कर्मयोग का रहस्य (भाग 2)
कर्म योगी का विशाल हृदय होना चाहिये। उसमें कुटिलता, नीचता कृपणता और स्वार्थ बिल्कुल नहीं होना चाहिए, उसे लोभ, काम, क्रोध और अभिमान रहित होना चाहिए। यदि इन दोषों के चिन्ह भी दिखाई देवें तो उन्हें एक एक करके दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए, वह जो कुछ भी खाय उसमें से पहले नौकरों को देना चाहिये, यदि कोई निर्धन रोगी दूध की चाहना रखकर उसी के घर आये और घर में उसी के लिए दूध नहीं बचा हो तो उसे चाहिये कि अपने हिस्से का दूध फौरन ही उसे देदे और उससे कहे कि ‘हे नारायण! यह दूध आपके वास्ते है, कृपा कर इसे पीलो, आपकी जरूरत मुझसे ज्यादा है।’ तब ही वह सच्ची उपयोगी सेवा कर सकता है।
कर्मयोगी का स्वभाव प्रेमयुक्त, मिलनसार, समाज−सेवी होना चाहिए। उसे जाति, धर्म या वर्ण के विचार बिना हर एक व्यक्ति के साथ मिलना चाहिए, उसमें सहनशीलता, सहानुभूति, विश्व−प्रेम, दया और सबमें मिल जाने की सामर्थ्य होनी चाहिये। उसे दूसरों के स्वभाव और रीति से संयोग रखने की क्षमा होनी चाहिये, उसे उपस्थित बुद्धि होनी चाहिये, उसका मन शान्त और सम होना चाहिये। उसे दूसरों की उन्नति में प्रसन्न होना चाहिये, उसको सारी इन्द्रियों पर पूरा संयम होना चाहिये, और हर एक वस्तु केवल अपने ही लिए चाहता है तो वह अपनी सम्पत्ति दूसरों को कैसे बाँट सकता है, उसे अपने स्वार्थ को जला डालना चाहिए।
ऐसा ही मनुष्य अच्छा कर्मयोगी बन सकता है और अपने लक्ष्य को जल्दी प्राप्त कर लेता है।
श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज
अखण्ड ज्योति, मार्च 1955 पृष्ठ 7
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