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मध्य रात्रि में भी हजारों की संख्या में उपस्थित रहे भावनाशील गायत्री परिजन
पौराणिक मान्यता के अनुसार समुद्र मंथन के समय मंदार पर्वत (मदरांचल) की विशेष भूमिका थी जो बिहार के बांका में स्थित है। यह वह पावन भूमि है, जिसे तपस्थली के रूप में विशेष पहचान मिली है, यह वही भूमि है जहां 1953 में परम पूज्य गुरुदेव पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी ने तपस्या की थी, जिससे यह स्थान गायत्री साधकों के लिए असीम श्रद्धा और आस्था का केंद्र बन गया है। इसी पुण्यधरा पर महायोगी लाहिड़ी महाशय ने भी अपनी साधना की थी, जिससे इस भूमि की दिव्यता और गौरव और भी बढ़ गया हैं।
अपने पांच दिवसीय प्रवास के अगले चरण में, सविताकुंज (बांका) में आयोजित विराट 108 कुंडीय गायत्री महायज्ञ के अवसर पर दीपमहायज्ञ में देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति आदरणीय डॉ. चिन्मय पण्ड्या जी का आगमन हुआ। गया से 8 घंटे की लंबी यात्रा कर आदरणीय भैया सविता कुंज बांका में रात्रि 10 बजे पहुंचे जहां पर दीप यज्ञ में हजारों कर्मठ गायत्री साधक प्रतीक्षारत थे।
डॉ. पंड्या जी ने कहा, “ परम पूज्य गुरुदेव ने अपने आचरण से यह सिद्ध किया कि मनुष्य को चलता-फिरता मंदिर बनना चाहिए। अप्प दीपो भवः – अपने भीतर का दीपक स्वयं जलाओ और अपने जीवन के माध्यम से प्रकाश फैलाओ। दीपयज्ञ का यही संदेश है कि हर व्यक्ति अपने भीतर के प्रकाश को जगाए।”
उन्होंने आगे कहा, “आज का मनुष्य तन की बीमारियों और मन की परेशानियों से जूझ रहा है। हमें स्वामी विवेकानंद जी के दिखाए मार्ग पर चलकर अपने जीवन को दिशा देनी चाहिए। समाज की बुराइयों को समाप्त करने के लिए हमें सबसे पहले अपने भीतर झांकने की आवश्यकता है। देवता हमारे हृदय में निवास करते हैं, और हमें अपने हृदय को खोलकर इस दिव्यता का अनुभव करना होगा।”
संत तुकाराम का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, “भारत की पुकार हमारे भीतर के देवता को जागृत करने की पुकार है। दीपयज्ञ का उद्देश्य यही है कि हम अपने जीवन के अंधकार को दूर करके प्रकाश की ओर अग्रसर हों।”
इस महायज्ञ के माध्यम से बांका की धरती पर एक बार फिर से आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार हुआ, जिससे न केवल व्यक्तिगत बल्कि सामाजिक उत्थान की दिशा में भी एक नया मार्ग प्रशस्त हुआ। प्रस्तुत है झलकियां।