नवरात्रि पर्व पर भाव श्रद्धा की परिणति उदार अनुदानों में है
प्रस्तुत आश्विन नवरात्रियाँ हर वर्ष मनाये जाने वाले साधना पर्व जैसी सामान्य नहीं वरन् आसाधारण स्तर की हैं। उनमें युगसंधि के बीजारोपण वर्ष की विशेष प्रयोजन भी जुड़ गया है। अमावश्या, पूर्णिमा को यों सदा ही पर्व माना जाता है। और शुभ कर्मों के लिए उनहं विशेष अवसर या उपयुक्त मुहूर्त माना जाता है। किन्तु जब उनके साथ कुछ विशिष्टता जुड़ जाती है तो स्थिति और भी उच्चस्तरीय हो जाती हैं। सोमवती अमावश्या हरियाली अमावश्या को अतिरिक्त पर्व माना जाता है। शरद पूर्णिमा, गुरुपूर्णिमा आदि का महत्व भी बढ़ जाता है। चन्द्र ग्रहण वाली पूर्णिमा और सूर्य ग्रहण वाली अमावस्या की स्थिति भी असामान्य होती है। इन पर्व अवसरों पर श्रद्धालुओं को कुछ अतिरिक्त योजना बनाते देखा जाता है। इस बार का नवरात्रि पर्व भी ऐसी ही अतिरिक्त विशेषताओं से भरा होने के कारण सामान्य नहीं रह गया हैं और न उसे परम्परागत साधना प्रक्रिया तक सीमित रहने की बात है। बीजारोपण वर्ष के उपयुक्त युग साधकों जैसी मनःस्थिति जिन साधकों की बन रही है वे इस पर्व बेला को ऐतिहासिक बनाने की अपनी योजना बना रहे हैं। आत्म सत्ता में देवत्व का आवेश भर देने ओर संपर्क क्षेत्र को आलोकमय बनाने की उमंग जिस प्रकार समुद्री तूफान की तरह उभर रही हैं उसे देखते हुए लगता हैं महाकाल का प्रेरणा प्रवाह युग परिवर्तन की परिस्थितियं उत्पन्न करके ही रहेगा।
इस बार के साधना अनुष्ठान का संकल्प सर्वत्र एक ही होगा कि साधकों को महामानवों जैसी मनोभूमि एवं शूरवीरों जैसी उदात्त साहिसिकता का वरदान मिलें। इस अनुष्ठान के फलस्वरुप ऐसा वातावरण बने जिससे युग प्रवार को उलटना संभव हो सकें। अवाध्नयीता को निरस्त और सदाशयता को समर्थ बनाने में देवमानवों का पुरुषार्थ ही निर्णायक होता हैं। यह उथला-हलका पड़ा तो गाड़ी रुक जाती है किन्तु यदि उसमें आवेश जैसा पराक्रम सम्मिलित हो गया तो समझना चाहिए कि लक्ष्य वेध में अब कहीं कोई अड़चन शेष नहीं रह गई। इस दृष्टि से इस बार नवरात्रि साधना के साधकों का दूसरा लक्ष्य वातावरण का अनुकूलन ही हैं। यों आत्मकल्याण और लोकमंगल दोनों एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रुप से जुड़े हुए हैं। वे परस्पर पूरक बनकर ही दो पहियों की तरह संयुक्त प्रयास से प्रगति की आकाँक्षा को प्रत्यक्ष उपलब्धि में परिणत करते हैं। फिर भी वर्गीकरण की दृष्टि से समझने की सुविधा को ध्यान में रखते हुए उन्हें यों भी कह दिया जाता है। यों एक के बिना दूसरे की पूर्ति हो सकना किसी प्रकार भी संभव नहीं है। इस बार इस तत्य को अधिक अच्छी तरह समझा जा रहा है और भौतिक मनोकामनाओं के लिए नहीं, सभी साधक उच्चस्तरीय उद्देश्य एवं संकल्प लेकर साधनारत हो रहें हैं।
प्रयत्न तो अभी से चल रहें हैं कि पंचसूत्री कार्यक्रर्मो की पूर्णता के लिए प्रज्ञा पुत्रों में से कौन कहाँ, क्या और कैसे कर सकता है ? साथ ही यह प्रयत्न भी चल रहा है कि समय की माँग को पूरा करने के लिए कुछ विशिष्टता औ वरिष्ठता का समावेश कैसे किया जाए ? इस संदर्भ में प्रज्ञा परिजनों की मनःस्थिति और परिस्थिति कई प्रकार से भावी प्रयत्नों को अग्रगामी बनाने का स्वरुप गढ़ रही हैं। पर एक निश्चय सभी का है कि जहाँ नवरात्रि आयोजन हों वहा प्रज्ञा संस्थन का कोई न कोई रुप बन कर खड़ा होना ही चाहिए।
बड़ी शक्तिपीठ बनान वरिष्ठ प्रतिभाओं के जिम्मे सौंप दिया गया है। सस्ती प्रज्ञापीठ प्रायः हर जगह हर परिस्थिति में बन सकना संभव है। पन्द्रह बीस हजार की बड़ी और सात-आठ हजार की छोटी प्रज्ञापीठ बनाने में, जहाँ जीवन्त समुदाय हो, वहाँ कुछ भी कठिनाई नहीं पड़ सकती। श्रद्धालु साधक कृपण नहीं होते, वे उदारता की याचना अन्यान्यों से ही नहीं करते-फिरते वरन् प्रेरणाप्रद आदर्श अपने से ही आरम्भ करते है। समयदान से लेकर अंशदान तक के साहस सदा से श्रद्धालु साधकों को स्वयं ही प्रस्तुत करने पड़े हैं अन्य लोगों ने तो सहानुभूति बाद में ही दिखाई है।
अपने लोगो में से कितने ही ऐसे हैं जो उच्चस्तरीय प्रेरणा से प्रेरित होकर न सही अपनी या पूर्वजों की कीर्ति समृति के निमित्त ही ऐसा कुछ उदार साहस कर सकते है, जैसा कि बेटी के विवाह, तीर्थयात्रा, प्रीतिभोज, चुनाव प्रचार। ठाट-बाट, व्यसन, सनक या मजा चखाने जैसे छोटे-छोटे आवेशों से प्रेरित होकर आमतौर से सामान्य लोग खर्च करते रहते हैं। प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर कई लोगों की कई खचींली योजना आये दिन बनती और पूरी होती रहती है। प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण को यदि इस श्रेणी में भी रख लिया जाए तो भी भावभरे प्रयास उनकी पूर्ति अपने लोगों से ही पूरा करा सकते है। भले ही वे मध्य वर्गीय रोज कुआँ खोदने रोज पानी पीने वाले स्तर के ही क्यों न हों कुछ बीमारी, शादी, मुकदमा आदि कितनी आकस्मिक घटनाएँ ऐसी आ पड़ती है जिनके लिए किसी प्रकार कुछ प्रबंध करना ही पड़ता है। ऐसा ही कुछ प्रज्ञा संस्थान के निर्माण के सम्बन्ध मं सोचा जा सकें तो इतनी सस्ती किन्तु इतनी महान योजना को क्रियान्वित करने में कहीं भी कुछ भी कठिनाई सामनें नहीं आयेगी।
अड़चन तो एक ही है। सदुद्देश्यों के प्रति आन्तरिक निष्ठा का अभाव। यदि भक्ति भावना के पीछे उदात्त श्रद्धा का समावेश भी रहा होता तो समर्पण शब्द का बार-बार उच्चारण करने वाले कम से कम कुछ कहने लायक अनुदान तो प्रस्तुत करते। कृपणता के अवरोध में इस बार प्रत्येक श्रद्धावान को जूझना पड़ेगा और देखना होगा कि क्या वह इ संदर्भ में कुछ उदार साहस कर सकने की स्थिति में है या नहीं ? कृपणता जहाँ हजार बहाने गढ़ती है वहाँ उदारता हजार रास्ते भी बना देती हैं।
नवरात्रि आयोजन की परिस्थिति छोटे-बड़े प्रज्ञा संस्थान के रुप में होनी चाहिए। भूमि सरकार के माँगने की अपेक्षा अपने ही लोगों में से कोई उपयुक्त स्थान पर अपनी भूमि होतो उसका एक टूकड़ा दे सकते हैं जिनके पास निवास से अतिरिक्त मकान है वे उनमें से एक को यदि इसी इसी निमित्त दे दें तो कृपणता को दुत्कारने के अतिरिक्त और कोई कठिनाई तनिक भी नहीं पड़ेगी। बेटी और बेटों को इतना कुछ दिया जा सकता है तो उस सत्ता के लिए भी तो इतना कुछ दिया जा सकता हैं जिसे कभी उपास्य कभी इष्टदेव कहा जाता है और तभी अपने आपको भक्त, शरणागत होने की दुहाइ दी जा सकती हैं। भक्त याचकों को नहीं उन आत्मवानों को कहते है जो अनुदानों से अपनी अध्यात्म यात्रा आरम्भ करके सर्वस्व समर्पण की स्थिति तक पहुँचते हैं।
इन दिनों प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना पर जोर इसलिये दिया जा रहा हैं कि वे कलेवर की दृष्टि से भव्य भवनों की तुलना में नगण्य होते हुए भी जनमानस के परिष्कार और सत्प्रवृत्ति बनाने के लिए वे ऊर्जा उत्पादन की भूमिका गरिमा को पुनर्जीवित करने में इन प्रज्ञा संस्थाओं का असाधारण योगदान होगा। स्थान के साथ व्यक्ति जुड़ते हैं और फिर उनकी गतिविधियाँ चमत्कार उत्पन्न करती हैं। पाठशाला, कारखाने, दफ्तर, छावनी आदि की तरह प्रज्ञा युग लाने के लिए संचालित की जाने वाली गतिविधियों के लिए केन्द्र स्थल तो होना ही चाहिए। महत्ता और आवश्यकता को देखते हुए प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण पर इन दिनों अधिक जोर दिया जा रहा है। यदि बात देव मंदिर बनाने जैसी रही होती तो उसकी पूर्ण उपेक्षा की जा सकती थी और कहा जा सकता था कि प्रस्तुत मंदिरों का जीर्णोद्धार एवं सुनियोजन पर जोर देने की आवश्यकता है न कि कीर्ति स्तम्भ खड़े करने जैसे नये-नये मंदिर बनाते चलने की।
जहाँ कुछ भी प्रबन्ध न हो सकें वहाँ कोई उदार प्रज्ञापुत्र अपना एक कमरा बिना किरायें देवें ओर उसमं चौकी पर चित्र की स्थापना करे प्रज्ञामंदिर बना दिया जाए। स्मरण रहे प्रज्ञा संस्थानों का प्रथम कार्य उस क्षेत्र के हर शिक्षित व्यक्ति तक युग साहित्य पहुँचाना और प्रज्ञा परिजनों के जन्म दिवसोत्व मनाया जाता हैं। यह दो कार्य जहाँ नहीं हो रहें हैं, वहाँ के प्रज्ञा संस्थाओं को निर्जीव निरर्थक माना जायेगा। माँगे हुए कमरे में बनाया गया प्रज्ञा मंदिर भी मात्र पूजा उपचार तक सीमित नहीं रहेगा वरन् चल पुस्तकालय के सहारे अपने निर्धारित कम्र क्षेत्र में हर शिक्षित व्यक्ति को युग साहित्य पढ़ानें और हर सहयोगी का जन्म दिवसोत्सव माने का अनिवार्यक्रम किसी न किसी प्रकार पूरा करेगा।
बड़े प्रज्ञापीठों में दो कार्यकताओं की स्थायी नियुक्ति आवश्यक है ताकि साल गाँवों के एक मंडल क्षेत्र में सत्प्रवृत्ति सर्म्बधन का कार्य अपने-अपने मुहल्ले बाँटकर करते रह सकते हैं। समय सम्बन्धी अड़चन पड़े तो “समय के बदले धन” देकर भी प्रयोजन की पूर्ति हो सकती है। आधे दिन के लिए किसी खाली व्यक्ति को घर-घर पुस्तके पहुँचानें के लिए नियुक्त किया जा सकता है। उसका वेतन तथा साहित्य मंगाते रहने की न्यूनतम आवश्यकता वही पूरी करें। इस ज्ञानघटों के माध्यम से पूरी करते रह सकते हैं। जिन्होनें नवरात्रि आयोजनों में श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान साधना की है उनकी श्रद्धा को जीवन्त रखने के लिए दक्षिण की परम्परा है। यज्ञ ब्रह्मभोज को इसी लिए अनुष्ठान के साथ जोड़ा गया है कि कहीं चतुर लोग माला घुमाकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री न करलें। वे सत्प्रयोजनों के लिए उदार अनुदान प्रस्तुत करने पर ही साधना की पूर्ति होने का स्मरण बनायें रखें।
प्रज्ञा संस्थानों का निर्वाह सर्वत्र ज्ञानघटों की स्थापना से होगा। वही अपनी अर्थ व्यवस्था की रक्तवाहिनी है। पिछले तीस वर्षो से झोला पुस्ताकालयों की आवश्यकता ज्ञानघटों से पूरी होती रही हैं। उस प्रकार ज्ञानयज्ञ का उपक्रम अपने ढर्रें पर चलता रहा है। अब प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना के साथ ब्रह्मभाोज की-कार्यकर्ता निर्वाह की नई धारा जुड़ी है। उत्तरदायित्व दूना हो गया तो उसकी व्यय व्यवस्था भी दूनी करनी पड़ेगी। इसका उपाय यही हो सकता है। कि हमारे अनुदानों का अनुपात दूना कर दिया जाय। पुरुष ज्ञानयज्ञ का उत्तरदायित्व निभायें और महिलाएं ब्रह्मभोज की पूत्रि करें। पुरुषों का दस पैसे वाला ज्ञानघट चले और महिलाएं मुठ्ठी फण्डका धर्मघट चलायें। इस प्रकार हर प्रज्ञा परिवार को अपने अनुदान दून कर देने चाहिए। मात्र ज्ञानघटों से ही कार्यकर्ता का निर्वाह और घर-घर युग साहित्य पहुँचानें का कार्य पूरा न हो सकेगा। बढ़ी हुई जिम्मेदारियों की पूर्ति बढ़ी हुई उदारता ही पूर्ण कर सकती हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए नवरात्रि साधना में सम्मिलित होने वाले तथा प्रज्ञा अभियान में रुचि लेने वालों का समर्थन करने से आगे बढ़ाने की योजना बननी चाहिए। यह कार्य ज्ञान घटों और धर्मघटों की स्थापना से ही हो सकता है। प्रज्ञा संस्थानों में से प्रत्येक को कार्यकर्ता निर्वाह का घर-घर युग आलोक पहुँचानें का प्रबंध करना होगा। जम्न दिवसोत्सव की सुव्यवस्था में भी एक नियमित एवं नियुक्त कार्यकर्ता की आवश्यकता पड़ेगी। भले ही वह प्रज्ञा मन्दिरों की दुर्बल स्थिति में आधे समय का ही क्यों न रखा जाए। अवैतनिक कार्यकर्ताओं के होते हुए भी एक अवैतनिकों को खटखटाता रहें और उनका सहयोग सम्पादन का माध्यम सूत्र रह कर शिथिलता न आने देने का आधार बना खड़ा रहे।
नवरात्रियों इस बार अत्यधिक उत्साह के साथ मनेंगी यह निश्चित है। उसमें प्रातःकाल साधकों की संख्या भी अपेक्षाकृत कहीं अधिक रहेगी। रात्रि के ज्ञान या में यदि सुरुचि सम्पन्नों को घसीट कर लाया जायेगा तो प्रखर प्रेरणाओं से लाभान्वित होने वालों की उपस्थिति भी कम न रहेगी। इस भाव समुदाय की उदार संवेदनाओं को यदि उभारा जा सके तो युग की महती आवश्यकता पूरी करने के लिए नितान्त आवश्यक प्रज्ञा संस्थान की आवश्यकता किसी न किसी रुप में पूरी होकर ही रहेगी। छोटे-बड़े प्रज्ञापीठ की लागत इतनी अधिक नहीं है जिसे प्रस्तुत नवरात्रि आयोजनों में उपस्थित लोग अपने निजी उदार अनुदान से अथवा संपर्क क्षेत्र के सहयोग से पूरा न करे सकें।
जहाँ भी नवरात्रि आयोजनों की तैयारियाँ चल रही हैं वहाँ साथ-साथ यह नियोजन भी चल रहा है कि प्रस्तुत साधना पर्व के नौ दिनों में स्थानीय प्रज्ञा संस्थान बनने का कुछ न कुछ प्रबन्ध अवश्य हो जायेगा। इस आकाँक्षा से अनुप्राणित प्रज्ञापुत्र इस छोटी स्थापना में असफल रहें यह तो हो ही नहीं सकता।
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