य का मात्र 72 बार धड़कता है। समर्थता की न्यूनाधिकता के अनुरूप धड़कन घटी-बढ़ी रहती है। चूहे का हृदय 500 बार, चिड़ियों का 250 बार, मुर्गी का 200 बार, खरगोश का 65 बार, घोड़े का 50 बार और हाथी का 40 बार एक मिनट में धड़कता है। मनुष्य के शिशु और प्रौढ़ के बीच समर्थता वृद्धि के अनुपात से हृदय की धड़कन भी घटती जाती है।
पुरुष के हृदय का औसत वजन 330 ग्राम और स्त्री का 260 ग्राम होता है। यह सम्पूर्ण अवयव ‘परिकार्डियम’ नामक झिल्ली की थैली में बन्द रहता है। हृदय एक होते हुए भी उसके मध्य भाग में खड़ी सेप्टम नामक मांस-पेशी उसे दो भागों में बांट देती है। यह दो भाग भी दो-दो हिस्सों में बंटकर चार हो जाते हैं। इनमें से ऊपरी भाग को आरिकिल और नीचे के भाग को वेंट्रिकिल कहते हैं। हृदय से फुफ्फुसीय धमनी में जाने की प्रक्रिया को मध्यवर्ती वाल्य नियन्त्रित करते हैं।
हृदय के समान ही फेफड़े भी आजीवन कभी विश्राम नहीं करते। 20 से 30 घन इंच हवा को वे बार-बार भरते और शरीर को ताजगी प्रदान करते रहते हैं।
शरीर में उत्पन्न दूषित वायु कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस को बाहर निकालना और शुद्ध वायु ऑक्सीजन को शरीर पोषण के लिए उपलब्ध कराया यह दुहरा उत्तरदायित्व फेफड़ों को निवाहना पड़ता है। फेफड़ों में आंख से भी न दीख पड़ने वाली बहुत पतली वायु नलिकाएं बहती हैं। इन 40 नलिकाओं के मिलने से एक वायुकोष्ठ—एयरसैक बनता है। यही सघन होकर फेफड़े का रूप लेते हैं। इन्हें श्वास विभाग के सफाई कर्मचारी भी कहा जा सकता है। इन वायुकोष्ठों की लचक अद्भुत है। इन्हें पूरी तरह फूलने का अवसर मिले तो वे समूचे शरीर से 55 गुने विस्तार में फैल सकते हैं।
शुद्ध प्राणवायु के बिना शरीर का अधिक दिन तक टिके रहना सम्भव नहीं, पर यदि शरीर में शुद्ध हवा ही पहुंचती रहे रक्त आदि में उत्पन्न गन्दगी दूर न हो तो उस नई शक्ति का पाना भी निरर्थक होता है। अशुद्धि का निवारण न हो तो मनुष्य एक दिन भी स्वस्थ जीवन जी सकता।
शरीर की गन्दगी के अतिरिक्त हम जो सांस लेते हैं, उसमें भी गन्दगी रहती है। श्वांस के साथ ली गई वायु में 79 प्रतिशत तो नाइट्रोजन ही होता है, जिसका शरीर में कोई उपयोग नहीं। ऊतकों (टिसूज) के लिए जितना नाइट्रोजन चाहिए वह अलग से मिलता रहता है। ऑक्सीजन मुख्य तत्त्व है, प्राण है, जिसकी सर्वाधिक आवश्यकता होती है यह श्वांस में 20.96 प्रतिशत होता है। इसके अतिरिक्त कार्बन-डाई-ऑक्साइड नामक विषैली गैस भी 4 प्रतिशत श्वांस के साथ शरीर में प्रवेश करती है। अब यदि इस प्रविष्ट वायु का प्रत्येक अंश शरीर में चुस जाता तो जितनी गंदगी भीतर भरी थी, उतनी ही और इकट्ठी हो जाती और प्राणी का जीवित रहना कठिन हो जाता। उसकी सफाई के लिए फेफड़े ही उत्तरदायी हैं। श्वांस लेने के साथ फूलने वाले इनके वायुकोष देखने में छोटे होते हैं, पर इनकी महिमा विशाल है। यदि उन्हें पूरी तरह फूलने का अवसर दिया जाय तो इनकी दूरी शरीर की बाहरी सतह से 55 गुनी अधिक हो जाती है। हम उनका उपयोग इसलिए नहीं कर पाते कि उनकी महत्ता को समझते नहीं।
हृदय और फेफड़े ही नहीं अन्य छोटे दीखने वाले अवयव भी अपना काम अद्भुत रीति से सम्पन्न करते हैं। गुर्दों की गांठें देखने में मुट्ठी भर आकार की—भूरे कत्थई रंग की—सेम के बीज जैसी आकृति की—लगभग 150 ग्राम भारी हैं। प्रत्येक गुर्दा प्रायः 4 इंच लम्बा, 2.5 इंच चौड़ा और 2 इंच मोटा होता है। जिस प्रकार फेफड़े सांस को साफ करते हैं, उसी प्रकार जल अंश की सफाई इन गुर्दों के जिम्मे है। गुर्दे रक्त में घुले रहने वाले नमक, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम आदि पर कड़ी नजर रखते हैं। इनकी मात्रा जरा भी बढ़ जाय तो शरीर पर घातक प्रभाव डालती है। शरीर में जल की भी एक सीमित मात्रा होनी चाहिए। रक्त में क्षारीय एवं अम्लीय अंश न बढ़ने पायें इसका ध्यान भी गुर्दों को ही रखना पड़ता है। छानते समय इन सब बातों की सावधानी वे पूरी तरह रखते हैं। गुर्दे एक प्रकार की छलनी हैं। उसमें 10 लाख से भी अधिक नलिकाएं होती हैं। इन सबको लम्बी कतार में रखा जाय तो वे 110 किलोमीटर लम्बी डोरी बन जायगी। एक घण्टे में गुर्दे इतना रक्त छानते हैं जिसका वजन शरीर के भार से दूना होता है। विटामिन अमीनो अम्ल, हारमोन, शकर जैसे उपयोगी तत्व रक्त को वापिस कर दिये जाते हैं। नमक ही सबसे ज्यादा अनावश्यक मात्रा में होता है। यदि यह रुकना शुरू कर दें तो सारे शरीर पर सूजन चढ़ने लगेगी। गुर्दे ही हैं जो इस अनावश्यक को निरन्तर बाहर फेंकने में लगे रहते हैं।
दोनों गुर्दों में परस्पर अति सघन सहयोग है। एक खराब हो जाय तो दूसरा उसका बोझ अपने ऊपर उठा लेता है। गुर्दे प्रतिदिन प्रायः दो लीटर मूत्र निकालते हैं। मनुष्य अनावश्यक और हानिकारक पदार्थ खाने से बाज नहीं आता। इसका प्रायश्चित गुर्दों को करना पड़ता है। नमक, फास्फेट, सल्फेट, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नेशियम, लोहा, क्रिएटाइनिन, यूरिया, अमोनिया, यूरिक एसिड, हिप्नोटिक ऐसिड, नाइट्रोजन आदि पदार्थों की प्रचलित आहार पद्धति में भरमार है। गुर्दे इस कचरे को मूत्र मार्ग से बाहर करने और स्वास्थ्य सन्तुलन बनाये रखने का उत्तरदायित्व निवाहते हैं। यदि वे अपने कार्य में तनिक भी ढील कर दें तो मनुष्य ढोल की तरह फूल जायगा और देखते-देखते प्राण गंवा देगा।
आमाशय का मोटा काम भोजन हजम करना माना जाता है, पर यह क्रिया कितनी जटिल और विलक्षण है, इस पर दृष्टिपात करने से आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है, इसे छोटी थैली को एक अद्भुत रसायनशाला की संज्ञा दी जाती है, जिसमें सम्मिश्रणों के आधार पर कुछ से कुछ बना दिया जाता रहता है। कहां अन्न और कहा रक्त? एक स्थिति को दूसरी में बदलने के लिए उसके बीच इतने असाधारण परिवर्तन होते हैं—इतने अधिक रासायनिक सम्मिश्रण मिलते हैं कि इस स्तर के प्रयोगों की संसार भर में कहीं भी उपमा नहीं ढूंढ़ी जा सकती। आमाशय में पाये जाने वाले लवगाम्ल, पेप्सीन, रेन्नेट आदि भोजन को आटे की तरह गूंथते हैं। लवणाम्ल खाद्य-पदार्थों में रहने वाले रोग कीटाणुओं का नाश करते हैं। पेप्सीन के साथ मिलकर वे प्रोटीनों से पेप्टोन बनाते हैं। पेंक्रियाज में पाये जाने वाले इन्सुलिन आदि रसायन शकर को सन्तुलित करते हैं और आंतों के काम को सरल बनाते हैं। इतने अधिक प्रकार के—इतनी अद्भुत प्रकृति के—इती विलक्षण प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करने वाले रासायनिक प्रयोग मनुष्यकृत प्रयोग प्रक्रिया द्वारा सम्भव हो सकते हैं, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। आमाशय की रासायनिक प्रयोगशाला क्या-क्या कौतुक रचती है और क्या से क्या बना देती है? इसे किसी बाजीगर की विलक्षण जादूगरी से कम नहीं कहा जा सकता।
यों तो कर्त्ता की कारीगरी का परिचय रोम-रोम और कण-कण में दृष्टिगोचर होता है, पर आंख कान जैसे अवयवों पर हुई कारीगरी तो अपनी विलक्षण संरचना से बुद्धि को चकित ही कर देती है। आंख जैसा कैमरा मनुष्य द्वारा क्या कभी बन सकेगा। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकतीं। कैमरों में नाभ्यान्तर—फोकल लेन्स—को बदला जा सके ऐसे कैमरे कहीं नहीं बने। फोटो लेने के लिए अच्छे कैमरों के लेन्स भी पहले एक निश्चित नाभ्यान्तर पर फिट करने होते हैं। फिल्मों तक में फोटो दृश्य और कैमरे की दूरी का सन्तुलन मिलाकर फोकस सही करना पड़ता है। इस व्यवस्था को बनाये बिना अभीष्ट फोटो खिंच ही नहीं सकेगा। किन्तु नेत्र संरचना में ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता। वे निकट से निकट और दूर से दूर को भी आंखों को बिना आगे-पीछे हटाये—मजे में देखते रह सकते हैं। प्रिज़्म या थ्रीडायमेन्शनल कैमरे अद्भुत माने जाते हैं, पर वे भी रंगों का वर्गीकरण उस तरह नहीं कर सकते जैसा कि आंखें करती हैं। सुरक्षा सफाई का प्रबन्ध जैसा आंखों में है वैसा किसी कैमरे में नहीं होता। कैमरे पहले उलटा फोटो लेते हैं, फिर दुबारा प्रिंट करके उन्हें सीधा करना पड़ता है किन्तु आंखें सीधा एक ही बार में सही फोटो उतार लेती हैं।
कान जैसा ‘साउण्ड फिल्टर’ यन्त्र कभी मनुष्य द्वारा बन सकेगा, ऐसी आशा नहीं की जा सकती। रेडियो और वायरलैस की आवाजें एक निश्चित ‘फ्रीक्वेन्सी’ पर ही सुनी जा सकती हैं। कानों के सामने इस प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है। वे किसी भी तरफ की कोई भी ऊंची हलकी आवाज सुन सकते हैं। कई आवाजें एक साथ सुनने या कोलाहल के बीच अपने ही व्यक्ति की बात सुन लेने की क्षमता हमारे ही कानों में होती है। ध्वनि साफ करने के लिए ‘रेक्टीफायर’ का प्रयोग किया जाता है। कुछ यन्त्रों में ‘वैक्युम सिस्टम’ एवं ‘गस सिस्टम’ से ध्वनि साफ की जाती है। उनमें लगे धन प्लेट ‘एनोड’ और ऋण प्लेट ‘कैथोड’ के साथ ‘ग्रिड’ जोड़ना पड़ता है तब कहीं एक सीमा तक आवाज साफ होती है। किन्तु कान की तीन हड्डियां स्टेडियम, मेलियस और अंकस में इतनी स्वच्छ प्रणाली विद्यमान है कि वे आवाज को उसके असली रूप में बिना किसी कठिनाई के सुन सकें। न मात्र सुनने की है उस सन्देश के अनुरूप अपना चिन्तन और कर्म निर्धारित करने के लिए प्रेरणा देने वाली विद्युत प्रणाली कानों में विद्यमान है। सांप की फुसकार सुनते ही यह प्रणाली खतरे से सावधान करती है और भाग चलने की प्रेरणा देने के लिए रोंगटे खड़े कर देती है। ऐसी बहुद्देशीय संरचना किन्हीं ध्वनि-ग्राहक यन्त्रों में सम्भव नहीं हो सकती।
शरीर पर चमड़ी का क्षेत्रफल प्रायः 250 वर्ग फुट और वजन 6 पौण्ड होता है। एक वर्ग इंच त्वचा में 72 फुट लम्बाई वाला तन्त्रिका जाल और 12 फुट से अधिक लम्बाई वाली रक्त नलिकाएं बिछी बिखरी होती हैं। त्वचा के रोमकूपों से प्रायः एक पौंड पसीना बाहर निकलता है। शरीर को ‘एयरकन्डीशन’ बनाये रखने के लिए त्वचा फैलने और सिकुड़ने की क्रिया द्वारा कूलर और हीटर दोनों का प्रयोजन पूरा करती है। त्वचा के भीतर बिखरे ज्ञान तन्तुओं को एक लाइन में रख दिया जाय तो वे 45 मील लम्बे होंगे। इन तन्तुओं द्वारा प्राप्त अनुभूतियां मस्तिष्क तक पहुंचती हैं और टेलीफोन तारों जैसा उद्देश्य पूरा होता है। त्वचा से ‘कोरियम’ नामक एक विशेष प्रकार का तेल निकलता रहता है यह सुरक्षा और सौन्दर्य वृद्धि के दोनों ही कार्य करता है। उसकी रंजक कोशिकाएं ‘नेलानिक’ रसायन उत्पन्न करती हैं। यही चमड़ी को गोरे, काले, पीले आदि रंगों से रंगता रहता है।
शरीर पूरा जादू घर है। उसकी कोशिकाएं, तन्तुजाल किस प्रकार जीवन-मरण की गुत्थियां स्वयं सुलझाते हैं और समूची काया को समर्थ बनाये रहने में योगदान करते हैं यह देखते ही बनता है। जीवन सामान्य है, पर उसे सुनियोजित एवं सुसंचालित रखने में एक छोटा ब्रह्माण्ड ही जुटा रहता है। पिण्ड मानवी काया का नाम है,पर उसके भीतर चल रही विधि-व्यवस्था को ब्रह्माण्डीय क्रिया-प्रक्रिया का छोटा रूप ही कहा जा सकता है।
अन्नमय कोश जिसे स्थूल शरीर भी कहते हैं। परमेश्वर की विचित्र कारीगरी से भरा-पूरा है। उसके किसी भी अवयव पर दृष्टिपात किया जाय, उसमें एक से बढ़ी-चढ़ी अपने-अपने ढंग की विलक्षणताएं प्रतीत होंगी।
पुरुष के हृदय का औसत वजन 330 ग्राम और स्त्री का 260 ग्राम होता है। यह सम्पूर्ण अवयव ‘परिकार्डियम’ नामक झिल्ली की थैली में बन्द रहता है। हृदय एक होते हुए भी उसके मध्य भाग में खड़ी सेप्टम नामक मांस-पेशी उसे दो भागों में बांट देती है। यह दो भाग भी दो-दो हिस्सों में बंटकर चार हो जाते हैं। इनमें से ऊपरी भाग को आरिकिल और नीचे के भाग को वेंट्रिकिल कहते हैं। हृदय से फुफ्फुसीय धमनी में जाने की प्रक्रिया को मध्यवर्ती वाल्य नियन्त्रित करते हैं।
हृदय के समान ही फेफड़े भी आजीवन कभी विश्राम नहीं करते। 20 से 30 घन इंच हवा को वे बार-बार भरते और शरीर को ताजगी प्रदान करते रहते हैं।
शरीर में उत्पन्न दूषित वायु कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस को बाहर निकालना और शुद्ध वायु ऑक्सीजन को शरीर पोषण के लिए उपलब्ध कराया यह दुहरा उत्तरदायित्व फेफड़ों को निवाहना पड़ता है। फेफड़ों में आंख से भी न दीख पड़ने वाली बहुत पतली वायु नलिकाएं बहती हैं। इन 40 नलिकाओं के मिलने से एक वायुकोष्ठ—एयरसैक बनता है। यही सघन होकर फेफड़े का रूप लेते हैं। इन्हें श्वास विभाग के सफाई कर्मचारी भी कहा जा सकता है। इन वायुकोष्ठों की लचक अद्भुत है। इन्हें पूरी तरह फूलने का अवसर मिले तो वे समूचे शरीर से 55 गुने विस्तार में फैल सकते हैं।
शुद्ध प्राणवायु के बिना शरीर का अधिक दिन तक टिके रहना सम्भव नहीं, पर यदि शरीर में शुद्ध हवा ही पहुंचती रहे रक्त आदि में उत्पन्न गन्दगी दूर न हो तो उस नई शक्ति का पाना भी निरर्थक होता है। अशुद्धि का निवारण न हो तो मनुष्य एक दिन भी स्वस्थ जीवन जी सकता।
शरीर की गन्दगी के अतिरिक्त हम जो सांस लेते हैं, उसमें भी गन्दगी रहती है। श्वांस के साथ ली गई वायु में 79 प्रतिशत तो नाइट्रोजन ही होता है, जिसका शरीर में कोई उपयोग नहीं। ऊतकों (टिसूज) के लिए जितना नाइट्रोजन चाहिए वह अलग से मिलता रहता है। ऑक्सीजन मुख्य तत्त्व है, प्राण है, जिसकी सर्वाधिक आवश्यकता होती है यह श्वांस में 20.96 प्रतिशत होता है। इसके अतिरिक्त कार्बन-डाई-ऑक्साइड नामक विषैली गैस भी 4 प्रतिशत श्वांस के साथ शरीर में प्रवेश करती है। अब यदि इस प्रविष्ट वायु का प्रत्येक अंश शरीर में चुस जाता तो जितनी गंदगी भीतर भरी थी, उतनी ही और इकट्ठी हो जाती और प्राणी का जीवित रहना कठिन हो जाता। उसकी सफाई के लिए फेफड़े ही उत्तरदायी हैं। श्वांस लेने के साथ फूलने वाले इनके वायुकोष देखने में छोटे होते हैं, पर इनकी महिमा विशाल है। यदि उन्हें पूरी तरह फूलने का अवसर दिया जाय तो इनकी दूरी शरीर की बाहरी सतह से 55 गुनी अधिक हो जाती है। हम उनका उपयोग इसलिए नहीं कर पाते कि उनकी महत्ता को समझते नहीं।
हृदय और फेफड़े ही नहीं अन्य छोटे दीखने वाले अवयव भी अपना काम अद्भुत रीति से सम्पन्न करते हैं। गुर्दों की गांठें देखने में मुट्ठी भर आकार की—भूरे कत्थई रंग की—सेम के बीज जैसी आकृति की—लगभग 150 ग्राम भारी हैं। प्रत्येक गुर्दा प्रायः 4 इंच लम्बा, 2.5 इंच चौड़ा और 2 इंच मोटा होता है। जिस प्रकार फेफड़े सांस को साफ करते हैं, उसी प्रकार जल अंश की सफाई इन गुर्दों के जिम्मे है। गुर्दे रक्त में घुले रहने वाले नमक, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम आदि पर कड़ी नजर रखते हैं। इनकी मात्रा जरा भी बढ़ जाय तो शरीर पर घातक प्रभाव डालती है। शरीर में जल की भी एक सीमित मात्रा होनी चाहिए। रक्त में क्षारीय एवं अम्लीय अंश न बढ़ने पायें इसका ध्यान भी गुर्दों को ही रखना पड़ता है। छानते समय इन सब बातों की सावधानी वे पूरी तरह रखते हैं। गुर्दे एक प्रकार की छलनी हैं। उसमें 10 लाख से भी अधिक नलिकाएं होती हैं। इन सबको लम्बी कतार में रखा जाय तो वे 110 किलोमीटर लम्बी डोरी बन जायगी। एक घण्टे में गुर्दे इतना रक्त छानते हैं जिसका वजन शरीर के भार से दूना होता है। विटामिन अमीनो अम्ल, हारमोन, शकर जैसे उपयोगी तत्व रक्त को वापिस कर दिये जाते हैं। नमक ही सबसे ज्यादा अनावश्यक मात्रा में होता है। यदि यह रुकना शुरू कर दें तो सारे शरीर पर सूजन चढ़ने लगेगी। गुर्दे ही हैं जो इस अनावश्यक को निरन्तर बाहर फेंकने में लगे रहते हैं।
दोनों गुर्दों में परस्पर अति सघन सहयोग है। एक खराब हो जाय तो दूसरा उसका बोझ अपने ऊपर उठा लेता है। गुर्दे प्रतिदिन प्रायः दो लीटर मूत्र निकालते हैं। मनुष्य अनावश्यक और हानिकारक पदार्थ खाने से बाज नहीं आता। इसका प्रायश्चित गुर्दों को करना पड़ता है। नमक, फास्फेट, सल्फेट, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नेशियम, लोहा, क्रिएटाइनिन, यूरिया, अमोनिया, यूरिक एसिड, हिप्नोटिक ऐसिड, नाइट्रोजन आदि पदार्थों की प्रचलित आहार पद्धति में भरमार है। गुर्दे इस कचरे को मूत्र मार्ग से बाहर करने और स्वास्थ्य सन्तुलन बनाये रखने का उत्तरदायित्व निवाहते हैं। यदि वे अपने कार्य में तनिक भी ढील कर दें तो मनुष्य ढोल की तरह फूल जायगा और देखते-देखते प्राण गंवा देगा।
आमाशय का मोटा काम भोजन हजम करना माना जाता है, पर यह क्रिया कितनी जटिल और विलक्षण है, इस पर दृष्टिपात करने से आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है, इसे छोटी थैली को एक अद्भुत रसायनशाला की संज्ञा दी जाती है, जिसमें सम्मिश्रणों के आधार पर कुछ से कुछ बना दिया जाता रहता है। कहां अन्न और कहा रक्त? एक स्थिति को दूसरी में बदलने के लिए उसके बीच इतने असाधारण परिवर्तन होते हैं—इतने अधिक रासायनिक सम्मिश्रण मिलते हैं कि इस स्तर के प्रयोगों की संसार भर में कहीं भी उपमा नहीं ढूंढ़ी जा सकती। आमाशय में पाये जाने वाले लवगाम्ल, पेप्सीन, रेन्नेट आदि भोजन को आटे की तरह गूंथते हैं। लवणाम्ल खाद्य-पदार्थों में रहने वाले रोग कीटाणुओं का नाश करते हैं। पेप्सीन के साथ मिलकर वे प्रोटीनों से पेप्टोन बनाते हैं। पेंक्रियाज में पाये जाने वाले इन्सुलिन आदि रसायन शकर को सन्तुलित करते हैं और आंतों के काम को सरल बनाते हैं। इतने अधिक प्रकार के—इतनी अद्भुत प्रकृति के—इती विलक्षण प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करने वाले रासायनिक प्रयोग मनुष्यकृत प्रयोग प्रक्रिया द्वारा सम्भव हो सकते हैं, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। आमाशय की रासायनिक प्रयोगशाला क्या-क्या कौतुक रचती है और क्या से क्या बना देती है? इसे किसी बाजीगर की विलक्षण जादूगरी से कम नहीं कहा जा सकता।
यों तो कर्त्ता की कारीगरी का परिचय रोम-रोम और कण-कण में दृष्टिगोचर होता है, पर आंख कान जैसे अवयवों पर हुई कारीगरी तो अपनी विलक्षण संरचना से बुद्धि को चकित ही कर देती है। आंख जैसा कैमरा मनुष्य द्वारा क्या कभी बन सकेगा। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकतीं। कैमरों में नाभ्यान्तर—फोकल लेन्स—को बदला जा सके ऐसे कैमरे कहीं नहीं बने। फोटो लेने के लिए अच्छे कैमरों के लेन्स भी पहले एक निश्चित नाभ्यान्तर पर फिट करने होते हैं। फिल्मों तक में फोटो दृश्य और कैमरे की दूरी का सन्तुलन मिलाकर फोकस सही करना पड़ता है। इस व्यवस्था को बनाये बिना अभीष्ट फोटो खिंच ही नहीं सकेगा। किन्तु नेत्र संरचना में ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता। वे निकट से निकट और दूर से दूर को भी आंखों को बिना आगे-पीछे हटाये—मजे में देखते रह सकते हैं। प्रिज़्म या थ्रीडायमेन्शनल कैमरे अद्भुत माने जाते हैं, पर वे भी रंगों का वर्गीकरण उस तरह नहीं कर सकते जैसा कि आंखें करती हैं। सुरक्षा सफाई का प्रबन्ध जैसा आंखों में है वैसा किसी कैमरे में नहीं होता। कैमरे पहले उलटा फोटो लेते हैं, फिर दुबारा प्रिंट करके उन्हें सीधा करना पड़ता है किन्तु आंखें सीधा एक ही बार में सही फोटो उतार लेती हैं।
कान जैसा ‘साउण्ड फिल्टर’ यन्त्र कभी मनुष्य द्वारा बन सकेगा, ऐसी आशा नहीं की जा सकती। रेडियो और वायरलैस की आवाजें एक निश्चित ‘फ्रीक्वेन्सी’ पर ही सुनी जा सकती हैं। कानों के सामने इस प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है। वे किसी भी तरफ की कोई भी ऊंची हलकी आवाज सुन सकते हैं। कई आवाजें एक साथ सुनने या कोलाहल के बीच अपने ही व्यक्ति की बात सुन लेने की क्षमता हमारे ही कानों में होती है। ध्वनि साफ करने के लिए ‘रेक्टीफायर’ का प्रयोग किया जाता है। कुछ यन्त्रों में ‘वैक्युम सिस्टम’ एवं ‘गस सिस्टम’ से ध्वनि साफ की जाती है। उनमें लगे धन प्लेट ‘एनोड’ और ऋण प्लेट ‘कैथोड’ के साथ ‘ग्रिड’ जोड़ना पड़ता है तब कहीं एक सीमा तक आवाज साफ होती है। किन्तु कान की तीन हड्डियां स्टेडियम, मेलियस और अंकस में इतनी स्वच्छ प्रणाली विद्यमान है कि वे आवाज को उसके असली रूप में बिना किसी कठिनाई के सुन सकें। न मात्र सुनने की है उस सन्देश के अनुरूप अपना चिन्तन और कर्म निर्धारित करने के लिए प्रेरणा देने वाली विद्युत प्रणाली कानों में विद्यमान है। सांप की फुसकार सुनते ही यह प्रणाली खतरे से सावधान करती है और भाग चलने की प्रेरणा देने के लिए रोंगटे खड़े कर देती है। ऐसी बहुद्देशीय संरचना किन्हीं ध्वनि-ग्राहक यन्त्रों में सम्भव नहीं हो सकती।
शरीर पर चमड़ी का क्षेत्रफल प्रायः 250 वर्ग फुट और वजन 6 पौण्ड होता है। एक वर्ग इंच त्वचा में 72 फुट लम्बाई वाला तन्त्रिका जाल और 12 फुट से अधिक लम्बाई वाली रक्त नलिकाएं बिछी बिखरी होती हैं। त्वचा के रोमकूपों से प्रायः एक पौंड पसीना बाहर निकलता है। शरीर को ‘एयरकन्डीशन’ बनाये रखने के लिए त्वचा फैलने और सिकुड़ने की क्रिया द्वारा कूलर और हीटर दोनों का प्रयोजन पूरा करती है। त्वचा के भीतर बिखरे ज्ञान तन्तुओं को एक लाइन में रख दिया जाय तो वे 45 मील लम्बे होंगे। इन तन्तुओं द्वारा प्राप्त अनुभूतियां मस्तिष्क तक पहुंचती हैं और टेलीफोन तारों जैसा उद्देश्य पूरा होता है। त्वचा से ‘कोरियम’ नामक एक विशेष प्रकार का तेल निकलता रहता है यह सुरक्षा और सौन्दर्य वृद्धि के दोनों ही कार्य करता है। उसकी रंजक कोशिकाएं ‘नेलानिक’ रसायन उत्पन्न करती हैं। यही चमड़ी को गोरे, काले, पीले आदि रंगों से रंगता रहता है।
शरीर पूरा जादू घर है। उसकी कोशिकाएं, तन्तुजाल किस प्रकार जीवन-मरण की गुत्थियां स्वयं सुलझाते हैं और समूची काया को समर्थ बनाये रहने में योगदान करते हैं यह देखते ही बनता है। जीवन सामान्य है, पर उसे सुनियोजित एवं सुसंचालित रखने में एक छोटा ब्रह्माण्ड ही जुटा रहता है। पिण्ड मानवी काया का नाम है,पर उसके भीतर चल रही विधि-व्यवस्था को ब्रह्माण्डीय क्रिया-प्रक्रिया का छोटा रूप ही कहा जा सकता है।
अन्नमय कोश जिसे स्थूल शरीर भी कहते हैं। परमेश्वर की विचित्र कारीगरी से भरा-पूरा है। उसके किसी भी अवयव पर दृष्टिपात किया जाय, उसमें एक से बढ़ी-चढ़ी अपने-अपने ढंग की विलक्षणताएं प्रतीत होंगी।