Magazine - Year 1956 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
नरमेध यज्ञ-एक संस्मरण
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(डा॰ काशीनाथ झा, दरभंगा)
‘अमृत पत्रिका’ में नरमेध यज्ञ का समाचार प्रकाशित हुआ था। नरमेध का नाम ही चौंकाने वाला था। आज के युग में, नर-बलि कैसे दी जा सकती है? अथवा सरकार इसे कैसे सहन कर सकती है ऐसे अनेक विचार मस्तिष्क में विद्युत तरंगों की भाँति प्रवाहित हो गये। मित्रों में भी, कई दिन चर्चा होती रही। किन्तु कोई निष्कर्ष पर न पहुँच सके। अन्ततः यह निर्णय किया गया कि गायत्री- तपोभूमि के प्रबंधकों तथा इस यज्ञ के संयोजकों से पत्र-व्यवहार किया जाय ओर इस कार्य के लिये सभी मित्रों ने मुझे नियुक्त किया।
पत्र-व्यवहार का ही परिणाम समझिये कि मैंने मथुरा यात्रा का पुरोगत बना लिया। और भी कई सज्जन मथुरा गमन के उत्सुक थे किन्तु विभिन्न कारणों से वे असफल रहे और केवल तीन व्यक्ति मेरा साथ दे सके। इनमें से एक सज्जन तो पटना के ही रिटायर्ड इंजीनियर थे, अन्य थे वकील साहब और सज्जन एम॰ ए॰ (दर्शन) के एक विद्यार्थी थे।
वकील साहब तथा इंजीनियर साहब तो पहिले से ही गायत्री संस्था से सम्बन्धित थे। उन्होंने पहिले थोड़े बहुत पुरश्चरण आदि भी कर रखे थे। अलबत्ता, शेष (हम )दो व्यक्ति इस क्षेत्र में नवागन्तुक ही थे।
डेढ़ दिन की मनोरञ्जक यात्रा के पश्चात् हम लोग मथुरा पहुँचे। स्टेशन पर ही, यज्ञ के स्वयं-सेवक तैनात थे किन्तु हमने उन्हें किसी भाँति का कष्ट न देकर, अपने आप ही यज्ञ-स्थल तक पहुँचने का निश्चय किया।
हमारा ताँगा अभी चला भी न था कि मथुरा के पंडों ने हमें रोक लिया और आग्रह किया। कि हम तपोभूमि न जाएं। वहाँ तो पानी भी प्राप्त नहीं है। हम चक्कर में पड़ गये और वास्तव में हम उनकी बात मानकर, सम्भवः उन्हीं के घर चले गये होते, किन्तु उसी समय बम्बई से आने वाले गायत्री-भक्तों ने हमें बताया कि ये लोग वैसे ही बहकाते हैं। तपोभूमि कोई कष्टकारक स्थान नहीं है।
तपोभूमि का दृश्य, वहाँ का वातावरण, यज्ञ की सुगन्धि से परिपूर्ण अन्तरिक्ष, कुछ इस प्रकार की वास्तव में” मथुरा तीन लोक से न्यारी ही है।” जिधर देखो, देश-विदेश से एकत्रित गृहस्थ-तपस्वियों, नर-नारियों का विशाल जन- समूह हिलोर ले रहा था।
कुछ नैसर्गिक प्रेरणा रही हो, अथवा केवल वातावरण का प्रभाव हमारे साथी वकील साहब तथा इंजीनियर महोदय तो अपनी भक्ति में तल्लीन हो गये। विशाल गायत्री नगर के कैम्पों से एक कैम्प उन्हें मिल गया था। वे तो अपनी माला लेकर गायत्री मंत्र के पुरश्चरण में तल्लीन हो गये। किन्तु विद्यार्थी जी ठहरे पक्के नास्तिक। बोले, “ चलो घूमें हम तो मनोरंजन के लिये आये हैं”
किन्तु मनोरंजन भी कहाँ? उन्हें तो आलोचना करने से ही फुर्सत नहीं मिल पा रही थी। एक ओर तो हजारों नर-नारी, एक दृढ़ लगन के साथ, सैकड़ों हवन-कुँडों में यज्ञ कर रहे थे, स्वाहा की ध्वनियाँ आन्तरिक में व्याप्त हो रही थीं। घी आदि हवन-सामग्रियों की सुगन्धि मस्तिष्क, नेत्रों तथा आत्माओं का मैल धो रही थी और दूसरी ओर विद्यार्थी जी का मन आशंकित ही था। धार्मिक कर्म कांडों के विषय में आज के बुद्धिवादी लोग कुछ अच्छे विचार नहीं रखते वे भी कुछ उसी प्रकार सोचते थे।
इसी सम्बन्ध में, हमने अनेकों आगंतुकों से बातचीत की। उतनी होशियारी के साथ जैसे कि सफाई पक्ष का वकील करता है। आगन्तुकों में, अधिकाँश व्यक्ति मथुरा के बाहर से ही आये हुए थे। गुजरात से, महाराष्ट्र से, राजस्थान से, पूना से,मद्रास से, बिहार-उड़ीसा से , मध्य प्रदेश तथा मध्य भारत से । कुछ तो दक्षिणी अफ्रीका से भी आये थे। वे ने तो पंडे थे, न सभी कर्मकाँडी पंडित या ब्राह्मण थे वरन् अधिकाँश सद्गृहस्थ थे। वे अकेले नहीं आये थे, उनकी धर्मपत्नी, बच्चे , माँ-बाप आदि भी साथ थे।
विहंगम दृष्टि से ही, हमारा निश्चय बदल गया। इन व्यक्तियों को ढोंग व पाखंड-दिखावे से क्या लाभ? अरे वे तो गायत्री माता के सौम्य उपासक मात्र थे। उन्हें कोई दैवी प्रेरणा ही, आज के युग में (कलयुग-मशीनों के युग में) भक्ति मार्ग पर अग्रगामी कर रही थी।
निःसंदेह, हमारे विद्यार्थी जी काफी झेंपे! बोले, मेरे विचार अभी काफी अपरिमार्जित हैं। शंकाओं ने मेरी बुद्धि भ्रमित करदी थी। वरना, ऐसे भले, पुण्यात्मा व्यक्तियों के विषय में, मैं इस भाँति के विचार न रखता।
पर, मैं समझता हूँ यह उनकी गलती नहीं थी। हमने अपने जीवन में इतने अधिक गृहस्थ तपस्वियों को एक स्थान पर एकत्रित व साधनारत नहीं देखा था। कहने को तो प्रयाग में लाखों ही “साधू” आते हैं, तपस्या भर करते हैं। परन्तु यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि ऐसे ही नामधारी साधुओं ने धर्म में ढोंग को आश्रय देकर, नास्तिकता की विचारधारा को फैलाने में सहायता की है।
प्रथम बार, मैं और मेरे विद्यार्थी साथी, इन पवित्र आत्माओं के सम्मुख नतमस्तक हुए।
** ** ** **
भले व्यक्ति प्रत्येक शुभ कार्य के समर्थक होते हैं। परन्तु कुछ महान् आत्माएं इस पृथ्वी पर इसीलिये अवतार लेती हैं कि प्रत्येक शुभ कार्य में विघ्न डालें। जैसे भी हो, कुछ न कुछ गड़बड़ी की जाय। इसी भाँति के कुछ व्यक्तियों ने अफवाह उड़ाई कि जमुना में बाढ़ आ रही है और सभी कैम्प आदि बह जायेंगे। किन्तु न तो कोई बाढ़ आई और न कोई कैम्प बहा। अगले दिन वे सज्जन अचानक ही हमें मिलें। हमने कहा-महाशय! बाढ़ तो आई नहीं; वे तपाक से बोले “अरे! उन सरकारी मिनिस्टरों ने, जो यज्ञ में आकर सम्मिलित हुए थे, बड़े प्रयत्न से रुकवा दी है। पानी नहरों में काट दिया गया है नहीं तो..........”। बस इससे भी अधिक असत्य भाषण वे न कर सके और नौ दो ग्यारह हो गए।
ऐसे ही कुछ विघ्न संतोषी ईर्ष्यालु लोग स्टेशन पर ही हमारे कान से आ लगे थे। उनने आचार्यजी के विषय में बताया कि “ वह कोई बड़े महन्त हैं। यज्ञों से कमाते खाते हैं, फूलकर मोटे कुप्पा हो रहे है। लाखों रुपये व्यय कर रहे हैं तो मुनाफा भी लाखों ही बटोरेंगे।”
किन्तु आचार्यजी के दर्शन मात्र से यह धारणा हमारे मन से स्वतः ही उड़ गई। आचार्यजी ! कितना सरल, सौम्य और निर्विकार व्यक्ति। तपस्याओं से उनकी एक-एक हड्डी पसली गिनी जा सकती थी। मुखाकृति के तेज-तपोबल ही समझिए- दर्शक की दृष्टि उनके सम्मुख स्वतः ही झुक जाती है। जिसने अपनी समस्त सम्पत्ति, धर्मपत्नी के जेवर और बच्चों के जोड़े हुए पैसे तक गायत्री मिशन को सर्वस्व दान देकर निस्पृह ब्राह्मण का जीवन स्वेच्छा से स्वीकार किया ऐसे देव पुरुषों के लिए ऐसी बातें कहना तो दूर सुनना भी पाप प्रतीत हुआ।
आय-व्यय के रजिस्टर सब के लिए खुले पड़े थे। बाहर से आये हुए गायत्री उपासकों में से ही .कुछ व्यक्ति आय- व्यय का हिसाब-किताब रख रहे थे। आय रसीद बहियों के द्वारा हो रही थी, जिन्हें कोई व्यक्ति भली प्रकार देख और जाँच सकता था। हमारे विद्यार्थी जी को इस विषय में बहुत दिलचस्पी थी, उनकी जिज्ञासा निवारण के लिए हम लोगों ने चार पाँच घंटे हिसाब कि कागजात भी उलटने पलटने में लगाये। मालूम हुआ कि कुल मिलाकर लगभग 17 हजार रुपया पूर्णाहुति के अवसर पर आया। खर्च के कुल पर्चे तो हमने नहीं जोड़े पर इतना अनुमान लगा लिया कि छह हजार आगन्तुकों के लगभग एक सप्ताह तक रहने, हवन करने आदि में प्रति व्यक्ति तीन रुपया के हिसाब से हुई आया की अपेक्षा निश्चय ही अधिक व्यय हुआ होगा । ऐसी दशा में इस यज्ञ से ‘लाभ कमाने ‘ की बात सोचना भी मूर्खता ही होगी।
एक विशेष बात, आचार्यजी के संभाषण में और थी— कि यद्यपि वे हमसे एकाध ही वाक्य बोल पायें, क्योंकि हजारों व्यक्तियों से अधिक बात करना सम्भव ही न था फिर भी उनका प्रत्येक शब्द शुभ गुणों, भक्ति , निर्विकार जीवन की ओर बढ़ने को प्रेरित करत था। इस विषय में नागपुर के एक परिवार से हमारी बातचीत हुई। उन्होंने बताया कि तीन वर्ष पूर्व, मथुरा यात्रा के दौरान में वे आचार्यजी के संपर्क में आये और तभी से उनके जीवन का क्रम ही बदल गया है। वे स्वयं उनकी पुत्र-वधू (24 वर्ष) भी गायत्री माता कि भक्त थीं, और क्योंकि उनका कैम्प हमारे पड़ौस में ही था, हमने देखा कि वे सभी गायत्री मन्त्र की माला फेरते रहते थे। ऐसी आदर्श आस्तिकता स्तुत्य है।
अन्त में विदाई का दृश्य हमारे नेत्रों में नृत्य कर रहा है। छल,कपट,लूटने,मूर्ख बनने आदि के सभी अभियोग, यज्ञ के भागीदारों के अश्रुकणों में मिलकर बह गये। कितना आत्मीयता द्योतक दृश्य था। विदा होते समय, सभी भक्त लोग और आचार्य जी कुछ ऐसा अनुभव कर रहे थे जैसे कि माँ-बेटी बिछुड़ रही हों।
चार गये थे हम, दो लौटे। वकील साहब और इंजीनियर महोदय ने तो यह निश्चय किया कि 1। लाख गायत्री -मंत्रों का पुरश्चरण, कुछ मन्त्र लेखन यज्ञ आदि पूर्ण करने के पश्चात्, हरिद्वार आदि होते हुए, लगभग दो मास बाद घर लौटेंगे।
स्वयं मुझे भी प्रेरणा मिली है। मैंने भी अपने मन में कुछ निश्चय किया है। विद्यार्थी जी, आस्तिक तो नहीं हुए पर गायत्री-महाविज्ञान के पृष्ठों में खोये से रहते हैं। आचार्य जी का आशीर्वाद, यहाँ भी रोज ही हमारे नेत्रों के सम्मुख रहता है। लिखते समय भी मैं उसे आंखें बन्द करके पढ़ रहा है- “ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि प्रदान करें।”