Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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वृत की शपथ (Kavita)
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हंसती कली सुमन की भावा में बोला करती है,
फागुन की बौरें अमराई में मधु रस भरती हैं,
प्राची की अरुणाभ प्रभा में उदित उषा हंसती है,
सपनों के संल्पों में जय की आशा बसती है,
पर यह किसने कहा कि मरुथल भी उपवन बन जाता!
दिव्य ज्योति संदेश लिये यह कौन उतरता आता!!
कहता हुआ कि जगो आज ही तो जगने की बेला,
देखो सम्मुख लगा हुआ हैं जय, जागृति का मेला,
आज खुली नभ की पंखुड़ियां भू पर गंध लगाने,
मत शूलों में भटक पान कर मेरे सति दीवाने,
अधरों पर हो नहीं प्रेम की किन्तु नेम की भाषा!
इतना मधु पी रहे न कोई फिर जगती में प्यासा!!
गाओ युग के साथ, अश्रु की धार न हो एकाकी,
स्वर्ग न माँगो यदि जगती में कहीं वेदना बाकी,
अपनी सारी शक्ति ग्लानि के वश हो यों न मिटाओ,
बहुजन हित,जन-जन के हित में जीवन प्राण लगाओ,
आत्म त्याग ही दिव्य लोक-मंगल का सच्चा पथ है!
यदि क्षण भर भी रुके तुम्हारे वृत भी तुम्हें शपथ है!!