Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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भारत की साँस्कृतिक समस्या
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(पं॰ जवाहर लाल नेहरू)
संस्कृति है क्या? शब्दकोष उलटने पर इसकी नेक परिभाषाएं मिलती है। एक बड़े लेखक का कहना है कि संसार भर में जो भी सर्वोत्तम बातें मानी या गयी हैं, उनसे अपने आपको परिचित करना संस्कृति है। एक दूसरी परिभाषा में यह कहा गया है कि संस्कृति शारीरिक या मानसिक शक्ति यो,प्रशिक्षण,दृढ़ीकरण या विकास अथवा उनसे भिन्न अवस्था है। यह मन, आचार तथा रुचियों परिष्कृति या शुद्धि है। यह सभ्यता का भीतर प्रकाशित हो उठना है। इस अर्थ में संस्कृति कुछ भी चीज का नाम हो जाता है जो बुनियादी और अंतर्राष्ट्रीय या सार्वजनिक हैं।
कुछ लोगों ने हिन्दू संस्कृति मुस्लिम-संस्कृति और ईसाई-संस्कृति, की चर्चा की है। ये नाम मेरी समझ में नहीं आते, यद्यपि यह सब है कि जातियों और राष्ट्रों की संस्कृतियों पर बड़े-बड़े धार्मिक आँदोलनों का असर पड़ा है। भारत की ओर देखने पर मुझे लगता है कि भारतीय जनता की संस्कृति का रूप सामाजिक है और उसका विकास धीरे-धीरे हुआ है। एक ओर तो इस संस्कृति का मूल आर्यों से पूर्व मोह न जोड़ो आदि की सभ्यता तथा द्रविड़ों की महान सभ्यता तक पहुँचाता है दूसरी ओर, इस संस्कृति पर आर्यों की बहुत ही गहरी छाप है जो भारत में मध्य एशिया से आये थे। पीछे चलकर यह संस्कृति उत्तर-पश्चिम से आने वाले तथा फिर समुद्र की राह से पश्चिम से आने वाले लोगों से 05 बार बार प्रभावित हुई। इस प्रकार हमारी राष्ट्रीय संस्कृति ने धीरे-धीरे बढ़कर अपना आकार ग्रहण किया। इस संस्कृति में समन्वय तथा नये उपकरणों को पचाकर आत्मसात करने की अद्भुत योग्यता थी। जब तक इसका यह गुण शेष रहा, यह संस्कृति भी जीवित और गतिशील रही। लेकिन बाद
को आकर इसकी गतिशीलता जाती रही जिससे यह संस्कृति जड़ हो गयी और उसके सारे पहलू कमजोर पड़ गये। भारत के समग्र इतिहास में हम दो परस्पर विरोधी और प्रतिद्वंद्वी शक्तियों को काम करते देखते हैं। एक तो वह शक्ति है, जो बाहरी उपकरणों को पचाकर समन्वय और सामंजस्य पैदा करने की कोशिश करती है और दूसरी वह जो विभाजन को प्रोत्साहन देती है, जो एक बात को दूसरी से अलग करने की प्रवृत्ति को बढ़ाती है। इसी समस्या का, एक भिन्न प्रसंग में, हम आज भी मुकाबला कर रहे हैं। आज भी कितनी ही बलिष्ठ शक्तियाँ हैं जो केवल राजनीतिक ही नहीं साँस्कृतिक एकता के लिए भी प्रयास कर रही हैं। लेकिन, ऐसी ताकतें भी हैं जो जीवन में विच्छेद डालती है, जो मनुष्य मनुष्य के बीच भेद-भाव को बढ़ावा देती हैं।
अतएव आज हमारे सामने जो प्रश्न है वह केवल सैद्धाँतिक नहीं है, उसका सम्बन्ध हमारे जीवन की सारी प्रक्रिया से है और उसके समुचित निदान और समाधान पर ही हमारा भविष्य निर्भर है। साधारणतः ऐसी समस्याओं के सुलझाने में नेतृत्व देने का काम मनीषी करते हैं, किन्तु वे हमारे काम नहीं आये। उनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो इस समस्या के स्वरूप को ही नहीं समझते। बाकी लोग हार मान बैठे हैं। वे विफलता बोध से पीड़ित तथा आत्मा के संकट में ग्रस्त हैं और वे यह जानते ही नहीं कि जिन्दगी को किस दिशा की ओर मोड़ना ठीक होगा।
बहुत से मनीषी मार्क्सवाद और उसकी शाखाओं की ओर आकृष्ट हुए और इसमें सन्देह नहीं कि मार्क्सवाद ने ऐतिहासिक विकास का विश्लेषण उपस्थित करके समस्याओं पर सोचने और उन्हें समझने के काम में हमारी सहायता की, लेकिन आखिर को वह भी संकीर्ण मतवाद बन गया और जीवन की आर्थिक पद्धति के रूप में उनका चाहे जो भी महत्त्व हो, हमारी बुनियादी शंकाओं का समाधान निकालने में वह भी नाकामयाब है। यह मानना तो ठीक है कि आर्थिक उन्नति जीवन और प्रगति का बुनियादी आधार है लेकिन जिन्दगी वही तक खत्म नहीं होती, वह आर्थिक विकास से कहीं ऊंची चीज है। इतिहास के अन्दर हम दो सिद्धाँतों को काम करते देखते हैं। एक तो सातत्य का सिद्धाँत है और दूसरा परिवर्तन का। ये दोनों सिद्धाँत परस्पर विरोधी से लगते हैं। लेकिन वे विरोधी हैं नहीं। सातत्य के भीतर भी परिवर्तन का अंश है। इसी प्रकार, परिवर्तन भी अपने भीतर सातत्य का कुछ अंश लिए रहता है। असल में हमारा ध्यान उन्हीं परिवर्तनों पर जाता है। जो हिंसक क्रान्तियों या भूकम्प के रूप में अचानक फट पड़ते हैं। फिर भी प्रत्येक भूगर्भशास्त्री यह जानता है कि धरती को सतह में जो बड़े-बड़े परिवर्तन होते हैं उनकी चाल बहुत धीमी होती है और भूकम्प से होने वाले परिवर्तन उसकी तुलना में अत्यन्त में तुच्छ समझे जाते हैं। इसी तरह क्रान्तियाँ भी धीरे-धीरे होने वाले परिवर्तन और सूक्ष्म रूपांतरण की बहुत लम्बी प्रक्रिया का बाहरी प्रमाण मात्र होती हैं। इस दृष्टि से रखने पर, स्वयं परिवर्तन एक ऐसी प्रक्रिया है जो परम्परा के आवरण में लगातार चलती रहती है। बाहर से अचल दिखने वाली परम्परा थी, यदि जड़ता और मृत्यु का पूरा शिकार नहीं बन गयी है, तो धीरे-धीरे वह भी परिवर्तित हो जाती है।
इतिहास में कभी कभी ऐसा भी समय आता है जब परिवर्तन की प्रक्रिया और तेजी कुछ अधिक प्रत्यक्ष हो जाती है। लेकिन साधारणतः बाहर से उसकी गति 06 दिखायी नहीं देती। परिवर्तन का बाहरी रूप का प्रायः निस्पंद ही दिखता है। जातियाँ जब अगति की अवस्था में रहती है तब उनकी शक्ति दिनों-दिन छीनती है, उनकी कमजोरियाँ बढ़ती जाती हैं। परिणाम यह होता है कि उनकी रचनात्मक कलाओं और प्रवृत्तियों का क्षय हो जाता है और अक्सर वे राजनीतिक दृष्टि से गुलाम भी हो जाती हैं।
बहुत दिनों तक बाहरी दुनिया से अलग रहने के कारण भारत का स्वभाव भी और देशों से भिन्न हो गया। हम ऐसी जाति बन गये जो अपने आप में घिरी रहती है। हमारे भीतर कुछ ऐसे रिवाजों का चलन हो गया जिन्हें बाहर के लोग न तो जानते हैं और न समझ ही पाते हैं। जाति-प्रथा के असंख्य रूप भारत के इसी विचित्र स्वभाव के उदाहरण हैं। किसी भी दूसरे देश के लोग यह नहीं जानते कि छुआछूत क्या चीज है तथा दूसरों के साथ खाने पीने या विवाह करने में जाति को लेकर किसी को क्या हर्ज होना चाहिए। इन सब बातों को लेकर हमारी दृष्टि संकुचित हो गयी । आज भी भारतवासियों को दूसरे लोगों से खुल कर मिलने में कठिनाई महसूस होती है। यही नहीं, जब भारतवासी भारत से बाहर जाते हैं तब वहाँ भी एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से अलग रहना चाहते हैं। हममें से बहुत लोग इन सारी बातों को स्वयंसिद्ध मानते हैं और हम यह समझ ही नहीं पाते कि इन बातों से दूसरे देश वालों का कितना आश्चर्य होता है, भावना को कैसी ठेस पहुंचती है।
भारत में दोनों बातें एक साथ बढ़ी। एक ओर तो विचारों और सिद्धांतों में हमने अधिक से अधिक उदार और सहिष्णु होने का दावा किया। दूसरी ओर हमारे सामाजिक आचार अत्यन्त संकीर्ण होते गये। यह विभक्त व्यक्ति त्व, सिद्धाँत और आचरण का यह विरोध आज तक हमारे साथ है और ओज भी हम उसके विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। कितनी विचित्र बात है कि अपनी दृष्टि की संकीर्णता और आदतों और रिवाजों की कमजोरियों को हम यह कह कर नजर अन्दाज कर देना चाहते हैं कि हमारे पूर्वज बड़े लोग थे और उनके बड़े-बड़े विचार हमें विरासत में मिले हैं, लेकिन पूर्वजों से मिले हुए ज्ञान एवं हमारे आचरण में भारी विरोध है और जब तक हम इस विरोध की स्थिति को दूर नहीं करते, हमारा व्यक्ति त्व विभक्त का विभक्त रह जायेगा।
जिन दिनों जीवन अपेक्षाकृत अधिक गतिहीन था, उन दिनों सिद्धाँत और आचरण का यह विरोध उतना उग्र दिखाई नहीं देता था। लेकिन, ज्यों-ज्यों राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों की रफ्तार तेज होती गयी इस विरोध की उग्रता भी अधिक से अधिक प्रत्यक्ष होती आयी है। आज तो हम आणविक युग के दरवाजे पर खड़े है । इस युग की परिस्थितियाँ इतनी प्रबल है कि हमें अपने इस आन्तरिक विरोध का शमन करना ही पड़ेगा और इस काम में कही हम असफलता सारे राष्ट्र की पराजय होगी और हम उन अच्छाइयों को भी खो बैठेंगे जिन पर हम आज तक अभिमान करते आये है।
जैसे हम बड़ी-बड़ी राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं का मुकाबला कर रहे हैं, वैसे ही, हमें भारत के इस अध्यात्मिक संकट का भी सामना करना चाहिए। भारत में औद्योगिक क्रान्ति बड़ी तेजी से आ रही है और हम नाना रूपों में बदलते जा रहे हैं। राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों का यह अनिवार्य परिणाम है कि उनसे सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न होते हैं, अन्यथा न तो हमारे वैयक्तिक जीवन में समन्वय रह सकता है न राष्ट्रीय जीवन में। ऐसा नहीं हो सकता कि राजनीतिक परिवर्तन और औद्योगिक प्रगति तो हो, किन्तु, हम यह मान कर बैठें रह जायें कि सामाजिक क्षेत्र में हमें परिवर्तन लाने की कोई आवश्यकता नहीं है राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों के अनुसार समाज को परिवर्तित नहीं करने से हम पर जो बोझ पड़ेगा उसे हम बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे, उसके नीचे हम टूट जायेंगे।
ईसा के जन्म के बाद की पहली शताब्दी और 07 उससे पहले के भारत की जो तस्वीर हमारे सामने आती है वह उस तस्वीर से भिन्न है जो बाद को मिलती है। उन दिनों के भारतवासी बड़े मस्त, बड़े जीवंत, बड़े साहसी और जीवन के प्रति अद्भुत उत्साह से युक्त थे तथा अपना सन्देश वे विदेशों में दूर-दूर तक ले जाते थे। विचारों के क्षेत्र में तो उन्होंने ऊँची से ऊंची चोटियों पर अपने कदम रखे और आकाश को चीर डाला। उन्होंने अत्यन्त गौरवमयी भाषा की रचना की और कला के क्षेत्र में उन्होंने अत्यन्त उच्चकोटि की कारयित्री प्रतिभा का परिचय दिया। उन दिनों का भारतीय जीवन घेरों में बन्द नहीं था और न तत्कालीन समाज में ही जड़ता की गतिहीनता की कोई बात थी। उस समय एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक, समग्र भारतवर्ष में साँस्कृतिक उत्साह भी लहरें ले रहा था। इसी समय, दक्षिण भारत के लोग दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर गये और वहाँ उन्होंने अपना उपनिवेश स्थापित किया। दक्षिण से ही बौद्धमत का सन्देश लेकर बोधि-धर्म चीन पहुँचा। इस साहसिक जीवन की अभिव्यक्ति में उत्तर और दक्षिण दोनों एक थे और वे परस्पर एक दूसरे का पोषण भी करते थे।
इसके बाद, पिछली शताब्दियों का समय आता है जब पतन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। भाषा में कृत्रिमता और स्थापत्य में सजावट की भरमार इसी पतनशीलता के प्रमाण हैं। यहाँ आकर हमारे विचार पुराने विचारों की आवृत्ति बन जाते हैं और कारयित्री शक्ति दिनों-दिन क्षीण होने लगती है। शरीर और मन, दोनों की साहसिकता से हम भय खाने लगते हैं तथा जाति-प्रथा का और भी विकास होता है एवं समाज के दरवाजे चारों ओर से बन्द हो जाते हैं। पहले की तरह बातें तो हम अब भी ऊँची-ऊँची करते हैं, लेकिन हमारा आचरण हमारे विश्वास से भिन्न हो जाता है।
हमारे आचरण की तुलना में हमारे विचार और उद्गार उतने ऊँचे हैं कि उन्हें देखकर आश्चर्य होता है। बाते तो हम शान्ति और अहिंसा की करते हैं, मगर काम हमारे कुछ और होते हैं। सिद्धाँत तो हम सहिष्णुता का बघारते हैं, लेकिन भाव हमारा यह होता है कि सब लोग वैसे ही सोचें जैसे हम सोचते हैं और जब भी कोई हम से भिन्न प्रकार से सोचता है तब हम उसे बर्दाश्त नहीं कर सकते। घोषणा तो प्रति अनासक्त रहना हमारा आदर्श है, लेकिन, काम हमारे बहुत नीचे के धरातल पर चलते हैं और बढ़ती हुई अनुशासनहीनता हमें व्यक्ति और समाज, दोनों ही रूपों में, नीचे ले जाती हैं।