Magazine - Year 1956 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
भारतीय संस्कृति में गुण-कर्म की प्रधानता
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सामग्रयानुष्ठाननयुणौः सयम्राः
शूद्रायतः सन्ति समाद्विजानाम्
तस्माद्विशेषो द्विजशूद्रनाम्नो—
नाध्यात्मिको बाह्यनिमित्तकोवा-
(41।29) भविष्यपुराण
“सामान्य शूद्र और सामान्य ब्राह्मण, ये दोनों सामग्री और अनुष्ठान समान ही है, इसीलिये ब्राह्मण और शूद्र भी वाध्य या आध्यात्मिक कोई भेद नहीं हैं।”
तस्मान्नच विभेदोऽस्ति न वहिर्मान्तरात्मनि!
न सुखादौ न चाश्वैर्ये नाज्ञाया न भयेष्वपि।
न वीर्ये नाकृतौ नाक्षे न व्यापारे न चायुषि।
नाँगे पुष्टे न दौर्बल्ये न स्थैर्ये नापि चापले।
न प्रज्ञाया न वैरग्ये न धैर्ये न पराक्रमे॥
न त्रिवर्गे न नैपुण्ये न रुपादौ न भेषजे।
न स्त्रीगर्भे न गमते न दह मलसंप्लवं।
नास्थि रंध्रे न च प्रेम्णि न प्रमाणे न लोमसु
(भविष्यपुराण 41।35-38)
“जाति-भेद में और सम्प्रदाय-सम्प्रदाय में कोई भेद नहीं है। भेद न तो बाहर है न भीतर, न सुख में, न ऐश्वर्य में, न आज्ञा में, न भय में, न वीर्य में, न आकृति में, न ज्ञान-दृष्टि में, न व्यापार में, न आयु में, न अंग की पुष्टि में, न दुर्बलता में, न स्थिरता में, न चंचलता में, न बुद्धि में, न वैराग्य में, न रूपादि में, न औषध में, न स्त्रीगर्भ में, न गमन में, न देह के मल-मोचन में, न हड्डी के छेद में, न प्रेम में, न प्रमाण में और न लोभ में।
न योनिर्नापि संस्कारों न श्रुतिर्नच सन्ततिः।
कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमिव तु कारणम्।
सर्वोऽयं ब्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।
वृत्ते स्थितश्च शूद्रोऽपि ब्राह्मणत्वं चगच्छति।
ब्रह्मत्वभावः सुश्रोणि, समः सर्वत्र में मतः।
निगुणाँ निमलं ब्रह्म यत्र तिष्ठति स द्विजः।
—ब्रह्मपुराण 223।56-58
‘जाति, संस्कार श्रुति और स्मृति से कोई द्विज नहीं होता, केवल चरित्र से ही होता है, इस लोक में चरित्र से ही सबके ब्राह्मणत्व का विधान है, सद्वृत्त में स्थित शूद्र भी ब्राह्मणता को प्राप्त होता है, ब्राह्मण वही है जिसमें निर्मल, निर्गुण ब्रह्मज्ञान हो।
नामागरिष्टय पुत्रौ द्वौ वैश्यौ ब्राह्मणताँ गतो।
हरि॰ 11।658
‘नाभगरिष्ट के दो पुत्र वैश्य से ब्राह्मण हो गये थे।’
पोरवस्य महाराज ब्रह्मर्षीः कौशिकस्यच।
सम्बन्धो ह्यास्य वंशेऽस्मिन् ब्रह्मक्षत्रस्य विश्रुतः॥
पुरुपंशीय राजा और ब्रह्मर्षि कौशिक ये दोनों क्षत्रिय ब्राह्मण वंश परस्पर सम्बन्ध है, यह बात लोक प्रसिद्ध है।
ब्राह्मणाक्षत्रिया वैश्याः शूद्रद्रोहिजनस्तिथा।
भाविताः पूर्णजा तीषु कर्मभिश्चशुमाशुमैः॥
(वायु॰ 8।134)
‘सृष्टि के आदि काल में कर्मों के शुभाशुमत्व के अनुसार ब्राह्मणादि वर्ण बनाये गये थे।’
स्थितो ब्राह्मण्यमुपजीवति
—(ब्रह्मपुराण 223।14)
‘ब्राह्मण धर्म के आचरण और ब्राह्मण जीविका के अवलम्बन से क्षत्रिय और वैश्य भी ब्राह्मण हो जाते हैं।
रामिस्तु कर्मभिर्देवि शुभेरचारितैस्तथा।
शूद्रो ब्राह्मणाताँ गच्छेद्वैश्यः क्षत्रियताँ ब्रजेत॥
—ब्रह्मपुराण 22332
‘शुभ कर्मों के आचरण से शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त करता है और वैश्य भीक्षत्रियत्व को।’
शूद्रोऽप्यागमसंन्मो द्विजोभवति संस्कृतः
—ब्रह्मपुराण 223।53
‘शूद्र भी यदि आगम सम्पन्न और संस्कृत हो तो अह द्विज हो जाता है।
जन्मना जायतेशूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते।
वेद्भ्यासी भवेद्विप्रः ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः॥
जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं। द्विज कहलाता उनके संस्कारों की वजह से है। यदि वह वेदाध्ययन करने वाला है तो वह विप्र कहलायेगा और जो ब्रह्म को जानता है वह ब्राह्मण कहलाता है।
वर्णेर्त्कषमवाघ्नोति नरः पुण्येन कर्मण।
दुर्लभं तमलब्धवा हि हन्यात् पापेन कर्मणा॥
महाभारत शान्ति॰ अ॰ 219
पुण्य कर्म करने से उच्च वर्ण को प्राप्त होता है और पाप कर्म करने से नीचता प्राप्त होती है।
चत्वार एकस्य पितुः सुताश्च तेषाँ
सुतानाँ खुल जातिरेका।
फल स्यथोदुम्बर वृक्षजातेर्यथाऽगुमध्यान्तभवानियान्ति॥
वर्णाकृतिर्त्पशरसः समानि तथैकतो जातिरति प्रविन्त्या॥
म. महापुराण ब्रा॰ अ 42
यदि एक पिता के चार पुत्र हो तो उन पुत्रों की एक जाति होनी चाहिये। इसी प्रकार सबका पिता एक ही परमेश्वर है अतः मनुष्य समाज में भी जाति भेद बिल्कुल नहीं होना चाहिये। जिस प्रकार एक ही गूलर के वृक्ष के अग्रभाग, मध्यभाग तथा पींड में वर्ण, आकृति, स्पर्श तथा रस इन बातों में एक से फल लगते हैं उसी प्रकार एक विराट् पुरुष परम ब्रह्म परमेश्वर से उत्पन्न हुये मनुष्यों में भी किसी प्रकार का जातिभेद नहीं हो सकता।
समानी प्रण सह वो अन्नभागः समनि योक्त्रे सह वो पुर्नाज्म। सभ्यंचो अग्नि सपर्यत आरानाभि मिवाऽमितः॥ अथर्व॰ 3।30
“ऐ मनुष्यों! तुम लोगों की पानी पीने की तथा भोजन करने की एक ही जगह हों, समान धुरा मैं मैंने तुम सबको समानता से जोत दिया है। जिस प्रकार एक चक्र के बीच आरे जमे रहते हैं उसी प्रकार तुम भी एक जगह एकत्रित होकर अग्नि मैं हवन करो।”
एक वर्णमिद पूर्ण विश्वमासीद युधिष्ठिर।
कर्मक्रिया विभेदेन चातुर्वणर्य प्रतिष्ठतम्॥
सर्वे वै योनिजा मर्त्याः सर्वे मूत्रपुरीषजाः।
एकेन्द्रियेन्द्रियार्थाश्च तम्माच्छीलगुरौर्द्विजः॥
शूद्रोऽपि शीलसम्पन्नो गुणवान् ब्रह्मणो भवेत्।
ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः शूद्रत् प्रत्यवरो भवेत्॥
—महाभारत वनपर्व अ॰ 180
“हे युधिष्ठिर! इस जगत में पहले एक ही वर्ण था। आगे चलकर गुणकर्म के विभाग हो जाने से चार वर्ण हुए। सब मनुष्य योनि से ही उत्पन्न हुए हैं, सब लोगों की उत्पत्ति रज और वीर्य के मिश्रण से ही है। सबकी इन्द्रियाँ समान हैं। इसलिये जन्म से जातिभेद मानना ठीक नहीं। जिस मनुष्य में शील की प्रधानता होती है, वह द्विज कहलाता है। यदि शूद्र शीलवान हो तो उसे द्विज ही समझना चाहिये और यदि ब्राह्मण शीलता से परे हो तो उसे शूद्र से भी नीच समझना चाहिये।
एक एव पुरा षदः प्रणवः सर्ववाड्मयः।
देवो नारायणो नान्यः एकोऽग्निर्वर्ण एव च॥
—श्रीमद्भागवत् पु॰ स्क॰ 9।14
प्रारम्भ में एक ही वांग्मय ॐ था, नारायण ही एकमात्र देव थे, दूसरा नहीं और एक ही अग्नि यानी ब्राह्मण वर्ण था।
जो मनुष्य अद्वितीय, अनन्त, शुद्ध, सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार द्वारा अनुभव करता है और जो काम, क्रोध, मोह, लोभ, आदि दोषों से अलग है, उसे ही ब्राह्मण कहना चाहिये। श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास आदि का भी यही मत है।
न शूद्रा भगवद्भक्त विप्रा भागवताः स्मृताः॥
—भारत॰
‘जो ईश्वर के सच्चे भक्त हैं वे ही ब्राह्मण हैं, उन्हें शूद्र नहीं कहना चाहिये।’
अज्ञमाला वशिष्ठेन संयुक्त धमयोनिजा।
शारंगी मंदपलिन जगामार्म्यहणीयताम्॥
रताश्चान्याश्च लोकेऽस्मिन् अपकृष्ट प्रस्तयः।
उत्कर्ष योजितः प्राप्ताः स्वैः स्वैर्भतृ गुणौः शुभैः।
(मनु॰ 9।23-24)
‘अधम योनिजा कन्या अक्षमाला वशिष्ठ के साथ युक्त होकर और तिर्यक् कन्या शारंगी मंदपाल ऋषी की परिणीता होकर मान्या पदवी को प्राप्त हुई थी इनके सिवा और अनेक नारियाँ निकृष्ट कुल में उत्पन्न होकर भी पति के महद्गुण के कारण उत्कृष्ट स्थान प्राप्त कर गई थीं।
शूद्र ब्राह्मणयोर्भेदो मृग्यमाणोऽपि यत्नतः।
नश्चते सर्वधर्मेषु संहतौस्त्रिदशैरपि॥
—भविष्यपुराण 41।36
‘अति यत्नपूर्वक सभी देवता मिलकर भी खोजे तो ब्राह्मण और शूद्र में कोई भेद नहीं पावेंगे।”
न ब्राह्मणाश्चन्द्रमरीचि शुक्ला
न क्षत्रियाः किंशुक पुष्पवर्णाः।
न चेद वैश्या हरिताल तुल्याः
शूद्रान चाँगार समानवर्णाः।
—भविष्यपुराण 41,41
“ब्राह्मण लोग भी चाँदी की किरण के समान शुक्ल वर्ण नहीं हैं। क्षत्रिय लोग भी किंशुक पुष्प से लाल नहीं हैं और शूद्र कोयले के समान काले नहीं हैं।”
पादप्रचारैस्तनुवर्ण, केशैः सुखेन दुःखेन च शोणितेन।
त्वं्मासमेदोऽस्थिरसैः समानाश्चतुः प्रभेदारि कथं भवन्ति। 42
वर्णप्रमाणा कृतिगर्भवासग्बुद्धि कर्मेन्द्रिय जीवितेषु। बलत्रिवर्गाभयभेषजेषु न विद्यते जातिकृतो विशेषः।43
चत्वार एकस्यपितुः सुताश्चतेषाँसुतानाँ खुल जातिरेका।
एवं प्रजानाँ हि पितेक एव
पित्रैकभावान्न च जातिभेदः॥5
(भविष्य पुराण 41 अ॰)
“चलना, फिरना, शरीर, वर्ण केश, सुख दुख रक्त , त्वचा, माँस, मेद, अस्थि रस-इनमें सभी तो समान हैं, फिर चार वर्णों का भेद कहाँ है? वर्ण, प्रमाण आकृति, गर्भवास, वाक्य, बुद्धि कर्म, इन्द्रिय, प्राणशक्ति धर्म,अर्थ,काम,व्याधि, औषधि-इनमें कहीं भी तो जातिगत प्रभेद नहीं है। जिस प्रकार एक ही पिता के चार पुत्रों की जाति एक ही होती है उसी प्रकार सभी प्रजाओं का वह भगवान एकमात्र पिता है। इसीलिये जातिभेद नहीं हैँ।”