अच्छी आदतें कैसे डाली जायं? (भाग 1)
बिना मनोयोग के कोई काम नहीं होता है। मन के साथ काम का सम्बन्ध होते ही चित्त पर संस्कार पड़ना आरंभ हो जाते हैं और ये संस्कार ही आदत का रूप ग्रहण कर लेते हैं। मन के साथ काम के सम्बन्ध में जितनी शिथिलता होती है, आदतों में भी उतनी ही शिथिलता पाई जाती है। यों शिथिलता स्वयं एक आदत है और मन की शिथिलता का परिचय देती है।
असल में मन चंचल है। इसलिए मानव की आदत में चंचलता का समावेश प्रकृति से ही मिला होता है। लेकिन दृढ़ता पूर्वक प्रयत्न करने पर उसकी चंचलता को स्थिरता में बदला जा सकता है। इसलिए कैसी भी आदत क्यों न डालनी हो, मन की चंचलता के रोक थाम की अत्यन्त आवश्यकता है और इसका मूलभूत उपाय है- निश्चय की दृढ़ता। निश्चय में जितनी दृढ़ता होगी, मन की चंचलता में उतनी ही कमी और यह दृढ़ता ही सफलता की जननी है।
जिस काम को आरम्भ करो, जब तक उसका अन्त न हो जाय उसे करते ही जाओ। कार्य करने की यह पद्धति चंचलता को भगाकर ही रहती है। कुछ समय तक न उकताने वाली पद्धति को अपना लेने पर फिर तो मनोयोग पूर्वक कार्य में लग जाने की आदत हो जाती है। तब मन अपनी आदत को छोड़ देता है अथवा बार बार भिन्न भिन्न चीजों पर वृत्तियाँ जाने की अपेक्षा एक पर ही उसकी प्राप्ति तक दृढ़ रहती है।
मन निरन्तर नवीनता की खोज करता है। यह नवीनता प्रत्येक कार्य में पाई जाती है कार्य की गति जैसे जैसे सफलता की ओर होती है, उसमें से अनेक नवीनताओं के दर्शन होने आरंभ होते हैं। मन की स्थिति उस कार्य पर रहे-उसे छोड़कर दूसरे को ग्रहण करने के लिए नहीं-बल्कि उसी कार्य में अनेक नवीनताओं को देखने के लिए। मन की यह गति जितनी विशाल, जितनी सूक्ष्मदर्शिनी बनेगी, मन की एक काम छोड़कर दूसरे काम को अपनाने की वृत्ति में उतनी ही कमी आवेगी, दृढ़ता उतनी ही अधिक होगी।
.....क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति- सितम्बर 1948 पृष्ठ 16