Magazine - Year 1940 - Version 2
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Language: HINDI
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ज्यादा बक बक मत करो!
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(ले0-कुँ0 उदयभानसिंह, राजपूत कालेज, आगरा)
कई आदमियों को ऐसी आदत होती है कि उनसे चुप बैठा ही नहीं जाता। हर वक्त वे कुछ न कुछ कहते ही रहते हैं। कहते हैं कि ऐसे लोगों के मुँह में एक प्रकार की खुजली चलती रहती है। कोई काम की बात न हो तो भी व्यर्थ ही इधर उधर की गप्पे उन्हें हाँकनी। कुछ न कुछ कहते रहने से उन्हें काम। ऐसे लोगों में कुछ को मौका देख कर बात करने की आदत होती है। जैसे लोग देखे उनकी इच्छानुसार बात करनी शुरू कर दी, ऐसा प्रसंग आरंभ किया जिसे लोग पसंद करते हों, पर कुछ बिना टाइम गाड़ी छोड़ते हैं। कौन आदमी बैठे हुए है, वे किस बात में कितनी रुचि या अरुचि रखते हैं, किस के पास बात सुनने के लिए कितना समय है, इन सब बातों का विचार किये बिना ही, मन में जो आया कहने लगते हैं। मातम पुरसी के लिए आये हुए लोगों के बीच बैठ कर नींबू के आचार के गुण दोष बयान करने लगने में उन्हें कुछ भी झिझक नहीं लगती। वैद्य की दुकान पर दवा लेने गये हैं पर वहाँ इस बात पर बहस छेड़ रहे हैं कि मलमल का कुर्ता ठीक रहता है या मखमल का। अपने किसी खास काम के लिए कचहरी पर गए हैं किन्तु किसी अपने जैसे ही फालतू आदमी को समझा रहे हैं कि हरक्युलिस साइकल की अपेक्षा हम्बर ज्यादा टिकाऊ होती है।
अपने को वाकपटु कहने वाले बकवासी बात तो मौका देखकर करते हैं पर हाँकते दूने की हैं। वे जानते हैं कि बेकार की बातें सुनने के लिए किसी के पास वक्त नहीं है। और साधारण बातें ऐसी मजेदार नहीं हो सकतीं जिन्हें काम छोड़ कर कोई सुनने बैठे। पर उन्हें अपने मुँह की खुजली मिटानी है इसके लिए कोई साथी जरूर चाहिए। जब तक कोई सुनने वाला न हो तब तक किस से बात करें। इसलिए वे बात को बतंगड़ बनाकर मनोरंजन बनाते हैं। छोटी सी बात को ऐसा रूप देते हैं कि वह बड़ी महत्वपूर्ण या मनोरंजक जंचने लगती हैं। कई तो ऐसी बातें गढ़ते है कि जहाँ सुई नहीं होती वहाँ हल खड़ा कर देते हैं, तिल को ताड़ बना देना उनके बाएं हाथ का खेल हैं। घर से निकल कर चाहे पड़ौस का शहर नहीं देखा है पर बात विलायत की पूछ लीजिए। कही सुनी बतावें सो भी नहीं, हर बात में अपने को शामिल कर देंगे। मैंने उस साल दिल्ली में यह देखा। बम्बई के बाजार मुझे पसंद नहीं आये। रंगून के लिए जाने वाले जहाज अब तो अच्छे बन गये हैं पहले बहुत खराब थे। सैर करने और घूमने की बात कहते हों सो नहीं। हर मामले में अपनी टाँग अड़ाते हैं। राजनीति की बात भी कहेंगे और चिकित्सा शास्त्र की भी। अपने अधूरे ज्ञान को पूरा समझ कर उसी पर अभिमान भी करते हैं और समझते हैं कि हम जो कह रहे हैं पूर्ण ज्ञान के आधार पर कह रहे हैं। ऐसे वाचाल लोगों में अनेक प्रकार के घातक दुर्गुणों का समावेश हो जाता है। कभी-कभी तो बकवासी ऐसे नये दुर्गुण दे देती है, जिनसे आदमी का जीवन ही धूलि में मिल जाता है।
मैं एक ऐसे लड़के को जानता हूँ जिसे बकवासी ने शेखी खोरी विरासत में दी है। आरंभ में इस लड़के को ज्यादा बातें करने की आदत थी। बाद को उसे अपने बारे में कुछ भ्रम पूर्ण धारण हो गई। वह झूँठ-मूठ अपने को बड़ा आदमी समझने लगा और अपनी वास्तविक स्थिति को स्वयं कई गुनी समझने लगा, और दूसरों को भी वैसी ही बताने लगा। आजकल वह एक छोटा सा काम कर के किसी प्रकार अपना गुजारा चलाता है पर अपनी स्थिति को बिना पूछे कम से कम पचास गुनी कहता हैं। यह शेखी खोरी कई बार एक भयंकर पागलपन के रूप में लोगों के सामने आती हैं और उन्हें यह सोचने ही नहीं देती कि वे किस स्थिति में हैं। और इससे आगे पीछे किस प्रकार चल सकते हैं। जो अपनी स्थिति के बारे में ठीक समझते हैं वे भी अपनी मानसिक दशा के बारे में भ्रम में रहते हैं, समझते हैं कि मैंने लोगों को कैसा उल्लू बनाया। लोगों को चकमा देकर अपनी बातों पर कैसा विश्वास करवा लिया। किन्तु जैसा वह समझता है बात उस से उल्टी होती है। दूसरे लोग उसकी बातों को न तो झूठ समझते हैं और न सच। कहने के लच्छेदार ढंग से मनोरंजन करने के लिए उसकी बात सुनते हैं और जब विनोद के लिए वक्त नहीं रहता तो अधूरी बात को ही छोड़ कर चले जाते हैं। वास्तविकता और बनावट को पहचानने में उन्हीं लोगों को कठिनाई हो सकती है जो बिल्कुल बुद्धिहीन हैं जो थोड़ी सी भी समझ रखता है वह आसानी से ताड़ सकता है इस बात में कितनी अस्वाभाविकता है और कितना झूठ मिलाया गया है।
जब आदमी स्वयं भ्रम में रहने लगता है तो वह अपने सम्बन्ध की अन्य जानकारियों से भी वंचित हो जाता है। अपने को कुछ का कुछ समझने लगता है, ऐसी भ्रमपूर्ण स्थिति में पड़े रहने के कारण उसके मस्तिष्क की स्थिति भी कुछ विचित्र हो जाती है। अपनी और दूसरों की वास्तविक स्थिति का ज्ञान न होने की दशा में किसी प्रकार की सफलता प्राप्त करना असंभव नहीं तो कष्ट साध्य अवश्य है। बातूनी आदमी प्रायः ऐसे ही मानसिक झमेले के शिकार पाये जाते हैं।
अधिक बातें बनाने वाला हमेशा सच नहीं बोल सकता क्योंकि सच बातें इतनी ज्यादा होती ही नहीं कि आदमी हर समय उन्हें कहता ही रहे और वे समाप्त ही न हों। छाछ को जब बढ़ाया जाता हैं तो उसमें पानी मिलाना पड़ता है। बकवास में झूठ का होना स्वाभाविक ही है। इस प्रकार एक बुराई व्यर्थ सिर पर चढ़ती है। अपना कोई लाभ नहीं होता। इतनी देर की सिर खप्पी के बदले कुछ लाभ होता है सो बात भी नहीं है। चुप बैठे रहते तो वह तो लगता कि हम बेकार बैठे हुए है, समय का व्यर्थ गवाँ रहे है इसका कुछ सदुपयोग करें। गप्पे समय को व्यतीत कर देती हैं और उसे यह भी मालूम नहीं हो पाता कि मेरा कितना समय व्यर्थ चला गया।
कुछ लोग समझते हैं कि बातूनी होने के कारण दूसरों पर हम अपना असर डाल लेते हैं और वे हमें बहुत सुयोग्य चतुर एवं बुद्धिमान समझते हैं। परन्तु सही बात यह नहीं है। जिनका स्वभाव उदासीनता लिये हुए होता है वे तो ऐसे लोगों की मन ही मन उपेक्षा करते हैं, एक बला की तरह समझते हैं। और जिनका स्वभाव सतर्क होता है दूसरों के गुण दोषों की परख करके उसके संबंध में कोई निश्चित धारणा बनाते हैं वे ऐसे लोगों को घृणा करते हैं। ठीक भी है जो केवल झूठे मनोरंजन के लिए अपने को और दूसरों को भ्रम में डाले, अपना और दूसरों का कीमती समय बर्बाद करे और व्यर्थ का झूठ बोले उससे घृणा के अतिरिक्त और किया ही क्या जाय? यदि बातूनीपन के साथ-साथ झूठी आत्मप्रशंसा या अपने को बहुत बड़ा समझने की आदत है तब तो रोगी लाइलाज है। उसे संक्रामक रोगजन्तु समझ कर पास न बैठने देने में ही कल्याण है।
शक्ति का अपव्यय, बातूनीपन की सबसे बड़ी हानि है। हम नहीं समझ कि बात करने में हमारी कितनी ताकत खर्च होती है। शब्द के साथ शरीर की बिजली भी निकलती है। मस्तिष्क की सूक्ष्म शक्तियों को बातचीत के सिलसिले में पूरी तरह मशगूल रहना पड़ता है। कल्पना, स्मरण, चरित्र चित्र, घटना संतुलन, साथी का चित्र परीक्षण, घटना में मनोरंजन का पुट, आत्मश्लाघा, असत्य को छिपाने का प्रयत्न यह सब कार्य मस्तिष्क की विभिन्न शक्तियों को बड़ी तेजी, फुर्ती और मेहनत के साथ करने पड़ते हैं। इतने बड़े परिश्रम का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाय तो पता लगेगा कि इस कार्य में प्रचुर परिमाण में अपनी व्यक्तिगत विद्युत शक्ति नष्ट हुई है। उस समय प्रत्यक्षतः लोग यह नहीं समझ पाते कि उस अपव्यय से उनकी कुछ हानि हुई है पर बाद में यह हानि बड़ी दुखदायी होती है। जरूरी कामों के लिए उनके पास शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ बची नहीं रहतीं। जिसने अपने घड़े में छेद कर रखे हों उसे प्यास के समय बगलें ही झाँकनी पड़ेंगी। शरीर कमजोर हो गया है बुद्धि काम नहीं करती है, इन समस्याओं के पीछे यही अपव्यय छिपा होता है। निश्चय ही बकवास से जीवनी शक्ति घटती है और आदमी पूरी आयु प्राप्त न करके अधूरी आयु में ही मृत्यु का ग्रास बन जाता है।
इसीलिए मैं कहता हूँ। महाशय, ज्यादा बक बक मत कीजिए। उतनी बातें कहिए जितनी आपके लिए और दूसरों के लिए आवश्यक हैं। कम बोलने में आपके दोष छिपे रहेंगे। अपनी ताकत को जरूरी कामों के लिए संचित करते रहेंगे। सत्य, प्रिय और मधुर बोलिए, कम बोलिए, आप सानंद दीर्घ जीवन व्यतीत कर सकेंगे।