Magazine - Year 1956 - Version 2
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एकता का आदर्श
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(श्री हरिभाऊ उपाध्याय)
मनुष्य जीवन में भावना, ज्ञान और कर्म तीनों घुले-मिले मिलते हैं। जब ज्ञान के अनुसार कर्म सहज स्वाभाविक हो जाता है, तब वह भाव-रूप हो जाता है। यह भाव मनुष्य की स्थायी सम्पत्ति है। हमारे मन में जब किसी भाव की स्फुरणा होती है तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमारे पूर्वार्जित ज्ञान व कर्म का यह तकाजा है। यह भाव हमें नवीन लगता है, पर वास्तव में उसकी जड़ें गहरी होती हैं। नवीन भाव फिर हमारी बुद्धि को प्रेरित करता है जिससे नवीन ज्ञान व कर्म की बुनियाद पड़ती हे। इन ज्ञान एवं कर्म की परिसमाप्ति फिर ‘भाव’ हो जाती है। इस तरह जीवन के आरम्भ व अन्त में हम ‘भाव’ की प्रधानता पाते हैं। भाव की सम्पुटि में जीवन पूर्ण होता है।
यह भाव जब किसी एक लक्ष्य की ओर दौड़ता है, उसके प्रति अपने को समर्पित करना चाहता है,तब वह ‘भक्ति’ का रूप धारण करने लगता है। ऐसी भक्ति के बिना न तो किसी कर्म में सफलता मिलती है, न मन को शान्ति, न जीवन का महान् लक्ष्य है, निरापद ही हो सकता है। जीवन का महान् लक्ष्य है, व्यक्ति का समाधि में मिल जाना, या भक्त का भगवान् में मिल जाना, नर का नारायण हो जाना। यह स्थिति सम्पूर्ण आत्मसमर्पण के बिना नहीं मिलती । जब तक थोड़ी भी अटका मन में है तब तक समर्पण ‘सम्पूर्ण’ नहीं होता। शरीर को धारण कर सकने जितनी अहन्ता तो रहेगी, परन्तु कर्तापना का अभिमान न रहना चाहिए। इस अवस्था में भक्त कहता है--
“दिया हमने जो अपनी खुदी को मिटा
वह जो परदा था बीच में अब न रहा।
रहा परदे में अब न वह परदानशी’
कोई दूसरा उसके सिवा न रहा।”
इसी को दूसरी भाषा में कहें तो सब में भगवान को व भगवान में सब को देखना है। भक्त अपने को भगवान् अपने में सर्वदा देखता है। मानव-मात्र की समता के आधुनिक आदर्श से मानवमात्र की एकता का—नहीं जीवमात्र की—बल्कि भूतमात्र की एकता का—हमारा प्राचीन सिद्धान्त या आदर्श कहीं बढ़कर है। ऐसी अद्वैत अभेद-सिद्धि श्रेष्ठ भक्त का लक्षण है 1 मध्यम भक्त वह है जो भगवान से प्रेम उनके भक्तों से मित्रता, अज्ञानियों पर कृपा,और भगवान् से द्वेष करने वालों की उपेक्षा करता है।
पहले नम्बर का भक्त सब में एक-भाव देखता है। यह दूसरे नम्बर का भक्त भेद-भाव रखने वाला है। भगवान् को, उनके भक्तों को, अज्ञानियों को, भगवान् के द्रोही को --सबको-खुद अपने को भी -अलग अलग देखता है। इसकी दृष्टि में अभी दृष्टि में अभी सबके कर्मों की योग्यता-अयोग्यता का भाव है। जो जिस योग्य है वैसा ही उसके साथ यह व्यवहार करना चाहता है। मुँह देख कर तिलक लगाता है। आत्मत्व, अभेदत्व इसकी कसौटी नहीं है-मूल प्रेरणा नहीं है। जो सब को आत्ममय प्रभुमय, देखता है वह सब के प्रति प्रेम से सराबोर रहता है। जो कुछ करता है, उनके प्रति प्रेम से प्रेरित होकर करता है भले ही वह साधु पुरुष हो, दुष्ट दुरात्मा हो, जगत में उसका शत्रु या विरोधी समझा जाता हो। यह दूसरा, मध्यम भक्त भगवान् के भक्तों का सत्कार करेगा, उनसे नेह लगावेगा,लेकिन जो भगवान को नहीं मानते,या उसकी निंदा करते हैं उनसे असहयोग रखेगा,उनकी उपेक्षा करता रहेगा,यदि उनका अहित नहीं करेगा तो उनके हित में भी प्रवृत्त नहीं होगा। ‘साहब सलामत दूर की अच्छी’ इस तरह रहेगा जो नासमझ हैं अनपढ़ अज्ञानी हैं उन पर वह कृपा जरूर रखेगा।
किन्तु जो भगवान् के अर्थ विग्रह-प्रतिमा आदि की पूजा में ही प्रवृत्त होता है, उनके भक्तों की, अथवा अन्य किसी जीव की पूजा में प्रवृत्त नहीं होता, वह साधारण भक्त है। यह तीसरे नम्बर का-साधारण-भक्त केवल भगवान की मूर्ति आदि की पूजा-अर्चाबाधोपचार-में निमग्न रहता है। यह नौसिखिया है-अभी भक्ति में प्रवेश ही हुआ है। इसका मन अभी बाहरी उपचारों में ही लगता है, अभी भक्ति की स्पिरिट, प्राण-भावना में नहीं घुसा है। प्रतिमा में ही वह भगवान् का निवास मानता है-अतः दूसरे जीवों या मनुष्यों की पूजा में प्रवृत्त नहीं होता। इन में अभी उसकी भगवद्भावना नहीं हुई है। अतः यह प्रारम्भिक भक्त हुआ। मनुष्य को सब से ऊंची मंजिल पर पहुँचना है। व्यक्ति को समाज हित में लीन होना है। भक्त को भगवान हो जाना है। ऐसे व्यक्ति के मन में राग-द्वेष नहीं रहते क्योंकि वह विषय-भोग भले करे उनमें लिप्त नहीं होता, उनसे प्रभावित नहीं होता। अतः उसके मन में उनके या लोगों के प्रति राग-द्वेष नहीं पैदा होता। यह सब ‘भगवान की माया’ या ‘प्रारब्ध का फल ‘है- ऐसा समझ कर वह तटस्थ रहता है। सुख योग पास आते हैं तो इन्कार नहीं करता, नहीं आते या चले जाते हैं तो दुखी नहीं होता इस प्रकार विषय-भोग में चित्त समता या तटस्थता तो रखता ही है वह देहादिक के जन्म मरणादि सांसारिक धर्मों से भी मोहित नहीं होता, इनके प्रभाव से नहीं आता, क्योंकि उसका ध्यान तो ईश्वर से अपने इष्ट से लगा हुआ है। वह उसी में गरकाब हो रहा है। जिसके मन ने महामहिमान्वित अखण्डैर्श्वय-सम्पन्न भगवान को ग्रहण कर लिया है उस पर फिर इन्द्रियों के धर्म अपनी सत्ता कैसे चला सकते है?
यह भक्त यहीं नहीं ठहरता। शरीर धर्मों के प्रभाव से अपने को बचा लेना एक बात है। कामना व कर्मों के सब बीजों को मिटा देना दूसरी बात है। किसी कामना को लेकर ही कर्म होता है, शरीर-धर्म प्रकट होते हैं। तो अब भक्त उन धर्मों या कर्मों के मूल को ही काट देता है—कामना को ही त्याग देता है। स्वतंत्र रूप से अपनी कोई इच्छा नहीं रखता। भगवान की महान इच्छा में उसने अपनी इच्छा मिला दी है। अब तो भगवान इच्छा करते हैं। वह जो कुछ करता है भगवान् की इच्छानुसार करता है। अतः वह कर्तापन के बन्धन से नहीं बंधता, फलभागी नहीं होता। उसके सुख-दुख, हर्ष-शोक से बच जाता है। जब वह इच्छा नहीं करता तो उनका फल-भोग भी नहीं करता। अच्छा फल हुआ तो भगवान् के अर्पण,बुरा हुआ तो भगवान् के अर्पण वह एक मात्र वासुदेव को ही कर्त्ता, भोक्ता, सब कुछ समझता है। आगे चलकर वह अहंभाव मैं हूँ, इस भावना को भी मिटा देता है। ‘यह शरीर मैं हूँ, मैं जन्मा हूँ मैं कुछ डरता हूँ, मैं अमुक वर्णी हूँ, अमुक आश्रमी हूँ,अमुक जाति का हूँ’ऐसा अभिमान या भाव नहीं रखता। वह ‘सबै जाति गोपाल की’ हो जाता है। इन संकुचितताओं, सीमाओं से वह परे और भगवान की सर्व व्यापकता में लीन हो जाता है।
देह और उसके अर्थ-घन डडडडड स्त्री,पुत्र आदि-में ही मनुष्य की प्रधान आसक्ति होती है। आसक्ति से यह स्वार्थ भाव उत्पन्न होता है कि इनका उपभोग मैं ही करूं’। कहीं दूसरा इनका उपयोग या उपभोग न करले, इस भय से उनके प्रति स्वामित्व की भावना उत्पन्न होती है। यही अपना-पराया भेद मानने की जड़ है। भक्त ने जब अपने को भगवान के अर्पण कर दिया व्यक्ति ने जब अपने को किसी उक्त उद्देश्य कार्य के हाथों में सौंप दिया, तब किसी दूसरे विषय में उसे रुचि ही नहीं, तो आसक्ति कहाँ से हो? अपने-पराये का भेद, न स्वामित्व की भावना। सब ओर उसकी समान बल्कि सौम्य दृष्टि है कोई राग द्वेष नहीं, इसलिए किसी प्रकार की चंचलता, विकलता अव्यवस्थितता नहीं। मन में कोई संघर्ष नहीं। सब जगह शान्ति ही शान्तिं का राज्य है।
इससे बढ़कर गति, स्थिति पद या आनन्द मनुष्य को और क्या चाहिये?