कर्मयोग का रहस्य (भाग 1)
मनुष्य−समाज की स्वार्थहीन सेवा कर्मयोग है। यह हृदय को शुद्ध करके अन्तःकरण को आत्मज्ञान रूपी दिव्य ज्योति प्राप्त करने योग्य बना देता है। विशेष बात तो यह है कि बिना किसी आसक्ति अथवा अहंभाव के आपको मानव−जाति की सेवा करनी होगी। कर्मयोग में कर्मयोगी सारे कर्मों और उनके फल को भगवान के अर्पण कर देता है। ईश्वर में एकता रखते हुए, आसक्ति को दूर करके सफलता व निष्फलता में समान रूप से रह कर कर्म करते रहना कर्म−योग है।
जैमिनी ऋषि के मतानुसार अग्निहोत्रादि वैदिक कर्म ही कर्म है। भगवद्गीता के अनुसार निष्काम भाव से किया हुआ कोई भी कार्य कर्म है। भगवान् कृष्ण ने कहा है निरन्तर कर्म करते रहो, आपका धर्म फल की चाहना न रखते हुए कर्म करते रहना ही है। गीता का प्रधान उपदेश कर्म में अनासक्ति है। श्वास लेना, खाना, देखना, सुनना, सोचना सब कर्म हैं।
अपने गुरु या किसी महात्मा की सेवा कर्मयोग का सर्वोच्च रूप है। इससे आपका चित्त जल्दी शुद्ध हो जावेगा। उनकी सेवा करने से उनके दिव्य तेज का आप के ऊपर बड़ा प्रभाव पड़ेगा। आपको उनसे दैवी प्रेरणा प्राप्त होगी। शनैः शनैः आप उनके सद्गुणों को ग्रहण कर लोगे।
श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज
अखण्ड ज्योति, मार्च 1955 पृष्ठ 6
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