कर्मयोग का रहस्य (भाग 4)
पश्चिम में तथा अमरीका में बहुत से धनी लोग बेशुमार दान करते हैं, वे बड़े बड़े अस्पताल और बड़ी बड़ी संस्थाएँ बनाते हैं। वे यह सब कुछ केवल सहानुभूति और मनुष्य जाति पर दया करने के नाते ही करते हैं, उनके लिए यह सब समाज सेवा है और ईश्वर समाज का आधार है और मनुष्य ईश्वर का व्यक्तित्व प्रकट करता है। वे अभिमान रहित होकर कर्त्तापन की बुद्धि को छोड़ कर और फल की आशा को छोड़कर सेवा नहीं करते, उनके लिए यह सेवायोग (कर्मयोग) नहीं है।
उनके वास्ते यह सेवा केवल दान विषयक कर्म है, उनके लिए सेवा केवल मनुष्यता का धर्म है, उनमें किसी दर्जे तक मनुष्य−जाति के लिये सहानुभूति इस सेवा के द्वारा बढ़ जाती है, उनको कर्मयोग के अभ्यास से चित्त शुद्धि करके आत्मज्ञान प्राप्त करने का विचार नहीं आता, उनको जीवन के लक्ष्य (उद्देश्य) का कुछ ज्ञान नहीं होता, उनको ईश्वर की सत्ता में भी दृढ़ विश्वास नहीं होता। जो कर्मयोग के सिद्धान्त को समझकर ईश्वर की सत्ता में दृढ़ विश्वास रखते हुए कर्म करते हैं वे अपने लक्ष्य को जल्दी पहुँच जावेंगे।
कर्मयोग के अभ्यास के लिए बहुत धन होना आवश्यक नहीं है, आप अपने धन और मन से सेवा कर सकते हैं। यदि किसी निर्धन रोगी को सड़क के किनारे पड़ा हुआ देखो तो उसको थोड़ा जल या दूध पीने को दो, मीठे आश्वासन से उसको प्रसन्न करो, उसको ताँगे में बैठाओ और पास के अस्पताल में ले जाओ, यदि तुम्हारे पास ताँगे का किराया देने के लिये पैसा नहीं है तो रोगी को अपनी पीठ पर उठाकर ले जाओ और उसको अस्पताल में दाखिल कराने का इन्तजाम कर दो। यदि तुम इस प्रकार सेवा करोगे तो तुम्हारा चित्त जल्दी शुद्ध हो जावेगा। निर्धन, निःसहाय मनुष्यों की इस प्रकार की सेवा से परमात्मा ज्यादा खुश होता है, न कि धनी लोगों की शान−शौकत से की हुई सेवा से।
श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज
अखण्ड ज्योति, मार्च 1955 पृष्ठ 8
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