Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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जब स्वर्ग उतर आया-पृथ्वी पर
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(श्री रमेश त्रिपाठी, कलकत्ता)
अब से 14 वर्ष पूर्व “अखण्ड ज्योति” में दो पंक्तियाँ प्रकाशित हुई थीं और अभी तक प्रत्येक अंक में, मैं उन पंक्ति यों को विशेष ध्यान पूर्वक पढ़ता रहा हूँ। पंक्तियाँ ये है:—“सन्देश नहीं मैं स्वर्ग लोक का लाई—मैं भूतल को ही स्वर्ग बनाने आई”। प्रारम्भ में इसमें सार कम, और कविता अधिक जान पड़ती थी। स्वर्ग को पृथ्वी पर उतारने की बात केवल अलंकार अथवा कहावत ही बनकर रह गई थी। किन्तु गायत्री तपोभूमि में, जिस दिन नरमेध-महायज्ञ का आयोजन हुआ उस दिन न केवल लेखक ने, वरन् लाखों व्यक्तियों ने साक्षात स्वर्ग को मथुरा-पुरी में उतरते देखा। सभी की जुबान पर एक ही बात थी “धन्य है ऐसा विशाल रमणीक और आत्मीयता से परिपूर्ण समारोह हमने कभी नहीं देखा।”
ग्रामीण जनता, नगरों से आये हुए विद्वज्जन देश विदेशों से आये हुए पर्यटक-जिसने भी इस अपूर्व समारोह को देखा, स्तम्भित सा खड़ा रह गया। जो स्वयं 108 वेदियों पर आफुढ़ यज्ञ कर रहे थे, अथवा गायत्री तपोभूमि के उस नैसर्गिक वातावरण में अपनी तपस्या को पूर्ण कर रहे थे, उन दिव्य—स्त्री पुरुषों की तो वही जानें। किन्तु उनके मुख का तेज, उनकी मुखाकृति पर दर्शनीय आस्तिकता और गंभीरता, उनकी दृढ़ लगन और एक लक्ष्यता को देख कर, अनायास ही वेदकालीन ऋषि-मुनियों का स्मरण हो उठता था।
स्वार्थ प्रधान, इस युग में जहाँ कि “अपनी अपनी हाय” में विश्व जला जा रहा है—वहाँ इतिहास में प्रथम बार इतने अधिक तपस्वी-गृहस्थ सज्जन, एक स्थान पर एकत्रित हुए थे। प्रयाग विश्व-विद्यालय के मेरे एक मित्र जो इस यज्ञ में सम्मिलित होने आये थे बोले “वास्तविक संगम तो यहाँ तपोभूमि में दिखाई दिया है वास्तव में प्रत्येक आगंतुक सज्जन यमुना जी भाँति निर्मल तथा गंगा की भाँति पवित्र है।” मैंने उन्हीं के स्वर मिलाते हुए कहा “और इन सबके संगम स्वरूप—यह यज्ञ देव’ सरस्वती हैं—क्यों हैं न डडडड डडडड पर वे हंस पड़े। बड़ी सात्विक हँसी जो यज्ञ के “स्वाह” स्वर में चुपके से विलीन हो गई। तपोभूमि के तीन दिवस-निवास का प्रत्येक जाग्रत क्षण कुछ-कुछ इसी प्रकार के नैसर्गिक वातावरण में व्यतीत हुआ।
इस सबके अतिरिक्त ,एक प्रमुख आकर्षण केन्द्र थे आचार्य जी। आचार्यजी के विषय में बिना लिखे रहा नहीं जाता और क्या लिखें समझ में नहीं आता। उन्होंने हजारों आगन्तुक में से लगभग प्रत्येक से वार्तालाप किया और उन्हें प्रेरणा दी, उत्साह बढ़ाया। दूसरों का जो लोग उत्साह बढ़ाते रहते हैं। वे संसार का बड़ा उपकार करते हैं। कारण यह है कि मनुष्य का उत्साह बढ़ाने से उसमें दुगुना और तिगुना बल आ जाता है और वह शक्ति भर परिश्रम करने लगता है। रणभूमि में सेनापति के मुख से उत्साह-वर्धक शब्दों को सुन सुनकर, सिपाही गिरते गिरते भी सँभल जाते है, और हारते हारते भी, जी तोड़ कर एक बार फिर शत्रु पर धावा करते हैं। बिल्कुल उसी भाँति आचार्य जी के उत्साह वर्धक शब्द कितनों की जीवन गति मोड़ने में समर्थ हुए हैं।
स्वर्ग में महान आत्माओं तथा सात्विक वृति वाले देवजनों के ही तो दर्शन होते हैं। वह सब गायत्री तपोभूमि में विद्यमान था। वहाँ उदारता, प्रेम, परोपकार आदि सद्गुणों का अपूर्व सम्मेलन था उदार व्यक्ति यों का व्यवहार सर्वत्र ही, एक मनोरम दृश्य उपस्थित कर दिया करता है। फिर वहाँ तो आचार्य जी जैसे उदार-हृदय स्वयं उपस्थित थे। उनके जीवन का उद्देश्य ही बन गया है—उपकार। सभी साधक उन्हें अपना रक्षक और शुभचिन्तक मानते हैं और उनके प्रति प्रेम और आदर का भाव रखते हैं। उन्हें देखकर निराश निर्बल तथा आपद् ग्रस्त मनुष्य भी अपने में कुछ बल का आगमन महसूस करने लगता है। उसका सारा शोक कपूर की भाँति उड़ जाता है। और उसका हृदय आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है। अधिकतर, साधक यह महसूस करने लगते हैं जैसे कि आचार्य जी रूप में साक्षात ईश्वर ही उनकी रक्षार्थ द्वार पर आ गया है— और अब उन्हें कोई भय नहीं है।
आत्मीयता और प्रेम पूर्वक सम्बन्धों का जो अनवरत स्रोत आचार्यजी के मधुर व्यक्तित्व से प्रवाहित हो रहा था, उससे प्रत्येक व्यक्ति प्रभावित देखा। कोई उन्हें, अपना रक्षक, मानते थे कोई गुरु , कोई परमहितैषी बन्धुवर। उनके विषय में गोस्वामी जी की चौपाई “जाकी रही भावना जैसी-प्रभु मूरति देखी तिन तैसी” चरितार्थ हो रही थी।
मेरे साथ, कुछ बड़े बड़े सरकारी अफसर भी गये हुए थे। उनमें से एक सज्जन जो लगभग 15 वर्ष विदेशों में अध्ययन कर चुके हैं, पक्के नास्तिक बन चुके थे। उनका कहना था “चलिये! मनोरंजन रहेगा। वरन् यज्ञ, व ईश्वर में मुझे कोई रुचि नहीं। उनका कहना था कि ईश्वर एवं धर्म केवल ढोंग है। मथुरा पहुँचकर, भी पहिले दिन तो उनमें कोई परिवर्तन नहीं आया। किन्तु उन्होंने देखा कि हजारों नर-नारी बिना किसी ढोंग, पाखंड के अपनी साधना में रता थे। उन्होंने पूछा कि “यज्ञ के बाद ये याज्ञिक लोग कुछ आर्थिक लाभ (दान पुण्य आदि प्राप्त करने के रूप में) प्राप्त करेंगे!” तो उन्हें बताया गया कि ये लोग कर्मकाँडी पंडित, चौबे अथवा पंडे नहीं हैं। न ये वैसे “साधु बाबा” हैं जो लकड़ी के ढेर में आग लगाकर तपने का ढोंग करके सीधे साधे देहातियों को लूटते—ठगते हैं। दूसरी ओर इनमें से अधिकाँश, गृहस्थ हैं जो कि सैकड़ों रुपये मार्ग व्यय, भाड़ा आदि वहन करके अपनी पूरी वर्ष की तपस्या को पूर्ण करने आये हैं। ढोंग या पाखंड की न इन्हें आवश्यकता है और न गायत्री तपोभूमि को। तप करने के स्थान में सभी कुछ सत्यं शिवं सुन्दरं मिलेगा।
और हमने पाया कि उपर्युक्त सज्जन तीसरे दिन सूट को फेंक कर, धोती कुर्ते में, तपोभूमि के एक कोने में गायत्री मन्त्र का जप कर रहे हैं। अब उनका कहना है कि तपोभूमि के वातावरण ने नरमेध यज्ञ की रक्ताभ ज्वाला ने उनके नास्तिक हृदय में आस्तिकता, उनकी स्वार्थ प्रधान विचार धारा में, उदारता के बीज बो दिये हैं। नरमेध वाले दिन, हमारे साथ के एक फारसी के प्रोफेसर, तो बारबार फिरदौस के उसी शैर को दुहराते रहे कि “अगर स्वर्ग कहीं धरती पर ही है तो वह यहीं है, वह यहीं है, वह यहीं है।”
भाषणों का रस
तपोभूमि में भाषण तथा प्रवचनों का जो क्रम था वह भी साधारण समारोहों से आधारभूत विभिन्न था। वहाँ जोशीले, भड़काने वाले धुंआधार भाषणों का दौर नहीं था। परखे हुए, विद्वानों, गृहस्थी साधकों तथा अन्य महाशयों के निजी अनुभवों का दिग्दर्शन मात्र था। कोई सीखे, कोई सिखाये एक के अनुभवों से दूसरा लाभ उठा रहा है। यही तो सम्मेलन की वास्तविक आधार शिला है।
कथावस्तु के अन्तर के अनुसार, श्रोताओं पर भाषण का प्रभाव भी दर्शनीय था। कितने करुण और कितने आनन्द प्रदायक थे वे क्षण जब कि आचार्य जी के भाषण के मध्य, आनन्दातिरेक से न केवल उपस्थित हजारों साधक एवं श्रोता वरन् स्वयं आचार्य जी के नेत्रों से भी मोतियों की धारा छुट पड़ी थी। सारा पंडाल रोमाँचित हो उठा था। उस समय का वर्णन, साक्षात स्वर्ग का ही वर्णन करना होगा।
सात्विक भोजन
तपोभूमि में भोजन व्यवस्था यद्यपि एकदम आडम्बर विहीन थीं। उत्तेजक मसालों, गरिष्ठ पकवानों अथवा स्वास्थ्य नाशक मिष्ठानों के दर्शन दुर्लभ हो गये थे। निस्सन्देह पूड़ी साग आदि की व्यवस्था, कम खर्चीली तथा अधिक सरल होती परन्तु, साधकों को वैसा तामसी भोजन कैसे दिया जा सकता था। साधारण रोटी, दाल, शाक तथा चावल आदि का भोजन, वहाँ 36 व्यञ्जनों से भी अधिक स्वादिष्ट था। उस पर पारस्परिक सहयोग विशाल हृदयता तथा बड़े पैमाने पर विस्तारित आत्मीयता ने भोजन व्यवस्था को अत्यन्त मनोहर बना दिया था। हजारों तपस्वियों और गृहस्थों के एक साथ भोजन करने में कितना आनन्द आता है। यह केवल भाग लेकर ही पता चल सकता है।
मथुरा तीन लोकों से न्यारी कही जाती थी। सम्भवतः इसमें सचाई इतनी ही थी कि यह ‘कहावत’ मात्र बन गई थी। किन्तु तपोभूमि में, यज्ञीय वातावरण ने, यथार्थ रूपेण ही उसे तीन लोकों से न्यारी बना दिया था।