Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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साँस्कृतिक सेवा-शृंखला की प्रतिज्ञाएं
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1—मैं आस्तिक बनने की प्रतिज्ञा करता हूँ। सर्वव्यापी, न्यायकारी परमात्मा के आदेशानुसार मैं सब मनुष्यों को अपना आत्मीय समझ कर उनके साथ प्रेमयुक्त बर्ताव करूंगा।
2— मैं गायत्री का अपनी आध्यात्मिक माता मानता हूँ और सद्बुद्धि, विवेकशीलता, श्रद्धा, मानवता, पवित्रता एवं मातृ जाति की उत्कृष्टता को गायत्री का स्वरूप मानता हूँ। मैं इस स्वरूप की उपासना करते हुए इस मान्यता के अनुकूल ही आचरण करूंगा।
3—मैं यज्ञ को अपने आध्यात्मिक पिता के रूप में स्वीकार करता हूँ। त्यागमय प्रेम-भावना, आत्म-संयम, कर्तव्य निष्ठा एवं उदारता को यज्ञ का संदेश मानता हूँ। मैं यज्ञ के इस रूप की उपासना करके सदा अपनी आत्मोन्नति के साथ देश और समाज-सेवा में संलग्न रहूँगा।
4—मैं आत्मनिष्ठ बनने की प्रतिज्ञा करता हूँ। अपनी त्रुटियों को दूर करने, अपने को अधिक सामर्थ्यवान बनाने, आत्मबल बढ़ाने एवं भली बुरी परिस्थितियों में भी मानसिक संतुलन स्थिर रखने का प्रयत्न करूंगा।
5—मैं पवित्रता पर आस्था रखूँगा। भीतर और बाहर सर्वत्र स्वच्छता एवं पवित्रता को बढ़ाऊँगा। गन्दगी और अव्यवस्था से बचता रहूँगा।
6—भारतीय संस्कृति पर मेरी अटूट निष्ठा रहेगी। सादा जीवन और उच्च विचार मेरी जीवन-नीति रहेगी। मैं दूसरों की सेवा में कुछ समय अवश्य लगाऊँगा और इस प्रकार उन तक भारतीय संस्कृति का संदेश पहुँचाऊँगा।
7—मैं व्रत लेता हूँ कि अपने को विश्वमानव का—समष्टि-जगत का—एक अभिन्न अंग मानूंगा। अपने लाभ से पहले समाज के लाभ से पहले समाज के लाभ को ध्यान में रखकर सार्वजनिक उन्नति के किसी न किसी आयोजन में अवश्य भाग लूँगा।
8—मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मानव-मात्र के अधिकारों में वर्ण, वंश एवं लिंग के आधार पर कोई भेद-भाव न मानूँगा।
9—मैं अपनी शक्ति , सामर्थ्य, सम्पत्ति, विद्या, बुद्धि और स्थिति को ईश्वर की अमानत मानूँगा। उसका न्यूनतम लाभ अपने लिये लेते हुए शेष का उपयोग परोपकार के लिए करूंगा।
10—मैं श्रम की प्रतिष्ठा करता हूँ, समय की बहुमूल्यता को स्वीकार करता हूँ। स्वयं रचनात्मक श्रम करूंगा और श्रम करने वालों का सम्मान करूंगा।
11—मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अपने अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों पर अधिक ध्यान दूँगा। अपने से दुर्बलों के पक्ष में अपने अधिकारों को छोड़ूंगा किन्तु अन्यायी बलवान के आगे झुकूँगा नहीं।
12—मैं संयम की साधना करूंगा, इन्द्रियों पर काबू रखूँगा, व्यसन और व्यभिचार, से बचूँगा।
*समाप्त*