Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्म-ज्ञान की आवश्यकता
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(ले॰- आचार्य श्री गणेशीलालजी महाराज)
जब तक ड्राइवर को यह ज्ञान नहीं होता कि किस मशीन के संचालन से मोटर चलेगी और किसके द्वारा वह ठहरेगी तथा किसके द्वारा उसकी गति का नियंत्रण होगा, वह कुशलपूर्वक मोटर चला नहीं सकता और यदि उसने चलाई भी तो दुर्घटना में निज को, दूसरों को व मोटर को भी साथ ले डूबेगा। ऐसा ही हाल हमारा भी हो सकता है, जो “अपने आप” को पहिचानते नहीं। आत्मा इस जीवन के द्वारा प्रगति की और उन्मुख होता है, किन्तु उसके वास्तविक स्वरूप के प्रति अनभिज्ञ होने की अवस्था में दुर्घटना का ही अंदेशा रहता है, जिसमें अमूल्य जीवन की विनष्टि के साथ आत्मा भी पतन के मार्ग पर चला जाता है और पतित आत्मा अपने कुप्रभाव से अन्य जीवों को भी अपने साथ ले डूबता है।
आत्मस्वरूप के प्रति अनभिज्ञता का एक प्रधान कारण यह भी है कि हमारे देश का बहुत बड़ा हिस्सा ‘अवतारवाद’ में विश्वास करता है। ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत’ के सिद्धान्तानुसार संसार को संकटों से उबारने के लिए स्वयं ईश्वर ही भिन्न- भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न रूप में अवतरित होते हैं। कभी राक्षसों के अत्याचारों को समाप्त करने के लिए “नरसिंह” हुए तो कभी “राम” और “कृष्ण” रूप लेकर उन्होंने संसार की गति को सत्पथ की ओर मोड़ा। इसके सिवाय वे लोग यह भी विश्वास रखते हैं कि वही ईश्वर सृष्टि का कर्ता भी है तथा उसकी मर्जी के बिना धरती का एक भी कण और पेड़ का एक भी पत्ता नहीं हिलता। मनोवैज्ञानिक रूप से सोचें तो इस मान्यता के पीछे साधारण जनता में आत्मविस्मृति व अकर्मण्यता का भाव फलता गया। निज की शक्ति के प्रति अविश्वास समाता गया और यह सोचा जाने लगा कि इस विशाल विश्व में उनका अस्तित्व किसी महत्व का धारक नहीं। इस प्रकार की हीन मान्यता की भावना ने जनता में फैलने वाली सजगता व चेतनता का विनाश किया और उसे यह मानने पर मजबूर किया कि परमात्मा ही सब कुछ है; जो उनकी आत्मा-शक्तियों से परे एक अलग विशिष्टतम तथा अनोखी आत्म-शक्ति है। किन्तु आज के वैज्ञानिक युग में इस अन्धवादिता से दूर होने की, और यह समझने की आवश्यकता है कि हमारा अपना अस्तित्व हमारे लिए क्या महत्त्व रखता है और वह किस विकास की तरफ जाने से प्रगमनशीलता के क्षेत्र में पूर्णतया प्रस्फुटित हो सकता है।
जैन दर्शन स्पष्ट कहता आया है कि जीवन का विकास किसी बाह्य शक्ति की प्रेरणा से नहीं, अपितु निज में रही हुई शक्ति को पहचान लेने से होता है। मानव स्वयं अपने जीवन का निर्माता है और उसके उत्थान-पतन का उत्तरदायित्व केवल उसी पर है। जितने भी महापुरुष होते हैं वे कठिन विपदाओं के कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलकर ही महानता को प्राप्त करते हैं और इसीलिए उनका आदर्श समाज के लिए अनुकरणीय व प्रेरणा प्रदायक बन जाता है। अवतार- बाद में इस प्रेरणा का अभाव ही मिलेगा, क्योंकि अवतार का जीवन तो एक अभिनेता के समान होता है, जिसके जीवन में वास्तविकता कुछ नहीं, बल्कि दूसरों के लिए की गई क्रियाओं में कभी प्रेरणा नहीं रहती। अतः यह समझना अनिवार्य है कि प्रत्येक प्राणी ही अपनी समस्याओं को उलझाता और सुलझाता है तथा उनका उचित निराकरण करते हुए आगे बढ़ जाता है , जो आगे बढ़ना उसे मुक्ति की सीमा तक ले जा सकता है। नर से नारायण की रीति जैन-दर्शन मानता है और उसी के द्वारा समाज में प्रगति के प्रति उत्साह, कर्मण्यता के भाव तथा स्वशक्ति की परिचय-प्रेरणा व्याप्त हो सकती है।
इसलिए जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, मोटर चालक की तरह हमको यह जानना जरूरी है कि आत्मा का सच्चा स्वरूप क्या है और उसका सही संचालन करने के लिए किन साधनों का प्रयोग अति आवश्यक है।
भौतिकवादियों की मान्यता के अनुसार आत्मा कोई ऐसा तत्त्व नहीं जो इस जीवन के साथ ही पैदा होता है और जीवन की समाप्ति के साथ विनष्ट। किन्तु केवल भौतिक द्रव्यों के सम्मिश्रण से समुत्पन्न इस देह में निवास करने वाली सूक्ष्म चेतना की झलक ही आत्म-तत्व के अस्तित्व का प्रमाण है। यह आत्म-तत्व ही नासिका, चक्षु, कर्ण आदि इन्द्रियों का संचालक तथा शरीर के प्रत्येक प्रदेश में व्याप्त होता है। वह इतना सूक्ष्मातिसूक्ष्म है कि चर्म-चक्षु की दृष्टि उसे नहीं देख सकती।
“मैं कौन हूँ” का रहस्य प्रति क्षण उद्भूत होता रहता है। ‘मेरा हाथ, मेरा काम, मेरा शरीर’ ऐसी अंतर्ध्वनि का जो संचालक है वह इन्द्रियाँतिरिक्त है और वही चैतन्य शक्ति है। इनके साथ ही ‘मेरा घर’, ‘मेरी पुस्तक’ जिस प्रकार सम्बन्धित होने पर भी हम से अलग है, इसी तरह शरीर की पौराणिक माया भी आत्म-तत्व से पृथक् है। इसका प्रमाण यह है कि बड़े-बड़े वैज्ञानिकों का, जो नास्तिक होते हैं, अपने अनुसन्धान आदि में आत्मानुभव नहीं होता। तो यह आत्मानुभव जड़ पदार्थों के संसर्ग में भले हो किन्तु उनके अस्तित्व से पृथक् एक अनुभूति होती है और उसी का नाम आत्मिक अनुभूति है। आचारांग सूत्र में कहा है—
‘तक्का तत्थ न विज्जइ’
अर्थात् तर्क से आत्मिक शक्ति की अनुभूति नहीं हो सकती। उपनिषद् में तर्क करने वालों के लिए ‘नेति नेति’ शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः आत्म-स्वरूप को समझने के लिए सच्ची जिज्ञासा वृत्ति ही आवश्यक है।
अनादि काल से आत्मा का देह के साथ सम्बन्ध है, अतः दोनों एक समान ही प्रतिभासित होते हैं, किन्तु वस्तुतः दोनों भिन्न-भिन्न हैं, क्योंकि शरीर जड़ ज्ञान रहित तथा स्वरूप को पहिचानने में अयोग्य होता है। चैतन्य आत्मा के द्वारा ही आत्मा के तथा जड़ के स्वरूप को पहिचाना जा सकता है। घड़ी, मोटर, रेल चलते जरूर हैं, किन्तु वे चैतन्य की प्रेरणा से ही चलते हैं। केवल चलने से उनमें चैतन्य नहीं माना जाता, उसी प्रकार शरीर स्वयं चालित नहीं, बल्कि चैतन्य शक्ति द्वारा चलाया जाता है। किन्तु अज्ञान के विषय में शंकित रहता है। इसके लिए इन प्रश्नों पर रोज चिन्तना की जाय कि ‘मैं कौन हूँ?’ इस ‘मैं’ की अनुभूति का उद्गम कहाँ से होता है? मेरा क्या स्वरूप है? मेरी गति और प्रगति की दिशा क्या है?
इस महान शक्ति शाली आत्म-तत्व को पहचानना और उस व्यापक शक्ति को पूर्ण प्रकाशित करना ही हमारे जीवन का पुनीत लक्ष्य होना चाहिये। इसी शक्ति में पूर्णत्व के चरम विकास या मुक्ति का आवास रहा हुआ है। भगवान् महावीर की अमर वाणी यही सन्देश सुनाती है—
एवं भव संसारे संसरई सुहासुहेहिं कम्मेहिं।
जीवो पमाय बहुलो, समयं गोयम! मा पमायए॥
उत्तराध्ययन सत्र अ॰ 10 गा॰ 15।
अर्थात् प्रमाद बहुल जीव अपने शुभाशुभ कर्मों व आत्म-स्वरूप को न पहिचानने के कारण इस प्रकार अनन्त भवचक्र में इधर से उधर पर्यटन करते हैं। अतः हे गौतम, तू समय मात्र का भी प्रमाद न कर और आत्म-स्वरूप को समझते हुए उस शक्ति को प्रकाशित करने में पराक्रम फोड़! उपनिषद् से भी ऐसे ही भाव झलकते हैं-
आत्मैव वा अरे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्या सितव्यो नान्यतोऽस्ति विजानतः।
अर्थात् आत्मा के सम्बन्ध में श्रवण, मनन और चिन्तन करना ही हमारी जिज्ञासा का चरम बिन्दु है। यही ज्ञान की पराकाष्ठा है। आत्मा को पहचानना ही परमात्मपन को उपलब्ध करना है, जहाँ से संसार के बदलते हुए भावों को अवलोकन किया जा सके। आत्म-स्वरूप को न पहिचानने के कारण ही आज संसार में इतना अज्ञानान्धकार व दुख छाया हुआ है।
यह निश्चय है कि जब तक मनुष्य को ‘मैं हूँ’ की आध्यात्मिक एकता प्राप्त नहीं होगी, तब तक वह इच्छा, वासना और परस्पर विरोधी मनोविकारों का शिकार होता ही जायगा और इनका गुलाम बना ही रहेगा। मनुष्य बार-बार यह सोचता रहता है कि वह स्वयं को तो जानता है, किन्तु अन्य पदार्थों के विषय में ही सन्देह है। परन्तु बाह्य शरीर का ज्ञान आत्मा का ज्ञान नहीं है और इसीलिए आप अनबूझ रहकर औरों को भला कैसे भली प्रकार से बुझा सकते हैं?
जीवन में नित्य परिवर्तन होते रहते हैं और विचार एवं भावनाओं में नई क्रान्तियाँ हो जाती हैं, किन्तु यदि हम आत्म-तत्व को गम्भीरतापूर्वक समझने का प्रयास करेंगे तो ज्ञात होगा कि मूलतः जीवन में एक ऐसा स्थल है, जो शाश्वत स्थिर और शान्त है और जिसे विशाल प्रभंजन, महान् भूकंप, प्रचंड ज्वालामुखी तथा इस भौतिक युग में संहारक शस्त्र और बम भी स्पर्श तक नहीं कर सकते। अशान्ति का ताण्डव नर्तन भी आत्म-शक्ति को बाधित नहीं कर सकता।
आत्म-शक्ति का अंतर्दर्शन ही व्यक्ति विकास की कुँजी है। आत्मिक शक्ति को प्रकाशित करने का अपूर्व साधन है- आध्यात्मिक-ज्ञान। आज के जड़वादी युग ने इस ज्ञान को लुप्त करने के प्रयास किये हैं, किन्तु भारतीय-संस्कृति पटल से इसे मिटाया नहीं जा सकता और जिस दिन यह पुनीत स्थिति पूर्णरूप से हमारे हृदयों से लुप्त हो जायगी, उस दिन एक साँस्कृतिक प्रलय आयेगा, जो मानवता को क्रूर बर्बरता में परिणित कर देगा। अतः सच्चे विकास के लिए हमें आत्म-स्वरूप को यथार्थ अर्थ से समझ लेने के बाद आध्यात्मिक ज्ञान द्वार में प्रगति की पावन मंजिल तक आत्मा को पहुँचाना है।
अन्त में मैं यही कहना चाहूँगा कि प्रत्येक आत्मा अपना विकास करने के लिए स्वतन्त्र है। उसके विकास को अवरुद्ध करने वाली दुनिया में कोई शक्ति नहीं और यह विकास भी पूर्ण विकास जहाँ उसमें और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं रहता। भगवान् महावीर गौतम स्वामी के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवती सन्न में फरमाते हैं—
हे गौतम! अस्तित्व रूप भावना और नास्तित्व रूप भावना क्रमशः अस्तित्व और नास्तित्व रूप में जिस प्रकार मेरे अन्दर परिणित हो जाती है, उसी प्रकार तुम्हारे अन्दर और सम्पूर्ण लोक की आत्माओं के अन्दर परिणित होती है। उनकी, तुम्हारी और मेरी आत्मा चेतना में आत्म-शक्ति में कोई भेद नहीं है।
अतः मनुष्य को अपने स्वरूप को समझकर विवेक रखने की आवश्यकता है। संसार में रहते हुए भी आध्यात्मिक ज्ञान संसार से भागना नहीं सिखाता। वह तो मानव को अनासक्ति योग की शिक्षा देता है। आत्म-ज्ञान भी खाते-पीते व सब कुछ करते हैं, किन्तु उनमें आसक्ति का रंच मात्र भी भाव नहीं होता है और यही कारण है कि वे दुखों में घबराते नहीं और सुखों में लुब्ध नहीं होते। सम्पत्ति और विपत्ति की अनुभूति से उनका मानस परे हो जाता है।
अध्यात्म-ज्ञानी ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त को केवल समझता ही नहीं, अपितु अपने जीवन में उसका पूर्ण आचरण करता है। वह समझता हे कि वह जैसा व्यवहार दूसरों के प्रति करेगा यदि वैसा ही व्यवहार उसके प्रति भी किया जाय तो उसकी अनुभूति कैसी होगी तथा उसी विचारणा के अनुसार वह अपनी सारी प्रवृत्तियाँ निर्धारित करता है।
इस प्रकार ‘सोऽहम्’ का स्पष्ट ज्ञान ही हमको मुक्ति के द्वार तक पहुँचा सकेगा और हमारे जीवन को तेजोमय व प्रकाशमय बना सके गा।