Magazine - Year 1940 - Version 2
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Language: HINDI
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ईश्वर कहाँ है?
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(ले.-श्री व्यंकटलाल पुरोहित, खिलचीपुर)
ईश्वर को मानने और न मानने वाले आदमियों में ऐसी एक बड़ी संख्या मिलेगी जो ईश्वर अमुक स्थान पर है अमुक स्थान पर नहीं इसी प्रश्न को लेकर एक बड़ा मत-भेद उपस्थित है और अपने अपने पक्ष का समर्थन कर के लोगों को भ्रम में डालते हैं। खुदा सातवें आसमान पर रहता है और भगवान विष्णु क्षीर सागर में शेषजी की शैय्या पर विराजमान हैं यदि कोई इन बातों को मानने से इनकार करता है तो उसे धर्म द्रोही या नास्तिक नहीं कहा जा सकता। ईश्वर के संबंध में उपरोक्त प्रकार के वर्णन जिन धर्म शास्त्रों में आये हैं वहाँ अलंकारिक भाषा का प्रयोग हुआ समझना चाहिए अन्यथा ईश्वर भी एक व्यक्ति विशेष ही रह जायगा और उसमें सत् चित् आनन्द का अभाव मानना पड़ेगा। वह ऊपर क्षीर सागर में रहता है तो क्षीर सागर में किसकी सत्ता है ? सातवें आसमान पर है तो बाकी छह आसमानों पर किसका नियंत्रण है? यही बात तीर्थ आदि के सम्बंध में है । वे स्थान धर्म लाभ के लिए उपयुक्त और सुविधाजनक हो सकते हैं। पर यदि किसी स्थान विशेष पर ही ईश्वर का प्रेम या ममता हो तो उस पर विकारी होने का दोष लग जायगा।
ईश्वर के स्थान, गुण, भक्तवत्सलता आदि के कितने ही विचित्र वर्णन मिलते हैं। असल में वह भक्तों की प्रेम विभोर दशा की भावुकता सब कल्पनाएँ हैं। ईश्वर सम्बंधी किसी धारणा को खंडन करके वैसी भावना रखने वाले भक्तों के कोमल हृदयों को चोट पहुँचाने का हमारा मन्तव्य नहीं है। हम तो यहाँ केवल उसी एक बात का प्रतिपादन कर रहे हैं जिसे किसी न किसी रूप में अन्ततोगत्वा सब लोग मानते हैं। ईश्वर हमारे अपने अन्दर है सब लोग जानते हैं और मानते हैं कि जीव ईश्वर का ही अंश है। विकारों का आवरण मकड़ी के जाले की भाँति जीव के वारों ओर इस प्रकार तन गया है कि वह आत्म स्वरूप को पहचान नहीं पाता। उसकी समझ में ही नहीं आता कि वास्तव में वह है क्या? गूलर के फल में रहने वाले जन्तु के मन की कल्पना कीजिए। क्या यह आत्मस्वरूप को जानता होगा? फल के आवरण ने जब तक उसे दुनिया से अलग कर रखा है तब तक वह छोटा कीड़ा अपने को हाथी समझ सकता है, ब्रह्माण्डों का राजा समझ सकता है, रजकण समझ सकता है या चाहे जो समझ सकता है। उसे आत्मस्वरूप की जानकारी तभी होगी जब वह बाहरी दुनिया के बारे में अधिक जानकारी रखे। जीव भी अपने बारे में विभिन्न कल्पनाएं करता है। कोई अपने को धोबी समझता है तो कोई ब्राह्मण कोई कलक्टर है तो कोई पटवारी, कोई एम.ए. है तो कोई निरक्षण कोई ईसाई है तो कोई हिन्दू, यह सभी जानकारियाँ भ्रमपूर्ण हैं। जीव जानता है कि अपने सम्बंध में मुझे यह जो जानकारी है वह पूर्ण और निर्भ्रांत नहीं है, इसलिए शान्ति उपलब्ध नहीं कर पाता। हरदम उसे वही जिज्ञासा सताती रहती है कि ‘मैं हूँ क्या?’ दुनिया के बंधन हमें भुलाते हैं, माया बहकाती है कि अरे क्या रखा है इस व्यर्थ की बातों में, काम काज की फिक्र करो, इस सोच विचार में कुछ होना जाना नहीं है। साँसारिक बंधन एक प्याला पिला कर चुपके से कहते हैं मस्त पड़े रहो यार,क्यों ढूंढ़ खोज में पड़े हो। इन सब भुलावों, बहावों के बीच हमारा व्यापारी मन भूल भी जाता है, पर सत् चित् स्वरूप अन्तरात्मा को आनन्द नहीं मिलता वह आनन्द की प्यास भटकती है। व्यापारी मन यद्यपि खिलौनों पर रीझ रहा है और अन्तरात्मा की पुकार को नहीं सुनता परन्तु फिर भी दुर्दमनीय लालसा किसी प्रकार शान्त नहीं होती, बारहसिंगा कस्तूरी की गंध पाता है और उसे प्राप्त करने के लिए बिना विश्राम लिये दिन रात चारों ओर दौड़ता फिरता रहता है। यही बात हमारी अपनी है। उस ईश्वरीय आनन्द की तलाश में मन भटकता है। चारों ओर चौकड़ी भरता है। क्षण भर के लिए भी विश्राम नहीं लेता। सब तरह की मनोहर चीजें दिखाई पड़ती है पर उसे अपनी इच्छित वस्तु दिखाई ही नहीं पड़ती ।
मन बड़ा चंचल है। क्षण भर भी एक चीज पर नहीं टिकता। अभी यहाँ की सोच रहा है तो अभी वहाँ का विचार करने लगा। अभी कविता करने में लाभ हुआ था, तो अभी हजामत बनाने को याद आ गई। वही चित्त की छलाँगें हैं। बारहसिंगे को कहीं चैन नहीं। हर घड़ी ढूंढ़ खोज, ढूंढ़ खोज। चित्त की यह चंचलता आत्मस्वरूप को देखने के लिये है। जिसने आत्मस्वरूप को देख लिया उसे आनन्द की उपलब्धि हो गई। जिसने अपने को पहचान लिया उसने ईश्वर को पकड़ लिया। ईश्वर अपनी आत्मा में समाया हुआ है। इससे निकट और इससे सरलता के साथ उसे कहीं अन्यत्र नहीं पा सकते। ईश्वर दर्शन का निकटतम और निरापद स्थान अपने ही अन्दर है।
अपने अन्दर हम उसे खोजें तो वह अवश्य मिलेगा। यह कोई कल्पना या भुलावा नहीं है। ध्यान दीजिए, पहचानने की कोशिश कीजिए आपको अपने अन्दर हंसता खेलता बात चीत करता रोता गाता ईश्वर दिखलाई पड़ेगा। वह हर मामले में बिना पूछे अपनी सलाह देता है, कोई काम करते ही उसकी भलाई बुराई बताता है और काम पूरा होने पर कहता है कि मैं इससे प्रसन्न हूँ या अप्रसन्न, जब वह हमारे ऊपर अपना स्नेह और रोष प्रकट करता है तब भी हमें स्पष्ट दिखाई दे सकता है। यह दर्शन करने के लिए अपनी आँखों पर बंधी हुई पट्टी को खोलनी पड़ेगी,अपनी निगाह का धुँधलापन हटाना पड़ेगा ईश्वर की आवाज सुनने और उसके स्वरूप का दर्शन करने के लिए किसी विशेष साधन की जरूरत नहीं केवल अपने अन्दर तीक्ष्ण दृष्टि फेंकने की जरूरत है। जिसने ईश्वर दर्शन के मार्ग पर अग्रसर होने का निश्चय किया उसे पग-पग पर उस सच्चिदानन्द की झाँकी अधिक स्पष्ट होती गयी।
जब चोरी करने जाया जाता है तब अन्दर से आवाज आती है यह बुरा काम है, मत करो, इसे मत करो। अब चोरी का विचार मन में आता है उसी क्षण से ईश्वर चिल्लाता है ‘यह पाप है’ जब चोरी के लिए कदम बढ़ाते हैं तो अन्तर में बैठा हुआ वह न्यायाधीश कुहराम मचाता है कि अरे भाई मान अब भी मान यह कुहराम इतना तीव्र होता है कि शरीर की सारी दीवारें गूँजने लगती हैं। दिल धड़कता है, पैर काँपते हैं। पर हम उस पर ध्यान न देकर मदोन्मत्त होकर उसी दुष्कर्म में प्रवृत्त हो जाते हैं। चोरी कर चुकने के बाद ईश्वर धिक्कारता रहता है ‘दुष्ट तूने बुरा किया’ बहुत देर तक यही आवाज आती रहती है। जैसे अदालत के सामने खड़ा हुआ अपराधी काँपता रहता है उसी प्रकार मन डर के मारे थर-थराता रहता है और बेचैनी छाई रहती है। यही ईश्वर की आवाज है। पर क्या हम उसे सुनने को तैयार रहते हैं? क्षण क्षण पर हम उसे कुचलते रहते हैं। उससे बचने के लिये कानों में रुई लगाते हैं। अक्सर चोर, डाकू दुराचारी, लम्पट अपना पा कर्म करने से पूर्व शराब, चरस आदि मादक दृव्य पीकर मदहोश हो जाते हैं ताकि वे ईश्वर की आवाज न सुन सकें और अपना काम बिना डरे झिझके कर सकें।
जब कोई शुभ कार्य हम से बन पड़ता है। निस्वार्थ भाव से किसी की सेवा सहायता करते हैं, दान देते हैं, परोपकार करते हैं तो एक प्रकार का विशेष संतोष और आनन्द सा हृदय के अन्दर मालूम पड़ता है। यही ईश्वर की तुष्टि है। मानो ईश्वर हमारी पीठ ठोंकता हुआ शाबाशी दे रहा है। हर काम के करने में हर समय हमारे भीतर से ईश्वरीय सन्देश मिलता है। जब रास्ते पर से भटकते हैं तो चेतावनी मिलती है। सच्चे मित्र की तरह वह सदैव हमारे पास रहता है और पथ प्रदर्शक का काम करता है।
इसे जिसने पहिचाना वह अमर हो गया। जिसने उस परम पिता का दर्शन कर लिया वह निर्मल हो गया जिसमें उस महार्णव में अपने को नमक की डेली की तरह घुला दिया वह मुक्त हो गया कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है। तीर्थ, वन, पर्वत, नदी, गुफा, एकान्त, मन्दिर, मस्जिद इनमें ईश्वर नहीं है। बड़े अनुष्ठान, पूजा,व्रत, यज्ञ, तप करने से भी उसकी प्राप्ति नहीं होती यदि आप ईश्वर को ढूंढ़ना चाहते हैं, उसका पता पाना चाहते हैं तो अपने अन्दर ढूंढ़ये। देखिये वह आपको गोदी में लेने के लिये कब से भुजा पसारे खड़ा है। भटकिये मत, सीधे चले जाइये और उसके चरणों में अपना सर्वस्व समर्पण कर दीजिए।