Magazine - Year 1956 - Version 2
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एक नारी की दृष्टि में महायज्ञ की पूर्णाहुति
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(श्रीमती चन्द्रमुखी देवी रस्तोगी बी. ए ., जयपुर)
इस बात को अब सब शिक्षित लोगों ने मान लिया है कि वैदिक युग में स्त्रियों का स्थान किसी प्रकार पुरुषों से कम नहीं था। केवल यही नहीं कि घर के कार्यों में वे दोनों दंपत्ति रूप से घर का प्रबन्ध व शासन करते थे किन्तु सब सामाजिक कार्यों में भी स्त्रियों का स्थान सब प्रकार पुरुषों के समान था। वैदिक समय में बड़े सामाजिक कार्य यज्ञ और महायज्ञ ही माने जाते थे और विद्या विवेचन सभायें भी होती थीं जिनका उपनिषदों में वर्णन है। इन सब में स्त्रियों का समान अधिकार होता था।
यह दुख की बात है कि महाभारत के पीछे जब भारत का पतन हुआ तो स्त्रियों की स्थिति बहुत शोचनीय हो गई। बड़े यज्ञों का तो प्रचार ही नहीं रहा। घर के दैनिक यज्ञों में भी केवल पुरुष यज्ञ का अधिकारी समझा गया, उसकी अर्धांगिनी यज्ञ में भाग नहीं ले सकती थी। नारी को पूर्णतया यज्ञ में भाग लेने तथा वेद मन्त्रों के उच्चारण के अधिकार से वंचित कर दिया गया। ऐसी स्थिति में आज से सवा वर्ष पहले भारतीय नारी ने एक करुणा पुकार सुनी। वह चौंकी, परन्तु कुछ समझ न सकी। आवाज तीव्रतर होती गई। नारी विस्मय, कुतूहल और आश्चर्य से चारों ओर देखने लगी कि आज के भौतिक युग में उसका आह्वान कौन कर रहा है। उसने पूज्य आचार्यजी को महामानव के रूप में अपने सामने खड़ा देखा, समझा और पहचाना। नारी ने फौरन अपने को संभाला और बोली—मानव, घबराओ मत, तुम्हारे संकल्प की पूर्ति के लिये नारी जाति कोई कसर बाकी नहीं रखेगी। और अपने इसी वचन के अनुसार नारी वर्ग ने महायज्ञ की सफलता के लिए पूरा प्रयत्न किया है। जिन लोगों को महायज्ञ की पूर्णाहुति देखने का सौभाग्य मिला है उन्होंने नारी की क्रियाशीलता को अपनी आँखों से देखा है। जप, तप, अनुष्ठान तथा अन्य सभी प्रकार के कार्यों में नारियों ने अपना पूरा सहयोग दिया है। उपस्थिति की दृष्टि से भी स्त्रियाँ पुरुषों से कम नहीं थीं। “आज उसे यज्ञ में बैठने का पूरा अधिकार है” यह विचार स्त्रियों में नवीन उत्साह का संचार कर रहा था। अपने प्रत्येक कार्य से नारी यह दिखा रही थी कि हम सब कुछ कर सकती हैं। नारी जाति सोई हुई थी, ऐसी बात नहीं है बल्कि यों कहना चाहिए कि समाज की पाशविक वृत्ति के आगे उसने अपने को छिपाकर रखना ही उचित समझा। अब जब देश और समाज को उसकी आवश्यकता हुई उसने पुरुषों से कन्धे से कन्धा भिड़ा कर कार्य किया है। वह किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं रहीं और आज भी उपयुक्त समय जान कर अपनी संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए उसका मातृत्व सजग हो गया है, वह कमर कस कर खड़ी हो गई है।
महायज्ञ की पूर्णाहुति के अपूर्व आनन्द के बारे में लिखने की किसकी सामर्थ्य है। जिसने देखा वह वर्णन नहीं कर सका। पूर्णाहुति पर सभी धर्म सम्प्रदाय तथा मत के लोग सम्मिलित हुए थे। देश के कौने 2 से गायत्री परिवार मथुरा की ओर बढ़ा चला आ रहा था। सब हर्ष से विह्वल हो रहे थे। सभी को एक ही ही धुन थी, एक ही लगन थी सब का गन्तव्य स्थान एक था। 5 दिन तक निरन्तर चलने वाली पूर्णाहुति में सब लोग आनन्द विभोर हो रहे थे। चारों ओर सुख-शान्ति का साम्राज्य छाया हुआ था। सच्चे शब्दों में कहा जाये तो तपोभूमि के स्वर्गीय वातावरण में सब स्वर्ग के सुख का अनुभव का रहे थे। यज्ञ की व्यवस्था कितनी सुन्दर थी उसका वर्णन नहीं हो सकता। जो स्त्रियाँ और पुरुष यज्ञ विधि से पूर्णतया अनभिज्ञ थे उन्हें समझने के लिए पूर्ण व्यवस्था थी। गायत्री माता की छत्रछाया में सब एक अपूर्व आनन्द का रस ले रहे थे। भोजन की व्यवस्था भी बहुत अच्छी थी। हजारों व्यक्ति यों को एक साथ बैठ कर खाना और किसी भी प्रकार का शोरगुल व लड़ाई झगड़ा न होना एक आश्चर्य की बात थी। किसी भी प्रकार की कोई दुर्घटना नहीं हुई सारी व्यवस्था मानो अपने आप ही चल रही थी। परन्तु इस सब के पीछे जिसका त्याग, तपस्या और बल काम कर रहा था उनके चरणों में भी हम थोड़े श्रद्धा के पुष्प चढ़ालें। पूज्य आचार्य जी की अनेक वर्षों की कठोर तपस्या, त्याग और उच्चतम विचारों का ही यह प्रभाव है कि हम दूर 2 से गायत्री माता के चरणों में खिंचे चले आए। मनुष्य ईश्वर का प्रतिरूप है उसके अन्दर अपार बल शौर्य और विवेक है यह सब जानते हैं परन्तु किस प्रकार वह अपनी छिपी हुई शक्ति यों का विकास करके देवत्व के पर को पहुँच सकता है उसका प्रत्यक्ष प्रमाण पू॰ आचार्य जी हैं और हमें यह कहना ही होगा कि वे मनुष्य नहीं भगवान हैं। पू॰ आचार्य जी के साथ उनकी धर्मपत्नी भी उनके किसी कार्य में पीछे नहीं हैं। विश्व एकता तथा संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए उनका सभी कुछ तो लग चुका है। परन्तु हम केवल उनकी प्रशंसा में कुछ शब्द कह लें या उनके चरणों में नमन करले, इससे काम नहीं चलेगा। हमारा यह कर्तव्य हो जाता है कि मन, वचन, कर्म से उनके कार्यों में पूर्ण सहयोग दें। उनका समस्त जीवन हमीं लोगों के लिए तो है अतः पूर्णाहुति की निर्विघ्न पूर्णता पर हमें सच्ची लगन से पू॰ आचार्य जी के मिशन की पूर्ति में लग जाना चाहिए। यह हमारा परम सौभाग्य है कि उन्होंने हमें अन्धकार में से निकालकर प्रकाश में लाकर खड़ा कर दिया है।