Magazine - Year 1940 - Version 2
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धर्म तत्व का वैज्ञानिक महत्व
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(ले.-श्री पं. हंसराज शास्त्री, लुधियाना)
वर्तमान समय के इस वैज्ञानिक युग में पाश्चात्य शिक्षा दीक्षित नवयुवकों के हृदय प्रदेश से धर्म भावना तो लुप्त प्रायः हो रही है वे धर्म को एक प्रकार का कृत्रिम या कल्पित पदार्थ मान रहे हैं। परन्तु वस्तु स्थिति इससे सर्वथा विपरीत है अर्थात् धर्म यह कोई कृत्रिम या कल्पित वस्तु नहीं किन्तु धर्म त्रैकालिक सनातन ध्रुव सत्य है, इसी प्रकार वह धर्म प्राकृतिक जड़वस्तु भी नहीं किन्तु अपने स्वरूप से आभासित होने वाला चैतन्य प्रकाश है, वर्तमान समय में हमारे नव शिक्षा दीक्षित नवयुवकों के सन्मुख धर्म का जो स्वरूप उपस्थित हो रहा है वह उसका वास्तविक स्वरूप नहीं, वह तो उसका अत्यन्त विकृत निकृष्ट स्वरूप है। क्या ही अच्छा होता यदि हमारे नवयुवक साम्प्रदायिकता के बीच में मलिन हुए इस धर्मतत्व की अवहेलना करने के स्थान में उसके निरमल स्वरूप की खोज के लिये प्रयत्न करते। परन्तु भारत का ऐसा सौभाग्य कहाँ ?
आज भारत वर्ष में जितने भी सम्प्रदाय, मत या पन्थ धर्म के नाम से प्रचलित हो रहे हैं उनमें धर्म तत्व का न्यूनाधिक रूप में कुछ न कुछ आभास तो है, परन्तु मानव समाज की विकट प्रकृति में प्रविष्ट होने वाले साम्प्रदायिक व्यामोह ने उनमें रहा-सहा धार्मिक अंश भी खो दिया है। जिस प्रकार आकाश से बरसने वाला सरस और स्वादिष्ट जल, धूलियुक्त पृथ्वी से मिश्रित होकर अपनी स्वभाव सिद्ध सरसता को खो बैठता है इसी प्रकार विभिन्न सम्प्रदायों में प्रतिबिंबित होने वाले धर्मत्व को भी साम्प्रदायिकता के अशुद्ध वातावरण ने अस्पृश्य एवं दूषित बना दिया है। किसी अमुक एक देशी विचार को सर्व सत्य मान कर उसके लिये दुराग्रह करना साम्प्रदायिकता कहलाती है तथा इसी का दूसरा नाम मतान्धता है। अतः इस मतान्धता और साम्प्रदायिकता के गन्दे संपर्क से धर्म रूप गंगोदक को सदा बचाये रखने का प्रत्येक धर्म पिपासु को प्रयत्न करना चाहिये।
यद्यपि सम्प्रदायों या पन्थों के विशाल मन्दिर की आधार-शिला धर्म तत्व की सुदृढ़ चट्टान पर ही स्थापित हुई है, और उनके प्रवाह का मूल स्रोत भी धर्मतत्व को ही कहा वा माना जा सकता है। तथापि ये सम्प्रदाय उत्पन्न होते हैं और विनष्ट हो जाते हैं। अर्थात् इनकी उत्पत्ति और विनाश का सिलसिला सदा जारी रहता है। इतिहास इस बात का साक्षी है, परन्तु धर्म इससे सदा विपरीत स्वभाव वाला है, वह अविनाशी अर्थात् उत्पत्ति और विनाश इन दोनों से परे है। इसके अतिरिक्त धर्म एक अथवा अभिन्न है। इसलिये उसमें समानता है और सम्प्रदायों में अनेकता अथवा विभिन्नता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है अतएव सम्प्रदायों में पारस्परिक संघर्ष की सदा ही संभावना बनी रहती है। और कभी-कभी तो यह संघर्ष इतना भयानक रूप धारण कर लेता है कि दावानल की तरह अपने उद्गम स्थान को भी समूल रूप से भस्मसात् कर देता है, वर्तमान समय के सत्य विघातक शास्त्रार्थ और घासलेटी साहित्य का पोषण इसी के सुचारु फल हैं। विपरीत इसके धर्म के साम्राज्य में इस संघर्ष को स्थान ही नहीं क्योंकि वह एक है अतएव उसमें शाँति है, प्रेम है और सम्वेदना है। धर्म आत्मस्पर्शी होता है और सम्प्रदाय कूप जीवी है! इसी प्रकार धर्म सर्वदेशी और सम्प्रदाय एकदेशी होते हैं। परन्तु इतना अन्तर होने पर भी इनको धर्म से सर्वथा पृथक नहीं किया जा सकता, धर्म से सर्वथा पृथक होने पर इनका अस्तित्व ही नहीं रहता। तात्पर्य कि जिस प्रकार घटे शराब आदि की मृतिका से और कटक कुण्डलादि की सुवर्ण से पृथक सत्ता केवल नाम मात्र के लिये है, अर्थात् सर्वथा अलग होकर वे अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख सकते। इसी प्रकार सम्प्रदाय मत या पन्थ भी धर्म से सर्वथा पृथक होकर जीवित नहीं रह सकते।
भारत वर्ष में धर्म के नाम पर प्रचलित होने वाले जितने भी मतमतान्तर हैं वे सब धर्म रूप प्रकृति की ही विकृतियाँ हैं, धर्म रूप महान वृक्ष की ही शाखा प्रति शाखायें हैं, और संक्षेप में कहें तो ये सब विभिन्न रूप में धर्म के संकुचित रूप हैं। इसलिये धर्म इन अत्यन्त संकुचित और एक देशी रूपों को ही सम्पूर्ण रूप से धर्म मान लेने की किसी भी साक्षर को भूल न करनी चाहिये। ये तो धर्म के एक बहुत छोटे-छोटे स्वरूप हैं, हाँ! यदि इनको समन्वय दृष्टि-उदारदृष्टि से समन्वित किया जाय अथवा ये स्वयं ही एक दूसरे के सन्मुख होने की उदारता दिखलायें तब तो ये धर्म के पोषक और अभिवर्धक अवश्य हो सकते है।
धर्म का वास्तविक उद्देश्य, मानव जीवन (मनुष्यत्व) का पूर्णतम विकास है, मनुष्य के ऐहिक और पारलौकिक अभ्युदय का एक मात्र साधन धर्म को ही स्वीकार किया गया है। कितने पाश्चात्य शिक्षा दीक्षित विद्वान धर्म को कृत्रिम और कल्पित वस्तु मानते हुये कहते हैं कि धर्म की आवश्यकता उतने समय तक ही हैं जब तक कि यह मनुष्य अज्ञान दशा जंगली हालत से निकल कर सुधार दशा यानी सभ्यता को प्राप्त नहीं करता। इसलिये सभ्यता प्राप्त करने के बाद इसकी कोई आवश्यकता नहीं रहती अर्थात् विद्वानों के लिये यह धर्म निरर्थक ही हैं। परन्तु विचार करने पर उनके इस कथन में कोई सार प्रतीत नहीं होता, यदि धर्म मात्र को अज्ञान और कल्पना का ही परिणाम मानें तो ज्ञान की अभिवृद्धि के साथ-साथ उनका भी विनाश हो जाना चाहिये, किन्तु वस्तु स्थिति इसके विपरीत है, अर्थात् मनुष्य में जैसे जैसे ज्ञान की अभिवृद्धि होती है वैसे-वैसे उसकी धर्मवृत्ति अधिक तीव्र सतेज और गम्भीर होती जाती है। इसलिये धर्म यह कोई कृत्रिम या कल्पना प्रसूत पदार्थ नहीं किन्तु अखण्ड और अबाधित सत्य है तथा मानव समाज का कल्याण उसी पर अवलम्बित है।
धर्म यह वस्तु का स्वभाव है अथवा यूँ कहिये कि वस्तु का जो स्वभाव है वही उसका धर्म है, (परन्तु स्वभावो धर्मः)उसके बिना वस्तु का अस्तित्व ही नहीं रहता, अग्नि के उष्णता और प्रकाश ये दो स्वभाव हैं। और उनके बिना जैसे अग्नि का अस्तित्व स्थिर नहीं रह सकता (कारण कि ये दोनों उष्णता और प्रकाश उसके धर्म हैं) इसी प्रकार धर्म के बिना कोई भी पदार्थ अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख सकता। आत्मा सत चित और आनन्द स्वरूप है क्योंकि सत चित और आनन्द उसके धर्म हैं। इससे सिद्ध हुआ कि धर्म के बिना धर्मों की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। किंतु धर्म के द्वारा ही वह अपने अस्तित्व को स्थिर किये हुए है, अतः सम्पूर्ण विश्व को धारण करने वाला एक विशिष्ट तत्व है जो कि धर्म के नाम से विख्यात है। इसी वैज्ञानिक सत्य की ही दार्शनिक परिभाषा में सनातन तत्व या सनातनधर्म के नाम अविहित किया जा सकता है।
तब धर्म की, जीवन शुद्धि के लिए नैतिकता के लिए कितनी आवश्यकता है तथा विश्व की व्यवस्था में उसकी कितनी असाधारणता है इस बात का निर्णय तो धर्म का उद्देश्य समझ लेने पर ही हो जाता है। परन्तु फिर भी संक्षेप से यहाँ पर कुछ लिख देना आवश्यक सा प्रतीत होता है। मनुष्य को स्वाभाविक रूप से ज्ञान के प्रकाश की, कर्तव्य-भावना की और आत्मबल की आवश्यकता रहती है। इसके बिना मानव जीवन के वास्तविक उद्देश्य की सिद्धि नहीं हो सकती। इन तीनों की प्राप्ति का मुख्य साधन यदि कोई है तो वह धर्म ही है इसी प्रकार जीवन की नैतिकता के लिये अर्थात् जीवन को नीतिमय बनाने के लिये भी धर्म की ही नितान्त आवश्यकता है। उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि जीवन को नीतिपूर्ण बनाने के लिये केवल नीति शास्त्र का ज्ञान मात्र ही पर्याप्त नहीं किंतु उसमें धार्मिकता भी अपेक्षित है, अन्यथा नीति का ज्ञान होते हुये भी प्रलोभनों के वश में आकर कभी 2 मनुष्य अनर्थ में भी प्रवृत्त हो जाता है ऐसी अवस्था में यदि मनुष्य के पास धर्म का बल न हो तो उसके पतन में देरी नहीं लगती अतः नैतिक भावना को स्थिर रखने तथा व्यवहार में उसका आदर्श स्थापित करने के लिए धर्म अथवा धार्मिकता की नितान्त आवश्यकता है तथा यहाँ पर केवल नीति और धर्म के अन्तर को भी समझ लेना आवश्यक है। नीति और धर्म में इतना अन्तर है कि नीति के पीछे भय, स्वार्थ तथा अन्य प्रलोभनों का भी कभी-कभी आधिपत्य होता है। परन्तु धर्म इनके संपर्क से सदा पृथक रहता हैं अर्थात् धर्म के साम्राज्य में इनका भय स्वार्थादि प्रलोभनों का कदापि स्थान नहीं है। अर्थात् जो नियम या कर्तव्य भय अथवा स्वार्थ मूलक हों वह नीति, और जिसमें भय अथवा स्वार्थ का अवकाश न हो किन्तु जिस नियम का केवल कर्तव्य बुद्धि से ही पालन किया जावे वह धर्म कहलाता है। इसी प्रकार मानव समाज में भ्रातृत्व और आत्मबन्धुत्व की भावना को तथा हृदय की विशालता को विकास में लाने के लिए भी धर्म के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं है परन्तु हृदय की यह मधुर भावना बुद्धि का विषय नहीं वह तो अनुभवगम्य है। केवल पुस्तकों के पढ़ लेने और विज्ञान की कोरी चर्चा मात्र से भी इसकी उपलब्धि नहीं हो सकती, इस मधुर भावना की वीणा की झंकार तो धर्म के शाँत प्रदेश में ही सुनाई दे सकती हैं। जिसका मूर्तस्वरूप मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षादि भावनाओं तथा अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच यर्मों में व्यक्त हो रहा हैं। इसके अतिरिक्त जीवन का अन्त अर्थात् इस देह के नाश होने पर अवशिष्ट रहे हुए आत्मा की उत्तरोत्तर उन्नति के लिए भी धर्म के सिवा अन्य कोई उपाय नहीं है। परलोक, अथवा उसके स्वरूप विषयक दार्शनिकों का मतभेद भले ही हो परन्तु देहावसान के अनन्तर चेतन रूप आत्मा की कोई न कोई अवस्था तो अवश्य माननी पड़ेगी और उस अवस्था की उत्तरोत्तर उन्नति भी अपेक्षित है तब एक मात्र धर्म के सिवा और किस मार्ग के द्वारा इसका होना सम्भव हो सकता है? अतः पारलौकिक अभ्युदय का एक मात्र साधन धर्म ही सिद्ध होता है। अतएव मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाऊंगा? तथा यह विश्व क्या है? इसका मूल कौन और कहाँ है? एवं उसके साथ मेरा कोई सम्बन्ध भी है या नहीं? यदि है तो क्या और कैसे? इत्यादि जटिल प्रश्नों का जैसा स्पष्ट और संतोषप्रद उत्तर हमको धर्म से प्राप्त हो सकता है कैसा शुष्क तर्क या कोरे विज्ञान से कभी प्राप्त नहीं हो सकता! अधिक तो क्या, हम क्या जीवित हैं? तथा दूसरों का भला हम क्यों करें, इससे हमको क्या लाभ? इत्यादि प्रश्नों का उत्तर भी आप को धर्म की पाठ्य पुस्तक से ही मिलेगा, विज्ञान में इतना दम नहीं कि वह इस क्यों? के सामने डटा रहे! साराँश कि जीव आत्मा जगत और परमात्मा आदि के स्वरूप निर्णय में जो स्पष्टता और उदारता पाठकों को सनातन धर्म तत्व में उपलब्ध होगी वह किसी मत या सम्प्रदाय अथवा पंथ में दृष्टिगोचर नहीं हो सकती। इसलिये धर्म का जो सनातन तत्व है वह कृत्रिम नहीं किन्तु अबाधित और ध्रुव वैज्ञानिक सत्य है।