Magazine - Year 1940 - Version 2
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Language: HINDI
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चंचल मन और उसका संयम
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(ले0-श्री0 रामसिंह जी चौहान, आँवलखेड़ा)
मन की चंचलता कितनी तीव्र और दुर्दमनीय होती है यह विगत अंक में बताया जा चुका है। अस्थिर मन ऐसा बेलगाम घोड़ा है जो मनुष्य को कहीं भी ले जा कर पटक सकता है। बुरे से बुरे परिणाम सामने उपस्थिति कर सकता है जीवन संघर्ष को इतना कटु बना सकता है कि आदमी जिन्दगी को भार समझ कर ईश्वर से मृत्यु प्रदान करने की प्रार्थना करे। आदतों से मजबूर, बीमारी के बंधनों में जकड़े हुए और अपने ही कृत्यों से जिन्दगी को नरक तुल्य बनाये हुए लोगों को देख कर मन के असंयम की भयंकरता सहज ही स्मरण हो आती है।
मन के संयम, चित्त की एकाग्रता का सुन्दर रूप सफलता में दिखाई पड़ता है। जिन कामों में सफलता दिखाई पड़ती है, उनकी जड़ में मनोनिग्रह है। बिना पूरा ध्यान दिये कोई भी कार्य नहीं हो सकता। महान कार्यों की जड़ में एक मात्र दृढ़ लगन और चित्त की स्थिरता होती है। छोटे-मोटे कार्यों की पूर्णता भी पूरा मनोयोग चाहती है। हमारे प्रतिदिन के कार्यों को सफल और सरल बनाने के लिये ही मनोयोग की जरूरत हो सो बात नहीं, योग जैसे महान कार्य का संपादन भी मन के संयम के आधार पर ही होता। महर्षि पातंजलि ने तो चित्त वृत्तियों के निरोध को ही योग माना है। एक शब्द में यों कहा जा सकता है कि मन का संयम ही मनुष्य को देवता और ईश्वर बना सकता है।
यह मनोनिग्रह किस प्रकार किया जाय गीता में इस विषय का प्रतिपादन संक्षेप में और बड़े उत्तम ढंग से किया गया है। भगवान कृष्ण ने जब अर्जुन को मन के संयम का महत्व बताते हुए उसे करने को कहा तो अर्जुन को बड़ी कठिनाई मालूम हुई। उसने पूछा भगवान, मन तो वायु के समान चंचल है उसका संयम तो असंभव है। अर्जुन जैसी कठिनाई पाठकों के सामने भी उपस्थित हो सकती है। मन अभी यहाँ है तो अभी वहाँ पहुँचता है। क्षण में बंबई है तो क्षण में कलकत्ता। पलक मारते पृथ्वी भर को प्रदक्षिणा कर आता है। उस अत्यंत सूक्ष्म चेतना का निग्रह किस प्रकार हो सकता है? यह एक असंभव नहीं तो कठिन बात अवश्य है। ठीक भी है, जो जितनी मूल्यवान वस्तु है वह उतनी ही कठिनता से मिलती है। हीरा बहुमूल्य है, इसलिए बड़ी खोज के बाद मिलता है। प्रकृति की दुकान में हर चीज का उचित मूल्य है। उसी के अनुसार मन का निग्रह, कठिन साधना चाहता है। भगवान कृष्ण ने दो ही शब्दों में अनुभवगम्य ज्ञान देकर मनोनिग्रह का उपाय बता दिया है। ‘अभ्यासेनतु कौन्तेय बैराग्ये च प्रहृते।’ हे अर्जुन, वह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है। मन का संयम करने के लिये अभ्यास और वैराग्य से सुन्दर और कोई मार्ग नहीं हो सकता।
उपरोक्त दोनों ही उपाय आपस में संबद्ध हैं। दोनों एक दूसरे से बंधे हुए हैं, एक गाड़ी के दो पहिये हैं दोनों में से कौन सा प्रथम और कौन द्वितीय हो सकता है यह कहना कठिन है फिर भी पाठक वैराग्य को प्रथम मान सकते हैं।
मन है क्या? वास्तव में मन का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। आत्मा की तरह वह अमर नहीं है। इन्द्रियों की सम्मिलित स्फुरणा को मन कहा जा सकता है। कुछ लोग इसे छठी इंद्रिय मानते हैं। जो, हो’ मन है आत्मा का एक उपादान ही। एक विचार के रूप में इसे माना जा सकता है। यदि ऐसा न होता तो मन का निग्रह सर्वथा असंभव हुआ होता। जो आदमी एक वर्ष पहले चोर था अब वह धर्मात्मा कैसे बन गया। जिस आदमी में अनेक दुर्गुण भरे हुए थे आज वह निर्मल किस प्रकार हो गया। आत्मा ने मन को एक स्थान से खींच कर दूसरे कार्य में लगाया है। जब हम चाहते हैं कि व्यभिचार करेंगे तभी मन उसके लिये तरह-तरह के उपाय ढूंढ़ता है। जब चोरी करने की जी में होती है तभी चुराने की तरकीबें सूझ पड़ती हैं। जहाँ लगाम छोड़ी कि मन महाशय मुड़ गये। उछल कूद करते हैं जरूर, पर दो चाबुक लगाते ही ठीक भी हो जाते हैं। ऐसे आदमी ढेरों पड़े हुए हैं जो काम वासना के गुलाम हैं। उन्हें अपनी हविस पूरी किये बिना चैन नहीं पड़ता। पर असंख्य हिन्दु विधवाएं ऐसी मिलेंगी जिन्होंने पति विछोह के बाद स्वप्न में भी पर पुरुष का चिन्तन नहीं किया। अखण्ड ब्रह्मचारी पुरुषों का भी अभाव नहीं है। यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि एक सी शारीरिक शक्ति रखने वाले दो व्यक्तियों में से एक संयमी और दूसरा असंयमी है तो उसका कारण दोनों की मत विभिन्नता ही है। मन स्वतंत्र रूप से कुछ नहीं कर सकता। हम जहाँ चाहते हैं उसे फेंकते हैं। लगाम ढीली छोड़ने पर वह हवा के साथ जरूर बह जाता है पर जहाँ सावधान हुए कि सिर झुकाते भी उसे देर नहीं लगती। मन का निग्रह दुष्कर इसलिये बताया गया है कि सूक्ष्म होने के कारण उसकी चाल बहुत तेज हो जाती है और फिर उसे रोकने के लिये उतना ही कठिन प्रयत्न करना पड़ता है। कुम्हार का चाक जब तेज रफ्तार पर घूम रहा होता है तो वह एक दम बन्द नहीं हो जाता वरन् रोकने के लिये कुछ प्रयत्न और समय की जरूरत होती है। साईकिल का पहिया जब पूरी तेजी से चल रहा हो और ब्रेक ठीक न हों तो साईकिल को रोकने में कुछ प्रयत्न करना पड़ेगा। समय लगेगा। सब से पहले उसे चलाने से वैराग्य धारण करना होगा। पाँव चलाने बन्द करने होंगे। कुम्हार तभी चाक को रोक सकेगा जब समय सर्वप्रथम उसे घुमाने से वैराग्य धारण करे और तत्पश्चात अभ्यास से हाथ का सहारा देकर या कोई और चीज लगा कर उसकी चाल को रोके। केवल वैराग्य से भी मन वश में हो सकता है। घुमाना छोड़ देने पर भी चाक रुक सकता है पर समय कुछ अधिक लगेगा। यदि साथ ही अभ्यास द्वारा रोक भी लगाई जाय तो काम आसानी से और जल्दी दूर हो सकता है।
वैराग्य का तात्पर्य सब ओर से उदासीन हो जाना नहीं है। सब ओर से उदासीन होने का अर्थ तो एक प्रकार से मृतक बन जाना होगा। जो कुछ चाहता नहीं जिसकी किसी कार्य में रुचि नहीं, वह कर भी कुछ न सकेगा। जैसे तैसे उदरपूर्ण कर लेगा और अजगर की तरह साँसें पूरी करता रहेगा। यह एक प्रकार की जड़ता है। ऐसे जड़ वैराग्य की शास्त्रों ने अवहेलना की है और नैतिक तथा सामाजिक दृष्टि से तो यह एक प्रकार का पाप है। फिर मन-संशय के लिये कैसा वैराग्य धारण करना चाहिये? गीता में ही इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान कहते हैं-
“इन्द्रियार्थेषु वैराग्य मनहंकार एव च।”
अर्थात्-इन्द्रिय जन्य विषयों से और अहंकार से वैराग्य करना चाहिये। कुवासनाओं में भटक कर ही मन चंचल होता है। इन्द्रियजन्य भोग बड़े आकर्षक होते हैं। उनमें मन बार-बार दौड़ता है। इन भोगों से तृप्ति नहीं होती वरन् जैसे-जैसे उनका सेवन किया जाता है वैसे ही वैसे आकाँक्षा और प्रबल होती जाती है। तृष्णा पाकर यह अग्नि तीव्रता को ही धारण करती है। इन्द्री भोगों में लिप्त होकर आदमी अन्धा बन जाता है और वास्तविक उद्देश्य एवं कर्तव्य पथ को भूल कर पाप बटोरने लगता है। दुःखों की जड़ यही इन्द्रियों के भोग हैं। गत अंक में बता चुका हूँ कि इन भोगों में लिप्त होकर हम किस प्रकार नष्ट होते हैं कैसी नारकीय यातनायें सहते हैं और कैसे जघन्य कृत्य करते हैं।
इन्द्रियों के भोगों के बाद अहंकार का नम्बर आता है। घमंड, अभिमान, अहंकार, शैतान का रूप है।
असौ मया इदः शत्रु र्हनिक्ष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगो सिद्धोऽहंबलवान्सुखी॥
आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिच्य इत्यज्ञान विमोहिताः॥
यह शत्रु मैंने मार डाला, औरों को भी मारूंगा, मैं ईश्वर हूँ, मैं। ऐश्वर्य भोगने वाला हूँ, मैं सिद्ध हूँ, मैं बलवान हूँ, मैं सुखी हूँ, बड़े कुटुम्ब वाला हूँ, मेरे समान दूसरा कौन है? इस प्रकार का अभिमान अहमन्यता राक्षसों जैसी है। मैं हूँ। यही तो बंधन और अज्ञान है। इन्द्रिय भोग यदि मीठी छुरी है तो अभिमान लतलपाता कुठार है। एक मदिरा है तो दूसरा धतूरा। एक को पीकर मोह निद्रा आती है तो दूसरे को लेकर पिशाच बन जाता है। दोनों एक दूसरे से भयंकर हैं। “काम एव क्रोध एव..............” काम और क्रोध दो ही तो महापापी है। इन्हें ही तो बैरी समझना है।
गीताकार का तात्पर्य इसी काम क्रोध से वैराग्य धारण करने का है। अहंकार और वासनाओं के ग्राहों से बचे बिना भव सागर कैसे पार किया जा सकता है? जब तक इन दोनों से मुँह न मोड़ा जाय तब तक लौकिक और पारलौकिक कोई भी उन्नति न हो सकेगी। कामी विषय लोद्धप और अभिमानी किसी महान कार्य का साधन करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। उन्हें अपनी भीतर जलन बुझाने से ही फुरसत नहीं फिर दूसरी तरफ कौन देखे? किसी महान अनुष्ठान का सरंजाम कौन जुटावे?
मन का संयम करने के लिये इसी वैराग्य की आवश्यकता है, जिससे कुविचारों का पहिया रुक जाय और चित्त शान्त होकर एक स्थान पर ठहर सके। बिना वैराग्य के मनो निग्रह के अन्य साधन ऐसे हैं जैसे मोटर को तेज चाल से चलाते हुए उसे रोकने के लिये रास्ते में कंकड़ पत्थर डालना। उन उथले प्रयत्नों से मोटर टूट सकती है पर रुक नहीं सकती। पानी की तेज धारा, उसका मूल स्रोत रोकने से ही बंद हो सकती है रास्ते में मिट्टी की मेंढ़ लगाने से नहीं।