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नवरात्रि की पूर्णाहुति इस प्रकार सम्पन्न हो- इस अवसर पर नव सृजन की गतिविधियाँ उभरें, इस अवसर पर किये गये शुभारम्भों का भविष्य उज्ज्वल होगा
इस अवसर पर नव सृजन की गतिविधियाँ उभरें इस अवसर पर किये गये शुभारम्भों का भविष्य उज्जवल होगा।
जप, यज्ञ और ज्ञान यज्ञ का उपक्रम आठ दिन तक चलने के उपरान्त नौवें दिन नवरात्रि साधना की पूर्णाहुति होती है। पूर्णाहुति की विशेष परम्परा में दो बातें अनिवार्य रुप से सम्मिलित हैं-एस यज्ञ दूसरा ब्रह्मभोज। इनके न करने पर मात्र जप भर करने की प्रक्रिया को अनुष्ठान संज्ञा नहीं मिल सकती। अधूरे-उपक्रम का प्रतिफल भी अधूरा ही रहता है। अस्तु जहाँ भी अनुष्ठानों का व्यक्तिगत एवं सामूहित आयोजन होता हैं वहा इन दोनों की व्यवस्था किसी न किसी रुप में की ही जाती है, चाहे वह संक्षेप में छोटे स्तर की ही क्यों न हो।
प्रत्येक कर्म काण्ड के पीछे एक दूरदर्शिता पूर्ण उद्देश्य छि...
नवरात्रि साधना के संदर्भ में विशेष - उपासनाएँ सफल क्यों नहीं होतीं?
उपासना देवी - देवताओं की की जाती है। स्वयं भगवान अथवा उनके समाज-परिवार के देवी-देवता ही आमतौर से जनसाधारण की उपासना के केन्द्र होते हैं विश्वास यह किया जाता है कि पूजा, अर्चा, जप, स्तुति दर्शन, प्रसाद आदि धर्मकृत्यों के माध्यम से भगवान अथवा देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है और जब वे प्रसन्न हो जाते हैं, तो उनसे इच्छानुसार वरदान प्राप्त करके अभीष्ट सुख-सुविधाओं से लाभान्वित हुआ जा सकता है।
यह मान्यता कई बार सही साबित होती है, कई बार गलत। प्राचीनकाल के इतिहास पुराण देखने से पता चलता है कि कितने ही साधकों और तपस्वियों ने कठिन उपासनाएँ करके अभिभूत शक्तियाँ-विभूतियाँ एवं उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। स्वयं भी इतने समर्थ हुए कि दूसरों को अपनी साधना का अंश देकर वरदान-आशीर्वाद से लाभान्वित कर ...
शिक्षा बढ़ रही है पर मूढ़ता जहाँ की तहाँ हैं
नशेबाजी, माँसाहार, व्यभिचार, जुआ, चोरी जैसे दुर्व्यसन घट नहीं बढ़ रहे हैं । शिक्षा बढ़ रही है पर मूढ़ता जहाँ की तहाँ हैं । पढ़े-लिखे लोग भी दहेज के लिए जिद करें तो समझना चाहिए शिक्षा के नाम पर उन्हें कागज चरना ही सिखाया गया है ।
धर्म जैसी चरित्र निर्मात्री शक्ति आज केवल कुछ व्यवसाइयों के लिए भोले लोगों को फँसाने का जाल-जंजाल भर रह गई है । इन परिस्थितियों को मूक दर्शक की तरह देखते नहीं रहा जा सकता, इनके विरुद्ध जूझना ही एकमात्र उपाय है । अर्जुन की तरह हमें इस धर्म-युद्ध के लिए गाण्डीव उठाना ही पड़ेगा।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (३.६१)
युग परिवर्तन में भूमिका
मित्रो! आत्मपरिवर्तन के साथ- साथ यही जाग्रत आत्माएँ विश्व परिवर्तन की भूमिका प्रस्तुत करेंगी। प्रकाशवान ही प्रकाश दे सकता है। आग से आग उत्पन्न होती है। जागा हुआ ही दूसरों को जगा सकता है। जागरण की भूमिका जाग्रत आत्माएँ ही निभाएँगी। आत्मपरिवर्तन की चिनगारियाँ ही युग परिवर्तन के प्रचण्ड दावानल का रूप धारण करेंगी। यही सब तो इन दिनों हो रहा है। जाग्रत आत्माओं में एक असाधारण हलचल इन दिनों उठ रही है।
उनकी अन्तरात्मा उन्हें पग- पग पर बेचैन कर रही है, ढर्रे का पशु जीवन नहीं जिएँगे, पेट और प्रजनन के लिए- वासना और तृष्णा के लिए जिन्दगी के दिन पूरे करने वाले नरकीटों की पंक्ति में नहीं खड़े रहेंगे, ईश्वर के अरमान और उद्देश्य को निरर्थक नहीं बनने देंगे, लोगों का अनुकरण नहीं करें...
आस्तिकता
मित्रो ! आस्तिकता सच्ची शक्ति, सच्चा जीवन तथा सच्चा धर्म है। रामायण में श्रद्घा को भवानी और शिव को विश्वास की उपमा दी है और कहा है कि इन दोनों के बिना हृदय में विराजमान होते हुए भी इष्ट देव का दर्शन, अनुग्रह नहीं होता। इससे प्रकट है कि जितनी किसी देवता या मंत्र में शक्ति है उसकी तुलना में सघन श्रद्घा किसी प्रकार कम नहीं पड़ती। किसी कार्य की गरिमा के प्रति श्रद्घा रखते हुए सच्चे मन और पूरे परिश्रम के साथ जुट जाना सफलता का सुनिश्चित पथ प्रशस्त करना है।
शरीर में सत्कर्म, मन में सद्विचार और अन्त:करण में सदभाव की प्रेरक शक्ति को गायत्री कह सकते हैं। कुंडलिनी आद्यशक्ति है। कुशल गुरु के मार्गदर्शन में संभव हुए उसके उत्थान से ईश्वर दर्शन, आत्मबल जैसी जिज्ञासाएँ तो शांत होती ही ...
गो-रक्षा की व्यावहारिक प्रणाली
गोरक्षा हिन्दू धर्म की मुख्य वस्तु है। गोरक्षा मुझे मनुष्य के सारे विकास-क्रम में सबसे अलौकिक चीज मालूम हुई है। मुझे तो यह भी स्पष्ट दीखता है कि भारत में गाय को ही देवभाव क्यों प्रदान किया गया है। इस देश में गाय ही मनुष्य का सबसे सच्चा साथी, सबसे बड़ा आधार थी। यह भारत की एक कामधेनु थी। यह सिर्फ दूध देने वाली ही न थी, बल्कि सारी खेती का आधार स्तम्भ थी।
गाय दया धर्म की मूतिमंत कविता है। इस गरीब और सीधे पशु में हम केवल दया ही उमड़ती देखते हैं। यह लाखों, करोड़ों भारतवासियों को पालने वाली माता है। इस गाय की रक्षा करना, ईश्वर की समस्त मूक सृष्टि की रक्षा करना है। वर्तमान समय में गोरक्षा का प्रश्न बड़ा विवादग्रस्त बन गया है और जो लोग केवल धर्म-शास्त्रों के वाक्यों पर श्रद्धा रखने को तैया...
आश्विन नवरात्रि पर सामयिक संदर्भ:- - आत्मिक शक्ति संवर्धन हेतु विशिष्ट अवसर
ईश्वरोपासना-आराधना के लिए किसी मुहूर्त विशेष की प्रतीक्षा नहीं की जाती। सारा समय भगवान का है, सभी दिन पवित्र हैं। शुभ कर्म करने के लिए हर घड़ी शुभ मुहूर्त है, इतने पर भी प्रकृति जगत में कुछ विशिष्ट अवसर ऐसे आते हैं कि कालचक्र की उस प्रतिक्रिया से मनुष्य सहज ही लाभ उठा सकता है। उन दिनों किये गये साधनात्मक प्रयास संकल्प बल के सहारे शीघ्र ही गति पाते व साधक का वर्चस् बढ़ाते चले जाते हैं। ऐसे अवसरों पर बिना किसी अतिरिक्त पुरुषार्थ के अधिक लाभान्वित होने का अवसर मिल जाता है। उस काल विशेष में किया गया संकल्प, अनुष्ठान, जप, तप, योगाभ्यास आदि साधक को सफलता के अभीष्ट द्वार तक घसीट ले जाता है। कालचक्र के सूक्ष्म ज्ञाता ऋषियों ने प्रकृति के अन्तराल में चल रहे विशिष्ट उभारों को दृष्टिगत रखकर ही ऋतुओं...
अनेकों सत्प्रवृत्तियों का उभार नवरात्रि आयोजनों मे
नवरात्रि आयोजनों के साथ कई प्रकार की सत्प्रवृत्तियों को उभारने को अवसर मिलता है। इस दिशा में समुचित सतर्कता बरती जाय तैयारी की जाय तो आशाजनक सत्परिणाम सामने होंगे और यह साधना पर्व सच्चे अर्थों में सृजन पर्व बनकर रहेगा।
अपने क्षेत्र में रूचि कहाँ- कहाँ है? किन- किन में इस स्तर की सुसंस्कारिता के बीजांकुर मौजूद है। उसकी तलाश इस बहाने सहज ही हो सकती है। उपासना में सम्मिलित करने के लिए जन सम्पर्क अभियान चलाया जाय और घर- घर जाकर जन- जन को इस पुण्य प्रक्रिया का महत्व समझाया जाय तो जहां भी आध्यात्मिक रूचि का अस्तित्व मौजूद होगा वहां उसे खोजा और उभारा जा सकेगा। यह अपने आप में एक बहुत बड़ा काम है। दूब की जड़ें कड़ी धूप पड़ने पर सूख जाती हैं। पर वर्षा पड़ते ही उनमें फिर सजीवता उत्पन्न हो जाती है...
सृजन के लिए साहस
मित्रो ! इमारतों का सृजन सीधा-सादा सा होता है। पुल, सड़कों बाँधों का निर्माण निर्धारित नक्शे के आधार पर चलता रहता है। पर युगों के नव सृजन में अनेकानेक पेचीदगियाँ और कठिनाइयाँ आ उड़ेली हैं। कार्य का स्वरूप ही ऐसा है, जिसमें प्रवाह के उलटने के प्रयास, जूझने की विद्या ही प्रमुख बन जाती है। विचारक्रांति, युग परिवर्तन, जनमानस का परिष्कार ऐसे संकल्प हैं, जिनकी पूर्ति में प्राय:उन सभी से टकराना पड़ता है, जो अब तक स्वजन, संबंधी, हितैषी, निकटर्वी एवं अपने प्रभाव क्षेत्र के अंतर्गत माने जाते थे। इसमें मार-काट न होने पर भी इसे भूतकाल में संपन्न हुए महाभारत के समतुल्य माना जा सकता है, भले ही उस टकराहट को दृश्य रूप में न देखा जा सकता हो।
आज अभिमन्यु जैसा साहस उन्हें भी अ...
बहुमूल्य जीवन
मित्रो ! अभागों की दुनियाँ अलग है और सौभाग्यवानों की अलग। अभागे जिस-तिस प्रकार लालच को पोषते, अविवेकी प्रजनन में निरत रहकर कमर तोडऩे वाला बोझ लादते, व्यामोह में तथाकथित अपनों को कुसंस्कारी बनाते, अपव्ययी, असंयमी रहकर दुव्र्यसनों के शिकार बनते, अहंता के परिपोषण में समय बिताते हैं। रोते-कलपते, खीजते-खिजाते, डरते-डराते, छेड़ते-पीटते लोगों के ठट्ठ के ठट्ठ हर गली चौराहों पर खड़े देखे जा सकते हैं। इन्हीं दुर्दशाग्रस्तों की भीड़ में जा घुसना समझदारी कहाँ है?
भगवान किसी को उच्च शिक्षा से वंचित भले ही रखे पर इतनी समझ तो दे कि हित-अनहित में अंतर करना आए। भले ही शूर-वीर योद्धा बनने का श्रेय किसी को न मिले पर इतनी सूझ-बूझ तो रहे कि मनुष्य जीवन बहुमूल्य है और उसे सार्थक ...