Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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समारोह का उद्घाटन
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सायंकाल के समय लगभग 7 बजे उद्घाटन समारोह की कार्यवाही आरम्भ हुई। मंगलाचरण और भजन के उपरान्त स्वामी परमानन्द ने परमात्मा की भक्ति के लिये गायत्री माता की शरण लेने पर एक प्रभावशाली भाषण दिया। इसके पश्चात् आचार्य जी ने सब आगंतुकों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा-हमने आपको यहाँ एक विशेष उद्देश्य से ही बुलाकर एकत्रित किया है। आप लोग जो अपना काम काज छोड़ कर, किराये आदि में बहुत सा रुपया खर्च करके जो यहाँ तक आये हैं, उसका उद्देश्य कोरा शैर तमाशा नहीं हैं। यह उन गायत्री उपासकों को सम्मेलन है जिनको हमने बारह वर्ष तक एक विशेष प्रकार की शिक्षा ‘अखण्ड ज्योति’ के द्वारा दी है। इन लोगों में अनेकों ऊँची श्रेणी के विद्वान तथा कार्यकुशल लोग सम्मिलित हैं। हमने इतने वर्षों के परिश्रम से जो 10 - 15 हजार योग्य व्यक्ति समस्त देश से संग्रह किये हैं, 5 - 6 हजार व्यक्ति उन्हीं में से इस समारोह में भाग लेने आये हैं। यहाँ बुलाकर केवल इनसे हवन कराना ही हमारा उद्देश्य नहीं है। वह कार्य तो हम आपसे घर में भी करा सकते थे। वास्तव में ऐसे यज्ञ किसी विशेष उद्देश्य से ही किए जाते हैं। जैसे प्राचीनकाल में अश्वमेध यज्ञ राजनैतिक समस्याओं पर विचार करने और उन्हें सुलझाने के लिए किये जाते थे। गोमेध यज्ञों का उद्देश्य कृषि सम्बन्धी समस्याओं पर विचार करना होता था। इसी प्रकार बहुत से यज्ञ या सत्र होते थे, जिनमें किसी एक विचारधारा के लोग इकट्ठे होकर उस विषय पर विचार करते थे। हमारे यज्ञ को यद्यपि कुछ विरोधी लोग ‘फुलका यज्ञ’ का नाम दे रहे हैं क्योंकि इसमें उनको लड्डू, पेड़ा मिष्ठान्न के दर्शन नहीं हो पाते। हमारे इस महायज्ञ का उद्देश्य अपनी वर्तमान साँस्कृतिक अवस्था पर विचार करके उसके पुनरुत्थान का प्रयत्न करना है। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे देश और समाज का नैतिक स्तर बहुत गिर गया है। हम इस बात को भूल गये हैं कि मनुष्य का सच्चा कर्तव्य क्या है? यह बड़े ही दुर्भाग्य का विषय है, क्योंकि किसी देश या राष्ट्र की सब से बड़ी संपत्ति विचारों और नैतिकता की ही संपत्ति होती है। देश की सरकार केवल राजनैतिक क्षेत्र में कार्य कर सकती है। नैतिक क्षेत्र में वह अधिक कार्य नहीं कर सकती। यह कार्य जनता ओर उसके समझदार अग्रगामी व्यक्ति यों का है कि वे अपने भाई-बहिनों के नैतिक और साँस्कृतिक उत्थान के लिये कार्य करें। आज हम ब्राह्मण के रूप में आपसे इन्हीं बातों की भिक्षा माँगते हैं। हमने आपसे कभी धन-धान्य की माँग नहीं की, क्योंकि यह हमको माता गायत्री की कृपा से आवश्यकतानुसार मिल जाता है और फिर इस प्रकार माँगा हुआ बिना श्रद्धा का धन महत्वशून्य होता है। हम आपसे आपके समय, श्रम, सहयोग भावना की माँग करते हैं, जिसके द्वारा नैतिक और साँस्कृतिक उत्थान के महान आयोजन को सफल बनाया जा सके।
अब अन्धकार की रात समाप्त हो रही है और उन्नति का नया प्रभात प्रकट हो रहा है। देश का भविष्य पलट रहा है। विदेशी आक्रमणकारी हमको बहुत सी बुराइयाँ दे गये थे। इनके कारण हमारे धर्म और चरित्र का बड़ा ह्रास हुआ और आजकल अधिकाँश धर्म कार्य भी बिना लक्ष्य और उद्देश्य के हो रहे हैं। हमारे इस आयोजन का उद्देश्य अपने धार्मिक साँस्कृतिक और नैतिक कार्यों को फिर से एक विशेष उद्देश्य और लक्ष्य के अनुसार चलाना है। इस महान कार्य की जिम्मेदारी ब्राह्मणों की है। समाज आप ही का मुँह देख रहा है। इस समय आवश्यकता है कि हम सब अपनी अपनी जिम्मेदारी को समझ कर कार्य करने में संलग्न हो जाय। अभी ऐसा जान पड़ता है कि यह एक स्वप्न है और हम सपनों की दुनिया में रहते हैं। हम आपको भी इस सपनों की दुनिया में आने का निमन्त्रण देते हैं। अगर हम सब कदम मिला कर आगे बढ़ते जायेंगे तो अवश्य अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सफल होंगे।
स्वागताध्यक्ष का भाषण
आचार्य जी के प्रवचन के समाप्त होने पर गायत्री महायज्ञ के स्वागताध्यक्ष श्री लक्ष्मीरमण आचार्य ने समवेत सज्जनों को सम्बोधन करते हुए कहा—आचार्यजी हमारे पुराने साथी हैं। उन्होंने इस समय अपना कार्यक्रम पृथक चुना है पर हमारा और उनका उद्देश्य एक ही है। हमने अपने धर्म को बहुत सी रूढ़ियों और कुसंस्कारों से बाँध डाला है जिससे हमारे समाज का बड़ा पतन हुआ है। अब हम एक नये युग में नये मानव का सृजन कर रहे हैं। मानव ने आज न्याय स्वीकार किया है। यह बात भ्रातृत्व की भावना के प्रतिकूल है कि हमारे समाज में एक व्यक्ति बहुत बड़ा और दूसरा बहुत छोटा हो। हमने न्याय को न्याय द्वारा, सत्य को सत्य द्वारा प्राप्त करने की चेष्टा की है। आपकी आत्मा में इस मन्त्र का फूँकने के लिए ही समवतः आचार्य जी ने इतना बड़ा समारोह किया है।
इसके पश्चात् स्वागताध्यक्ष ने अपना लिखित भाषण पढ़ कर सुनाया जो निम्न प्रकार था:—
गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति के इस अवसर पर पुण्यतोया माता यमुना के तट पर मैं आप सभी का हृदय से स्वागत करता हूँ।
मथुरा नगरी ने अपने विपुल इतिहास काल में अगणित उत्थान और पतन के दृश्य देखे हैं। भारत भूमि के ज्ञात इतिहास में सदा से इस महान् नगरी का विवरण आता है। प्रायः साँस्कृतिक उत्थान के प्रत्येक स्थल पर इस नगरी ने अपना स्थान पाया है और इसके अनुरूप अपने को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। केवल वैदिक युग में ही, नहीं मध्यकालीन बौद्ध युग में भी यह नगरी बौद्ध संस्कृति का विवरण केन्द्र रही है। इस नगरी के चारों और फैले हुए खँडहर, संस्कृतियों के अवशिष्ट चिन्हों के रूप आज तक वर्तमान हैं। नगरी के पश्चिम में कटरा केशवदेव की पुण्य भूमि, उससे थोड़ी दूर डडडड वन, महोली के वन प्रदेश, स्थान-स्थान पर डडडड स्तूपों के अवशिष्ट डडडडीले सभी इस पुण्य भूमि के विशाल ही विशाल वैभव के और उसकी साँस्कृतिक देव स्तम्भ है। नगरी के मध्य में स्थित पुरातत्व संग्रहालय हमारे महान् इतिहास का अनुपम साक्षी इसी के द्वारा जिस साँस्कृतिक का इस देश ने उद्भव किया तथा जिस साँस्कृतिक ओज को इस देश को अपनी धमनियों में स्थान देकर विश्व-मानव की कल्पना की तथा जिस संस्कृति को भगवान् कृष्ण ने इस जन्म स्थान पर बराबर गढ़ा गया उस सभी को प्रमाणित होते देर नहीं लगती। यह सब होते भी यह सही है, कि भागवतकार ने इस भूमि के सम्बन्ध में कहा कि—
जयति तेऽधिकं जन्मना ब्रजः।
श्रयत् इन्दिरा शश्वदत्रहि॥
यह भूमि सचमुच भगवान् कृष्ण के जन्म से धन्य हो गई और उन्हीं के जन्म के कारण सदा इति श्री और कल्याण का निवास रहता है। यह तो संभव ही है कि लीलामय भगवान् कृष्ण के जन्म ने, उनमें अपार्थिव लीलाओं ने तथा उनके महान् व्यक्ति त्व से इस भूमि को भारतीय इतिहास पटल पर एक अनुसंधान स्थान प्रदान किया है। भारतीय इतिहास के उस डडडड में जबकि यहाँ की मानवता राजनैतिक दासता के शृंखलाओं में बँध चुकी थी। इस भूमि ने कृष्ण कडडडड के द्वारा समस्त भारत के मानस पर भक्ति , श्रद्धा और प्रेम की एक ऐसी अजस्र धारा बहाई है कि डडडड द्वारा यहाँ के मानव ने चेतना प्राप्त की, प्रेरणा प्राप्त की, और उसकी आत्मा सदा के लिए कुचले जाने से बच गई। इतिहास के पृष्ठों पर न जाने कितना संस्कृतियों का उदय हुआ है कहीं पर मानव ने देवत्व की ओर बढ़ने की चेष्टा की है और वहीं पर विविध संस्कृतियों के द्वारा इसने प्रकाश पाने की चेष्टा की है तथा उन्हीं संस्कृतियों के द्वारा महान् जातियों का उत्थान हुआ किन्तु आज तो वह जातियाँ और वह संस्कृतियाँ कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती! काल के कराल गाल में वह अन्तर्ध्यान हो गई। थोड़े से खंडहरों के कुछ अवशिष्ट चिन्ह प्राप्त होते हैं मिश्र देश में नील नदी के आस-पास पाये जाने वाले कुछ थोड़े से खण्डहर नील नदी के तट पर रहने वालों की एक महान् जाति के गौरवमय इतिहास की ओर इंगित करते हैं किन्तु वह साँस्कृतिक जाति आज समाप्त हो चुकी है और इसी प्रकार शौर्य और ओज से भरी हुई रोमन जाति के भी आज कहीं चिन्ह नहीं मिलते। मोहन जोदड़ो, हड़प्पा, मथुरा या वाराणसी के तट पर रहने वाली जाति आज भी जीवित हैं। उनका राजनैतिक पराभव आज समाप्त हो चुका है। इस देश की महान् जाति के करवट बदल कर आज एक दूसरी गौरवमय यात्रा पर अपना पग बढ़ाया है। आखिर इसका कुछ तो कारण है। इन कारणों में से प्रमुख कारण हमें अपने को समझने और अपने को अवसर पर बदल लेने की और हमारी मान्यताओं में परिवर्तन कर लेने की एक प्रवृत्ति है। गायत्री तपोभूमि के इस प्राँगण में आज उसका व्यवहारिक रूप हम देखते हैं।
ज्ञान त्याग तप शौर्य, बलिदान हमारी महान् साँस्कृतिक मान्यतायें हैं। बहुत देशों और बहुत मनुष्यों के भगवान् के प्रति किये जाने वाली प्रार्थनाओं को हम जानते हैं। आज इन सबके विवरणों को देखकर हमें अपनी स्तुति के अपराध का भागी नहीं होना चाहिए। केवल इतना कहना चाहता हूँ कि गायत्री मन्त्र के द्वारा की जाने वाली प्रार्थना अनुपम है। भगवान् हमारी बुद्धि को तीक्ष्ण करे, यही हम प्रार्थना करते हैं। ‘धियो योनः प्रचोदयात्” के द्वारा इसके अतिरिक्त भगवान् से हम कोई कामना भी नहीं करते। जीवन में यह ज्ञान के अन्त का प्रतीक है। भगवान् के प्रति भी हम किसी नैराश्य, दैन्य या माया के द्वारा उत्पन्न दुःख और सुख की प्राप्ति का बचने की प्रार्थना को कोई स्थान नहीं देते। इसके विपरीत केवल यही माँगते हैं कि हमारी बुद्धि को बल प्राप्त हो। गीता तथा उपनिषद् के द्वारा बौद्धिक निष्काम कर्म जिसमें मनुष्य “पद्मपत्र-मिवाम्भसा” की वृत्ति को स्वीकार करें। संसार में ऐसे रहे जैसे कमल का पत्ता जल में रहता है। दुःख और सुख, मान और अपमान तथा जीवन के विविध छंदों से ऊपर उठकर योगी बनें, श्रद्धा और विश्वास को अपने जीवन में स्थान प्रदान करें और उसके द्वारा ज्ञान को प्राप्त करें।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयनेन्द्रिय।
ज्ञानं लब्ध्वा पराँ शान्तिमचिरैणाविगच्छति॥
अर्थात् जितेन्द्र और विद्वान् व्यक्ति ज्ञान को तुरन्त प्राप्त करता है और ज्ञान को प्राप्त करने के बाद मनुष्य प्रेम और स्नेह को प्राप्त होता है।
सज्जन वृन्द! संभवतः यह हमारी संस्कृति का केन्द्र बिन्दु है। ज्ञान के द्वारा हम सभी लोग मोक्ष की ओर अग्रसर होते हैं ऐसा हमारा विश्वास है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम भगवान से, नित्यप्राँत प्रार्थना करते हैं कि हमारी बुद्धि निर्मल हो और सुतीक्ष्ण हो, गायत्री तपोभूमि में गायत्री महायज्ञ का सम्भवतः यही रूप है। गायत्री महायज्ञ 125 करोड़ जप 125 लाख आहुति, 1250 ज्ञान पुस्तकालय की स्थापना रुद्र यज्ञ, ब्रह्म-यज्ञ, सरस्वती-यज्ञ महामृत्युञ्जय-यज्ञ, नवग्रह-यज्ञ, पितृ-यज्ञ यजुर्वेद-यज्ञ, ऋग्वेद-यज्ञ, अथर्ववेद-यज्ञ, सामवेद-यज्ञ, तथा अनेकों शृंखलाओं के साथ पिछले पन्द्रह मास से सम्पन्न किया जा रहा है।
हमारी संस्कृति में यज्ञ शब्द त्याग और तप का द्योतक रहा है। प्रारम्भ से हमने अपने जीवन में यज्ञ को एक विशिष्ट स्थान प्रदान किया है। यज्ञ के द्वारा किये गये कर्म को हमने निष्कलुप और निष्काम कर्म माना है तथा ब्रह्मा के सम्बन्ध में भी हमारा यह विश्वास रहा है कि उसने सृष्टि की रचना यज्ञ के द्वारा की। यज्ञ के द्वारा मनुष्य बुद्धि को प्राप्त होता है, ऐसा भी हम लोग विश्वास करते हैं। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है—
सहयज्ञाः प्रजासृष्ट्वापुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यव्वमेपवोऽस्त्विष्टकामधुक्॥
इसके साथ 2 भगवान कृष्ण ने यह भी कहा—
यज्ञार्थर्त्कमणोऽन्यत्रलोकोय कर्मवन्धनः।
तदर्थ कर्मकौंतेय मुक्त संगः समाचार॥
अर्थात् यज्ञ के लिए किये गये कर्म के अतिरिक्त और सारे कर्म बन्धन है। इसलिए हे अर्जुन त् आ क्ति से रहित हो कर्म को कर अर्थात् यज्ञ के लिए कर्म कर। इस तरह हमने एक प्रकार से जीवन को अनन्य भाव से यज्ञ से सम्बद्ध किया है।
इतिहास के मध्यकालीन युग में हम सभी इससे गिरे हैं दासता में बंधा हुआ यहाँ का निरीह मानव नित्यप्रति स्वार्थ की ओर अग्रसर होने लगा। यज्ञ की भावना, निष्काम कर्म का गौरवमय रूप, मनुष्य को ऊँचा उठाने वाली प्रवृत्तियों के बन्धन नित्यप्रति शिथिल पड़ते चले गये ज्ञान और प्रकाश का स्थान अन्धकार और कुसंस्कारों ने ग्रहण कर लिया। हमारे विविध यज्ञों में पशुबलि और नरबलि जैसे जघन्य अपराधों को स्थान दिया जाने लगा। सभी यज्ञों पर कुसंस्कारों और अन्धकारों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। गायत्री तपोभूमि में यज्ञ का स्वच्छ रूप आपको देखने को मिलेगा। आपको ज्ञात ही होगा कि इस महोत्सव की साँस्कृतिक अर्पित योजना में नरमेध-यज्ञ की व्यवस्था की गई है। पाखण्डों ने युगों तक इस यज्ञ को मानव रक्त से कलुषित किया है और नरमेध का स्थान नरबलि ने वर्षों 2 तक लेकर उन हमारी महान परम्पराओं को बर्बरता की चरम सीमाओं तक पहुँचा दिया है। कुछ नवयुवक इस तपोभूमि में नरमेध यज्ञ के द्वारा अपने आपको इस देश की राजनैतिक साँस्कृतिक और सामाजिक उत्थान के लिए अर्पित करेंगे। यही हमारे नरमेध का साँस्कृतिक रूप है।
सज्जन वृन्द! क्या आज हम अपने साँस्कृतिक उत्तरदायित्व को समझ पा रहे हैं? हमारा राष्ट्र और हमारी संस्कृति भी महान् रही है। मानवता के शिक्षक के रूप में अपने परिपक्व विचार और दर्शन के द्वारा हमने जन जीवन को अमोघ शक्ति प्रदान की है। इतिहास के बीच के पृष्ठों में हमारा राजनैतिक, साँस्कृतिक और सामाजिक पराभव हुआ आज हम फिर आगे आये हैं। हिंसा, घृणा और पशुबल से त्रस्त मानव के सामने कुछ नये दर्शनों की हमने सृष्टि की है। क्रान्ति को एक नया रूप हमने प्रदान किया है । सभी धर्मों ने एक मत से जीवन को सुखी बनाने के लिए मानव की उदात्त भावनाओं को व्यवहारिक रूप प्रदान करने की माँग की है। मनुष्य ने कुछ सुना है कुछ नहीं सुना है तो केवल व्यक्ति गत जीवन में, सामूहिक दुष्परिणाम स्वरूप मानव अपने सारी संस्कृति और सम्पदा की पोटली अपने कन्धे पर लादकर गर्त्त के एक किनारे पर आकर खड़ा हो गया है और वहाँ से निकलने का उसे स्थान नहीं दिखाई देता। युग-युग की संचित हमारी साँस्कृतिक वाणी को मूर्त रूप प्रदान कर राष्ट्र पिता गाँधीजी ने इस मानव को एक नई मोड़ प्रदान करने की चेष्टा की। यह हमारी साँस्कृतिक वाणी सुनी जाये तो आज मनुष्य घृणा, भय और हिंसा से बाहर निकल कर प्रेम सत्य और अहिंसा के मार्ग पर आकर अपने आप को सुखी बना सके। इसके लिए हम प्रयास कर सकें। सम्भवतः यह हमारा आज महानतम उत्तरदायित्व है।
आज इस देश के नवयुवक इस कार्य को कैसे पूरा करे। वह अपने द्वारा इस कार्य को पूरा करने की तैयारी में सम्भवतः लग चुका है। नरमेध यज्ञ के द्वारा गायत्री महायज्ञ के परायण के द्वारा श्रीराम जी आचार्य ने एक दूसरे मार्ग की ओर हमें बुलाया है ऐसा प्रतीत होता है।
आपको ज्ञात होगा इस देश का साधु-समाज भी इस कार्य के लिए अपनी कमर कस रहा है। वह भी इसके लिए तैयारी कर रहा है। हमारे देश में साधु और संन्यासियों का एक विशाल समुदाय है। यह उन व्यक्ति यों का समुदाय है जो कि प्रतिबिम्ब के जीवन को दृश्य जगत या माया के रूप में मानता है। वैराग्य साधन के द्वारा मुक्ति की ओर अग्रसर होने की चेष्टा करता है। आज यह समुदाय सारे भौतिक सुखों से विमुख होकर केवल भगवान की आराधना में अपने को समर्पित करता है। ऐसा समाज यदि आज इस देश के ऐतिहासिक उत्तरदायित्व को सुनले और देश के साँस्कृतिक सामाजिक, आर्थिक पुनर्निर्माण में लग जाय तो उसमें कुछ अनोखी बात नहीं है।
साधारण व्यक्ति के मन में बहुत सी शंकायें जागती हैं वह विचारता है क्या इन मन्त्रों की ध्वनि से और इन यज्ञों से जिनमें मनों घृत और अन्य यज्ञ सामग्री अग्नि में होमी जाय कोई लाभ होगा? आज विज्ञान के युग में तो सम्भवतः इन शंकाओं के लिए स्थान नहीं रहा है। मुँह से निकली वाणी अखिल ब्रह्माँड में व्याप्त होती है। विज्ञान यन्त्रों के द्वारा इसे पकड़ लेता है और सहस्रों योजन दूर इनको सुन लेता है। यह वाणी ब्रह्माँड में व्याप्त बनी रहती है। गायत्री मन्त्र की वाणी जिसके द्वारा करोड़ों बार बुद्धि को प्रेरणा प्रदान की जाने की प्रार्थना दुहराई गई है व्याप्त होगी तो इसका प्रभाव कैसे निष्फल रह जावेगा और यदि वह प्रभाव पड़ेगा तो यह मनुष्य के मन को निर्मल और सबल ही बनायेगा। यही सम्भवतः इन यज्ञों का रूप हैं।
कुछ नई परम्पराओं को भी इस तपोभूमि में स्थान प्रदान किया गया है। चंदे के द्वारा यहाँ का कार्य सम्पन्न नहीं हुआ दिग्दिगंत से आये यज्ञकर्ताओं ने प्रायः इसको स्वयं ही वहन किया है। एक नये वातावरण की यहाँ सृष्टि की गई। यह वातावरण अधिक से अधिक शुद्ध हो सके और हमारा राष्ट्रीय चिह्न ‘सत्यमेव जयते’ को सिद्ध कर सके उसका यहाँ प्रयास किया गया है। इन सभी प्रेरणाओं के लिए हम उस व्यक्ति के ऋणी हैं जिसने वर्षों पूर्व स्वयं अपने मार्ग से इस उद्देश्य को सफल करने का बीड़ा उठाया, वह हैं आचार्य श्रीरामजी शर्मा जिनके प्रयास से यह सभी सम्पन्न हुआ है।”
स्वागताध्यक्ष महोदय के प्रवचन के बाद श्रीमुकुट बिहारीलाल शुक्ल [आगरा] ने गायत्री-परिवार के निर्माण और उद्देश्यों का परिचय देते हुये आचार्य जी के सर्वस्व दान की महत्ता पर प्रकाश डाला। फिर स्वागत मन्त्री श्री श्यामलाल अग्रवाल ने श्री अनन्त शयमनम् आयंगर [सभापति भारतीय लोक सभा] का परिचय देते हुये उनसे इस यज्ञ समारोह का उद्घाटन करने की प्रार्थना की। श्री आयंगर ने इस अवसर पर हिन्दी में जो प्रभावशाली भाषण दिया उसका साराँश नीचे दिया जाता है।
श्री आयंगर का भाषण
मैं यहाँ गायत्री माता के दर्शन करने आया हूँ। यह महायज्ञ सवा वर्ष से हो रहा है और अब उसकी पूर्णाहुति होने वाली है। हिन्दू धर्म में ही नहीं, समस्त विश्व में सबसे ऊँचा मन्त्र गायत्री ही है और सबको उसे जपना चाहिये। ईसाई भगवान का ध्यान पिता के रूप में करते हैं। बल्लभाचार्य ने भगवान का ध्यान वात्सल्य रूप में करने की विधि बताई। गौरांगनहा-प्रभु ने गोपीभाव से उपासना करने का उपदेश दिया। पर गायत्री मन्त्र में भगवान को तेज रूप मानकर उनसे केवल अपनी ही नहीं वरन् संसार भर की बुद्धि के निर्मल और उज्ज्वल करने की प्रार्थना की गई है। जब अर्जुन ने पूछा कि मैं भगवान का ज्ञान कैसे प्राप्त करूं और कैसे उनका ध्यान करूं तो भगवान कृष्ण ने यही कहा कि तुम जहाँ कहीं प्रकाश देखो वहीं समझलो कि भगवान हैं। अर्जुन ने कहा कि मैं एक ही स्थान पर भगवान का दर्शन करना चाहता हूँ। तब भगवान ने उसे विराट रूप दिखाया। संसार में जितने व्यक्ति हैं उन सबके सिर भगवान के सिर हैं, उनके हाथ भगवान के हाथ हैं, उनके पैर भगवान के पैर हैं। इसका अर्थ यह है कि सब जनता मिल कर ही भगवान का रूप है और उसकी सेवा करना ही भगवान की सच्ची पूजा है। यही हिन्दू धर्म का सार है। कि इस समस्त विश्व प्रपंच में भगवान को देखो और इस प्रपंच की सेवा करना भगवान की सेवा है। समाज की सुचारु रूप से सेवा के लिये भगवान ने उसके चार भाग कर दिये। पर आजकल समय बदल गया है। अब प्रत्येक व्यक्ति को चारों वर्णों को कर्तव्य-पालन करना चाहिये। इसके लिये गायत्री का संदेश सबसे श्रेष्ठ है। गायत्री सबसे अधिक शक्ति वाली प्रार्थना है।
भगवान की पूजा मानवता की सेवा ही है और आचार्यजी गायत्री के प्रचार द्वारा कई वर्षों से प्रशंसनीय समाज सेवा कर रहे हैं। भगवान कहते हैं कि जप ही सबसे बड़ा यज्ञ है। यह यज्ञ और भगवान की पूजा बहुत सहज बात है। आप यह निश्चय कर लीजिये कि ‘आपके चरण कमलों में मैं अपनी आत्मा को अर्पण करता हूँ’ तो भगवान स्वयं ही आपको लक्ष्य तक पहुँचा देंगे। भगवान से प्रार्थना करने का सर्वोत्तम मार्ग गायत्री का जप ही है, क्योंकि वह समस्त वेदों और उपनिषदों का सार है।
भारतवर्ष के निवासी अनेक हिस्सों में बँटे हैं। दक्षिण में हम लोग अपने को द्रविड़ कहते हैं, पश्चिम में ईसाई कहते हैं, उत्तर में सिख कहते हैं और जो थोड़े से व्यक्ति हमसे अलग हो गये हैं वे अपने को पाकिस्तानी कहने लगे हैं। पर इसका अर्थ यह नहीं कि हम वास्तव एक दूसरे से भिन्न हैं या एक दूसरे के विरोधी हैं। अगर एक दाढ़ी रखता है और दूसरा चोटी तो, इसमें लड़ने की क्या बात है? कहीं बालों के विभिन्न फैशनों के कारण भी कोई परस्पर में शत्रुता का भाव रख सकता है! भगवान मन्दिर या मस्जिद में ही नहीं रहता वरन् हर एक मनुष्य के भीतर भगवान मौजूद है। यदि मनुष्य को इस संसार से पार होना है तो वह किसी मनुष्य का हाथ पकड़ कर पार नहीं हो सकता वरन् उसे अपने हृदयस्थ भगवान का हो आश्रय लेना पड़ेगा।
हिन्दू धर्म में बार-बार यह कहा गया है कि पण्डित वही है जो सबको भगवत् स्वरूप देखता है। पर आजकल जमाना उलटा है। हम दरिद्र नारायण से तो विमुख रहते हैं और अमीरों के पैर धोते हैं। मैं यह नहीं कहता कि अमीर से लड़ाई कीजिये पर अमीर का भी उचित है कि वह अपने को अपनी सम्पत्ति का ट्रस्टी मात्र समझे। फिर अमीर तो अपनी सेवा आज कर सकते हैं, आप उन गरीबों की सेवा, सहायता कीजिये जो असहाय हैं। कुछ न कुछ दान देना भी हिन्दू धर्म का एक मूल सिद्धान्त है। जैसा गीता में भगवान ने कहा है, जो अकेला खाता है वह पाप करता है। अगर आपको एक ही रोटी मिले तो उसमें से भी एक टुकड़ा दान कर देना चाहिये। लोग तपस्या का नाम लेते हैं, पर आहार छोड़कर पड़े रहना तपस्या नहीं। भगवान को अर्पण करके खाओ तो वही तपस्या है।
हर एक आदमी को अपना धर्म सोचना चाहिये। हमारे शास्त्रों में कहा गया है—“पितृदेवोभव, मातृदेवोभव।” पर आजकल पश्चिमी सभ्यता के अनुयायी माता-पिता को त्याग कर स्त्री को साथ में ले चल देते हैं। इस प्रकार का कार्य जंगलीपन या पशुत्व का चिन्ह है। इसे धर्म का चिन्ह नहीं कहा जा सकता। गायत्री का उपदेश स्पष्ट शब्दों में यही है कि केवल अपने परिवार के पालन की ही चिन्ता न करो वरन् मनुष्यमात्र के हित का ध्यान रखो। यही सच्चा संन्यस्त है। हमारा मुख्य कर्तव्य यही है कि हम सारे संसार को भगवत् स्वरूप देखें और उसकी सेवा में रत रहें। इस लिये आज ही गायत्री माता के सम्मुख प्रतिज्ञा कीजिये कि आज से मैं सदैव गरीब भाइयों की सेवा करूंगा।
भगवान ने कहा है कि जो भले काम करता है उसे मैं कभी नहीं छोड़ता। और धर्मों के भगवान तो दूर से ही संसार के भले बुरे कामों को देखा करते हैं, पर हमारे भगवान अवतार लेकर हमारे बीच में ही काम करते हैं। अगर कोई व्यक्ति हिन्दू मत छोड़ कर दूसरा मत ग्रहण कर लेता है तो उसका पाप हमारे ही सिर पर है। क्योंकि इससे प्रकट होता है कि हमने उसको धर्म का उपदेश नहीं दिया। गायत्री को कभी न छोड़िये तो वह आपको सदैव सुरक्षित रखेगी। इसके ऋषि विश्वामित्र थे जो इसी को जपकर क्षत्रिय से पूज्य ब्राह्मण बन गये थे। जो कोई अन्तरात्मा से गायत्री का जप करेगा वह अवश्य ब्राह्मण बन जायगा। कहा भी है—
“जन्मनः जायते शूद्रः कर्मणा जायते द्विजः”
कृतज्ञता ज्ञापन
आचार्यजी ने श्री आयंगर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करते हुये कहा कि हम सबके जीवन का लक्ष्य वही है जैसा कि श्री॰ आयंगर ने अपने भाषण में प्रकट किया है। हम सब भारतीय संस्कृति के प्रचार में प्रयत्नशील हैं। गायत्री सर्वत्र मातृशक्ति की प्रतीक है। हम उनके विचारों को शिरोधार्य करते हैं और उन पर चलेंगे। हमारा गायत्री परिवार देश के कौने-कौने में फैला है और वह देश के साँस्कृतिक उत्थान के लिये कार्य करेगा। हमारी आकाँक्षा है कि अध्यक्ष महोदय इस लक्ष्य की प्राप्ति में हमें प्रेरणा देते रहें हैं।
शान्ति पाठ के पश्चात् आज का अधिवेशन विसर्जित हुआ।
ता॰ 21-4-56
आज के अधिवेशन में भगवान राम और रामचरित्र मानस के सम्बन्ध में विशेष रूप से विद्वानों के प्रवचनों की व्यवस्था की गई थी। सबसे पहले इन्दौर के ब्रह्मचारी श्री विश्वकल्याण हितैषी जी महाराज ने कहा कि “सबसे पहले हमको यह जानना आवश्यक है कि ‘मानव क्या है?’ क्योंकि जब तक हम इस बात को नहीं जान जायेंगे तब तक उसके कल्याण अकल्याण का विचार नहीं किया जा सकता। यह तो सभी जानते हैं कि मनुष्य संसार के सभी जीवों से श्रेष्ठ है, पर केवल मनुष्य की आकृति बना लेने से किसी को मनुष्य नहीं माना जा सकता है। मानव के गुणों से ही उसकी महत्ता है। कोई अभिनेता या अभिनेत्री किसी महान व्यक्ति का अभिनय करने से महान नहीं बन जाते। सच्चा मानव बनने के लिये कुछ विशेषतायें चाहिये। इस समय तो मानव, जो पहले देव था, आजकल दानव बनने के लक्षण प्रकट कर रहा है। इस लिये हमको आत्म-परीक्षा द्वारा इस बात पर विचार करना चाहिये कि हम प्रकृति से मानव हैं या नहीं। इसकी कसौटी यह है कि हम विचार करके देखें कि हम जीने के लिये खाते हैं या खाने के लिये जीते हैं। आज मनुष्यों ने अपना सिद्धान्त बना लिया है कि—’खाओ, पियो, मौज उड़ाओ।’ उन्होंने यह मान रखा है कि बढ़िया पदार्थ मिलने से हम सुखी बन सकेंगे। पर यह उनका भ्रम है। उदाहरण के लिये हम जो उत्तम से उत्तम भोजन बनाते हैं सबसे पहले मक्खी उसे खा लेती है! क्या कोई बढ़िया भोजन के निमित्त मक्खी बनना चाहेगा? इस लिये हम को यह समझ लेना चाहिये कि हमारा जीवन साँसारिक सुखों के वास्ते नहीं वरन् शाश्वत शान्ति के लिये है। इसी सिद्धान्त को भूल जाने से हम आज अनेक दुःख और कष्टों में फँसे हुये हैं।”
श्री राधेश्याम कथावाचक (बरेली)
“आपको यह जानकर कदाचित् आश्चर्य होगा कि जिस राधेश्याम रामायण की आपने इतनी प्रशंसा की है वह मेरी 12 से लेकर 18 साल की आयु ते लिख डाली गई थी। एक 12 साल की आयु का बालक ऐसी रचना कर सके यह असम्भव-सा लगता है। पर वास्तव में मैंने इस ग्रन्थ को नहीं लिखा, किसी शक्ति ने मुझसे लिखाया और मैंने वैसा लिख डाला। इस ग्रन्थ को लिखने के पूर्व मेरे पिताजी ने मुझसे सवालक्ष गायत्री का एक पुरश्चरण करवाया था और मेरा विश्वास है कि उसी के फल से मुझे इस कार्य में सफलता प्राप्त हो सकी। यहाँ आने का एक कारण और भी था और वह यह कि जिन श्रीराम शर्मा के दर्शन करना। मैं तो दोपहर से यहाँ की हालत देखकर फूला नहीं समाता। मैं जानता हूँ कि इस समय देश की हालत क्या है? देश की इस उलझी हुई हालत में अगर कोई विद्वान हमको गायत्री द्वारा सुधार की तरफले जाता है तो यह बड़ी उत्तम बात है। गायत्री का असली अर्थ और साराँश यह है कि हम भगवान से अपनी बुद्धि के सुधार की प्रार्थना करें। बेटा हो जाना, मुकदमा जीत जाना, सम्पत्ति मिल जाना आदि साँसारिक बातें, गायत्री के जप का असली उद्देश्य नहीं हो सकतीं। जिन भगवान का नाम हम लेते हैं उन्होंने भी गायत्री का जप किया था। यद्यपि श्रीरामचन्द्रजी एक बहुत बड़े राज्य के स्वामी थे, पर उनका बचपन कैसा था? जब वे बिलकुल लड़के थे एक साधू (विश्वामित्र) ने उनको यज्ञ की रक्षा के लिये माँग लिया और वे उसी समय महलों को छोड़ कर उस साधू की सेवा करने चल दिये।
गायत्री बुद्धि के सुधारने का मन्त्र है। गायत्री का उपासक सूर्य अथवा भगवान से माँगता है कि हमारी बुद्धि निर्मल और उज्ज्वल हो। क्योंकि बुद्धि में जरा सी खराबी आने से ही देश, समाज और व्यक्ति बिगड़ जाते हैं, और बुद्धि के सुधरने से ये सब बन जाते हैं। बुद्धि निराकार है और परमात्मा भी निराकार है। हमारे और परमात्मा के बीच में निराकार बुद्धि है और उसी की प्राप्ति गायत्री के जप से होती है।
देश को स्वराज्य मिल गया पर परिस्थितियों का चक्कर ऐसा है कि हमारा मुँह देश की तरफ कम है और विदेशों की तरफ अधिक है। हमारी मनोवृत्तियाँ इस समय बेईमानी की हो रही हैं। गवर्नमेंट भी स्वीकार करती है कि हमारे महकमों में भ्रष्टाचार फैल रहा है। इस परिस्थिति का सुधार भी गायत्री द्वारा हो सकेगा। अगर तुम गायत्री माता के परिवार में आते हो तो सब आपस में भाई बन आओगे। फिर भाई के साथ भाई बेईमानी कैसे करेगा। अगर जीना है तो सच्चे होकर जियो बेईमानी से नहीं। गायत्री माता के परिवार में शामिल होकर तुमको यही करना होगा कि भाई के साथ हरगिज बेईमानी न करना ईश्वर का रूप तो सत्य है और सत्य ही ईश्वर है। आज तो बाप-बेटे, भाई-बहिन, पति-पत्नी, के बीच में भी दीवार खड़ी है। लोग कहते हैं कि जीवन में भी दीवार खड़ी है। लोग कहते हैं कि जीवन के स्टेंडर्ड को ऊँचा उठाओ। हमारे भारत में, जब मैं 12 वर्ष का था, जीवन का स्टेंडर्ड ऊँचा न था, पर सब चीजें सस्ती और अच्छी मिलती थी।
रामायण के पढ़ने से यह भी ज्ञात होता है कि गायत्री का जप करने वालों का आचरण कैसा होता था। रामचंद्रजी के विषय में लिखा है:—
प्रातः काल उठ के रघुनाथ।
मात पिता गुरु नावहिं माथा॥
संध्यावन्दन करने वाले, गायत्री जपने वाले बालकों का यही लक्षण है। लक्ष्मणजी इसके बहुत बड़े उदाहरण थे। वह बहुत कम सोते थे और वनवास में बराबर रात के समय सीता राम का पहरा देते रहते थे। लंका में सबसे बड़ी ताकत मेघनाद की थी जो यज्ञ करने वाला और एक पत्नी व्रती था। उसे रामचंद्र भी नहीं मार सकते थे। लक्ष्मणजी ने ही उसे मारा। यह सब संध्यावन्दन और गायत्री की शिक्षा का ही प्रभाव था, क्योंकि उनके गुरु ने उनको इसकी शिक्षा दी थी।
डा. सीताराम कपूर पी. एच. डी.
किसी भी सत्संग में, जहाँ रामचरित्र मानस जैसे ग्रंथ पर कुछ कहा जाता है वहाँ से श्रोता को कुछ न कुछ लेकर ही उठना चाहिये। रामचरित्र मानस में जितने भी पात्र हैं सब आर्य सिद्धान्त पर आचरण करने वाले हैं। भगवान कृष्ण ने गीता में जो कुछ कहा है वही बात रामायण और समस्त अन्य शास्त्रों में पाई जाती है। अगर हम इन बातों पर आचरण करें तो भगवत् सान्निध्य में कमी न रह जाय। भगवान सर्व आत्माओं में व्याप्त हैं। अगर उन भगवान का सहज में लाभ उठाना है तो उसका साधन है अनन्यता। गोस्वामी जी ने स्पष्ट कहा है:—
नहिं कलि कर्म न भक्ति विवेकू।
राम नाम अवलम्बन एकू॥
यदि राम नाम अनन्यता पूर्वक लिया जाय तो उद्धार में तनिक भी सन्देह नहीं।
धनुष यज्ञ में सीताजी रामचंद्र जी की कोमलता तथा धनुष की कर्कशता को देखकर बहुत घबराई और महेश, भवानी, गणपति आदि समस्त देवताओं को मनाने लगीं। पर जब कहीं से कोई आश्रय मिलता न जान पड़ा तो अन्त में भगवान की शरण ही गई—
तो भगवान सकल उर वासी।
करहिं मोहि रघुवर की दासी॥
जाकर जापर सत्य सनेहू।
सो तेहि मिलहिं न कुछ सन्देहू॥
तब रामचंद्र जी ने तुरंत उनकी ओर ध्यान दिया। इस प्रकार भगवत् सान्निध्य प्राप