Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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पूर्णाहुति से प्रेरणा
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(श्री सीताराम, एडवोकेट, आगरा)
यों तो गायत्री तपोभूमि में जाने पर सदैव ही आनन्द और शान्ति का अनुभव होता है परन्तु गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति के सुअवसर पर तौ ऐसा प्रतीत होता था कि संसार का सारा आनन्द उसी स्थान में इकट्ठा हो गया है। सहस्रों की संख्या में, देश के भिन्न भिन्न भागों से आये हुए, प्रायः पीले वस्त्र धारण किए हुए गायत्री परिवार के पुरुष और महिलाओं का उत्साह, यज्ञ-प्रेम तथा सहयोग देखने योग्य था।
पूर्णाहुति के कार्यक्रम का आनन्द लेते हुये मेरे मन में प्रश्न उठा कि आचार्य जी ने यह सब आयोजन किया क्यों? यज्ञ तथा यात्रियों के भोजन व निवास आदि में सहस्रों रुपये का व्यय, यात्रियों का स्वयं का व्यय तथा कार्य कर्त्ताओं का अथक परिश्रम इस सबसे लाभ क्या हुआ? यदि साधकों ने गायत्री मंत्र का जाप व हवन अपने स्थान पर किया था तो वह उसकी पूर्णाहुति भी अपने स्थान पर कर सकते थे। सबको तपोभूमि में एकत्रित करने की क्या आवश्यकता थी।
सोचते-सोचते उत्तर मिला कि इस आयोजन का भी वही महत्व है जो एक विश्व विद्यालय के दीक्षान्त समारोह का होता है। जैसे दीक्षान्त समारोह में विश्व विद्यालय के समस्त विद्यार्थी जो अपनी शिक्षा का पूर्ण कर चुकते हैं एकत्रित होते हैं और जनता जनार्दन के सम्मुख खड़े होकर कुलपति से उपाधि, दीक्षा तथा आशीर्वाद प्राप्त करके मौन से अपने भावी जीवन को अपनी शिक्षा के अनुसार व्यतीत करने की घोषणा करते हैं ठीक उसी प्रकार से इस उत्सव में समस्त गायत्री साधक जो अपनी साधना को पूर्ण कर चुके हैं अग्नि देव तथा जनता जनार्दन के सामने आचार्य जी से आशीर्वाद प्राप्त करके अपने जीवन को गायत्री की शिक्षा के अनुसार व्यतीत करने की मौन घोषणा कर रहे हैं।
फिर प्रश्न उठा कि क्या गायत्री की भी कोई शिक्षा है? एक विद्यार्थी तो अध्ययन करके, शिक्षा प्राप्त करके दीक्षान्त समारोह में सम्मिलित होता है परन्तु गायत्री साधना में यह बात कैसे घटेगी? इस में तो प्रत्येक साधक ने एक निश्चित समय में अपने अपने संकल्प के अनुसार गायत्री मंत्र का जाप किया है और उस जाप को पूर्ण करके यहाँ पूर्णाहुति देने आया है।
उत्तर मिला कि यदि गायत्री साधना का अभिप्राय आपने केवल मन्त्रों का जाप करना ही समझा है तो आपने गायत्री साधना के वास्तविक स्वरूप को समझा ही नहीं। गायत्री साधना का सच्चा स्वरूप है उसके अर्थ का चिन्तन तथा मनन करना, और जीवन को उसके अनुसार बनाना।
पुनः प्रश्न हुआ कि गायत्री मंत्र द्वारा हम भगवान से केवल बुद्धि विवेक की याचना करते हैं? उत्तर मिला नहीं। गायत्री मन्त्र द्वारा हम भगवान के गुणों का वर्णन करते हुए “धी महि” शब्द द्वारा उन गुणों को अपने में धारण करने की घोषणा भी करते हैं। केवल ‘भूः भवः स्वः” शब्दों को ही ले लीजिये। इनका अर्थ है कि प्रभु, सर्वाधार हैं, दुख नाशक हैं तथा सुख स्वरूप हैं।’ हम हजारों बार प्रभु के इन गुणों को दोहराएं अग्नि के सामने भी इनका उच्चारण करें और इनको अपने में धारण करें। तो इसका स्वाभाविक प्रभाव यह होना चाहिये कि यह गुण हम में भी किसी न किसी अंश में उतरें। हम भी संसार में किसी के आधार बनें, हम भी किसी के दुःख नाशक हों, हम भी किसी के लिये सुख स्वरूप हों। एक उर्दू के कवि के शब्दों में हम भी अपने से यह पूछें—
“कभी इमदाद दी तूने किसी बेकस बेचारे को,
सखी बनकर दिया कुछ तूने मुफलिस के गुजारे का,
तसल्ली दी कभी तूने किसी आफत के मारे को,
कभी तूने सहारा भी दिया है बेसहारे को”
उपरोक्त प्रेरणा के मिलते ही पूर्णाहुति के समारोह की सार्थकता का ज्ञान हुआ और प्रतीत हुआ कि गायत्री महायज्ञ में सम्मिलित होने वाला प्रत्येक साधक अब साधारण मनुष्य नहीं रहा है। उसने गायत्री उपासना की दीक्षा प्राप्त की है। उसने अपने कन्धों पर समाज की सेवा का बहुत बड़ा भार सहर्ष स्वीकार किया है। उसने अग्नि देव तथा जनता जनार्दन को साक्षी करके मानव मात्र के कल्याण का बोझा उठाया है।
वेदमाता सब साधकों को उपरोक्त लक्ष्य की प्राप्ति में सहायता तथा सफलता प्रदान करें
“ओम् शान्ति”