गीता का उपदेश-सार एवं गीता की महिमा
अखिल विश्व गायत्री परिवार के प्रमुख एवं देव संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति, गीताज्ञान के मर्मज्ञ श्रद्धेय डॉ. प्रणव पण्ड्या जी विगत 20 से अधिक वर्षों से प्रत्येक नवरात्र में विशेष उद्बोधन देते हैं। प्रस्तुत नवरात्र में उन्होंने ‘गीता का उपदेश- सार एवं गीता की महिमा’ विषय से आत्म-परिष्कार में उपयोगी बड़े मार्मिक और व्यावहारिक सूत्रों की व्याख्या की। प्रस्तुत हैं कुछ मार्मिक उद्गार :
गीता महात्म्य
श्रीमद्भगवद्गीता एक रहस्यमय ग्रंथ है। गीता को सारे उपनिषदों का सार माना गया है। यह गूढ़ ज्ञान केवल सच्चे साधकों-भक्तो के लिए है। इसका वाचन प्रेम और भक्ति के वातावरण में ही होना चाहिए। जो इसका सही अर्थ समझते हैं, उनके पिछले कई जन्मों के पापों का क्षरण हो जाता है और जीवन सफल हो जाता है। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि अच्छे कर्म, व्यवहार और भाव से साधक का व्यक्तित्व निखरता है और ऐसे व्यक्तित्ववान साधक ही भगवान को प्रिय होते हैं।
अहंकार का विसर्जन होता है
अपने मन को सदैव भगवान में और भगवान के कार्यों में लगाओ। जिस तरह से अर्जुन ने अपना सब कुछ भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित कर दिया था, उसी प्रकार अपने अहंकार को अपने इष्ट में समर्पित करने का नाम साधना है। मीरा, बुद्ध, प्रह्लाद जैसे अनेक उदाहरण हैं, जिन्होंने अपना सब कुछ भगवद्अर्पण कर दिया था। भगवान हमारे हृदय से बोलते हैं। भगवान की यह आवाज तभी सुनाई देगी, जब अहंकार का विसर्जन होगा। साधना से अहंकार गलता है । और इससे हमारे कर्मों में सात्विकता आती है। चित्त की मलिनता दूर होती है। साधना से साधक में आध्यात्मिक शक्तियों का जागरण होता है।
अपना कमण्डल धो लीजिए
परमात्मा का प्रेम उन्हीं को मिलता है, जो बालक की तरह सरल हो, निर्दोष, निच्छल और शुद्ध आचरण करता हो। साधना से शरीर, मन और हृदय रूपी कमण्डल को धोना चाहिए। जब तक मन में मैल रहेगा, तब तक साधना सफल नहीं होगी। गहन तपश्चर्या से ही साधक को शक्ति प्राप्ति होती है। साधक की साधना जैसी होगी, सद्गुरू उसी के अनुरूप शक्ति प्रदान करते हैं।
गायत्री महामंत्र जप और साधना
नवरात्र साधना में गायत्री महामंत्र के जप को विशेष महत्त्व दिया गया है। गायत्री महामंत्र के जप के साथ स्वाध्याय-सत्संग का भी महत्त्व है। महामंत्र का जप मन को पवित्र बनाता है एवं सत्साहित्य के स्वाध्याय से विचार शुद्ध होते हैं। साधना ऐसी हो, जिसमें सघनता, समर्पण व शुद्धता हो। साधना में जितनी सघनता होगी, इष्ट की कृपा, उनके आशीष-अनुदान उसी के अनुरूप मिलते हैं। श्रद्धावान साधक दूसरों के सद्गुणों को ग्रहण करता है।