समर्थ गुरु का जीवनोद्देश्य विदेशी आक्रमणों और विधर्मी शासकों के दमन तथा अत्याचारों से जर्जर हिंदू-जाति में फिर से नवजीवन का संचार करना था। उस समय लगभग पाँच-छह सौ वर्ष की पराधीनता के कारण हिंदू जनता का आत्मविश्वास बहुत कुछ नष्ट हो गया था और वे पारस्परिक फूट तथा संगठन के अभाव से अपने को मुसलमानों से हीन अनुभव करने लगे थे। हिंदुओं में अप्रत्यक्ष रूप से मुसलमानों की संस्कृति-सभ्यता और बहुत-से रीति-रिवाजों का प्रवेश होता जाता था और इससे हिंदू-धर्म में तरह-तरह की विकृतियाँ पैदा होने लग गई थीं।
समर्थ गुरु रामदास ने देश में बारह वर्ष तक भ्रमण करके और प्रत्येक वर्ग तथा स्तर के व्यक्ति से मिलकर इस परिस्थिति को पूर्णत: हृदयंगम कर लिया था। जब वे भ्रमण समाप्त करके अपने आश्रम में स्थिर होकर बैठे तो हिंदू-जाति के पुनरुद्धार की समस्या पर गंभीरतापूर्वक विचार करने लगे। अंत में वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि हिंदुओं मे जो आत्महीनता और असंगठन का दोष उत्पन्न हो गया है, सबसे पहले उसी को हटाने का प्रयत्न किया जाए। इसके लिए सबसे पहले संगठन की आवश्यकता थी। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधु, कार्यकर्ताओं और मंदिर तथा मठों की स्थापना का कार्य तो उन्होंने अपने भ्रमण काल में ही आरंभ कर दिया था। फिर जब वे कर्म-क्षेत्र में प्रवृत्त हुए तो उन्होंने कुछ वर्षों में ऐसे संगठन केंद्रों का एक जाल-सा बिछा दिया। पर यह सब होने पर भी वे समझते थे कि सामान्य जनता के, गृहस्थों के जाग्रत और कर्तव्यनिष्ठ बने बिना, इस कार्य में दृढ़ता और स्थायित्व नहीं आ सकता। इसके लिए उन्होंने अपने उपदेशों में गृहस्थों को संबोधित करते हुए कहा-
"अनेक वर्णों और आश्रमों का मूल गृहस्थाश्रम ही है, जिसमें तीनों लोकों के प्राणियों को विश्राम मिलता है। देव, ऋषि, मुनि, योगी, तापस, वीतराग, पितृ आदि, अतिथि, अभ्यागत सब इस गृहस्थाश्रम से ही उत्पन्न होते है। यद्यपि ये लोग अपना आश्रम छोड़कर निकल जाते हैं, पर फिर भी ये आश्रित के रूप में गृहस्थ के घरों में ही घूमा करते हैं। इसलिए गृहस्थ-आश्रम ही देव आश्रमों से बढ़कर है लेकिन इस आश्रम में रहकर अपने कर्तव्य का पालन तथा सब प्राणियों का उपकार करना चाहिए।"
यद्यपि समर्थ गुरु जप, भजन, साधन, पुरश्चरण आदि को भी आत्मिक उन्नति के लिए आवश्यक समझते थे और वे स्वयं भी हठपूर्वक गृहस्थ को त्यागकर वैरागी बन गए थे, पर उनके मतानुसार इस मार्ग का अनुसरण करने का अधिकार उन्हीं को है, जो अपना जीवन धर्म और समाज को सेवा के लिए उत्सर्ग करने
की दृढ़ भावना और क्षमता रखते हों। जो लोग सनक या मूर्खता के आवेश में आकर साधु या वैरागी बनते हैं, उनकी उन्होंने स्पष्ट शब्दों में भर्त्सना की है। अपने मुख्य ग्रंथ 'दासबोध' में एक स्थान पर वे कहते हैं-
पागल लोग घर-गृहस्थी को त्यागकर केवल दु:ख भोगते हुए मर जाते है और इहलोक तथा परलोक दोनों को नष्ट कर लेते हैं। ऐसे लोग आवेश में आकर घर से तो निकल जाते हैं, पर लड़ने-झगड़ने में ही उनके जीवन का अंत हो जाता है। वे दूसरे बहुत-से लोगों को भी कष्ट देते है और स्वयं भी कष्ट पाते है। वे घर से निकल तो जाते हैं, पर फिर भी अज्ञानी ही बने रहते है। उनके पीछे बहुत-से लोग लग भी जाते हैं-उनके चेले बन जाते हैं, पर गुरु और शिष्य समान रूप से अज्ञानी बने रहते है। इसी प्रकार जो किसी आशा से अथवा स्वार्थ की लालसा से घर छोड़कर चल देते हैं, वे स्वयं अनाचारी बन जाते हैं और दूसरे लोगों में भी अनाचार फैलाते हैं। जो लोग अन्न-धन के अभाव के कारण घर से निकल जाते हैं, वे जगह-जगह चोरी करके मार खाते है। जिसमें स्वयं विवेक न होगा, वह दूसरों को क्या ज्ञान दे सकेगा? वह घर-घर भीख माँगता फिरेगा और उसे भीख भी न मिलेगी। पर जो समाज की दशा को समझता है, देश-काल और परिस्थिति को पहचानता है, उसे भू-मंडल में कहीं किसी भी बात की कमी नहीं हो सकती।'
इस प्रकार समर्थ गुरु ने गृहस्थ और साधु दोनों को उनके कर्तव्यों का उपदेश दिया। सच्चे गृहस्थों को तो वे समाज का मूल आधार मानते ही थे और देशोद्धार के कार्य में उनका सहयोग प्राप्त करना अनिवार्य था ही, पर उन्होंने साधु वर्ग को स्पष्ट रूप से यह बता दिया कि यदि वे धर्म और समाज को सेवा की भावना से-उसकी रक्षा और उन्नति के काम में अपना सर्वस्व अर्पण कर देने का व्रत ग्रहण करके गृहस्थ आश्रम का त्याग करते है तब तो उनका वह कार्य समुचित और प्रशंसनीय कहा जा सकता है, अन्यथा वे पागल, ढोंगी अथवा पेट के लिए भिखारी ही माने जाएँगे।
आगे चलकर समर्थ गुरु ने इस विषय को और भी स्पष्ट कर दिया है कि यद्यपि धर्मरक्षा के निमित्त 'साधु' बनकर उदर निर्वाह के लिए भिक्षा ग्रहण करना बुरा नहीं है, पर ऐसा तभी कहा जा सकता है, जब समाज से थोड़ा-सा ग्रहण करके उसकी अधिक से अधिक सेवा की जाए। सच पूछा जाए तो ऐसे समाजसेवी को आज भी उदर निर्वाह के लिए चिंता नहीं करनी पड़ती, वह चाहे गृहस्थ बना रहे और चाहे साधु आश्रम को ग्रहण कर ले। समाज अपने सच्चे सेवकों को पहिचानता है और उनके भरण-पोषण की व्यवस्था बिना माँगे-जाँचे ही किसी रूप में अवश्य करता है। समर्थ गुरु ने 'भिक्षा' की चर्चा करते हुए कहा है-
"भिक्षा माँगकर खाने वाला 'निराहारी' कहलाता है और प्रतिग्रह के दोष से बच जाता है। जो किसी संत या असंत के घर से रूखा अन्न भिक्षा में माँगकर भोजन करता है, वह मानो नित्य अमृत खाता है। उसे बहुत थोड़ी-सी भिक्षा मिल जाने पर ही संतोष करना चाहिए। यदि कोई बहुत-सा अन्न ले आवे तो उसमें से केवल एक मुट्ठी ही लेना चाहिए। भिक्षा के लिए कुछ खास घरों को नियत कर लेना अथवा आठ दिन के लिए इकट्ठा माँगकर रख लेना, कभी ठीक नहीं कहा जा सकता।"
विचारणीय है कि आजकल के भिखारी जो केवल पेट भरने के लिए भी भिक्षा नहीं माँगते, वरन् भिक्षा से प्राप्त अन्न को बेचकर बीड़ी, तंबाकू गाँजा, भाँग मदिरा आदि का सेवन करते है, किस श्रेणी में आते हैं ? साथ ही वे यह भी नहीं जानते कि जन-सेवा या लोकोपकार किस चिड़िया का नाम है ? ऐसे लोग न तो 'साधु' कहे जा सकते है और न उसको जनता से दान लेकर खाने का तनिक भी अधिकार है। वे तो ठग या धोखेबाज ही कहे जा सकते हैं।