Magazine - Year 1956 - Version 2
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ब्रह्मचर्य और उसके उपाय
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(श्री श्याम सुन्दर बाजपेयी, फरुखाबाद)
ब्रह्मचर्य का वास्तविक अर्थ होता है भगवान को प्राप्त करने के लिए वेदों का अध्ययन करना। प्राचीन काल में शिष्य गुरु के पास ब्रह्म प्राप्ति के लिए वेदों का अध्ययन करते हुए सावधानी से वीर्य रक्षा करते थे। अतएव धीरे-धीरे ‘ब्रह्मचर्य’ का अर्थ केवल वीर्य रक्षा ही निकाला जाने लगा और आधुनिक युग में आठों प्रकार के मैथुन- स्मरण, श्रवण, कीर्तन, प्रेक्षण, केलि, शृंगार, गुह्यभाषण और स्पर्श—का त्याग ही ब्रह्मचर्य के नाम से पुकारा जाता है परमपद को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन अति आवश्यक है:—
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति
तत्ते पदंसंग्रहेण प्रवक्ष्ये॥ (8।12
वेद के जानने वाले विद्वान जिस सच्चिदानन्दघनरूप परमपद को ॐकार नाम से कहते हैं और आसक्ति रहित यत्नशील महात्मा जन जिसमें प्रवेश करते हैं तथा जिस परमपद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं उस परमपद को तेरे लिए मैं कहूँगा।’
कठोपनिषद् में ब्रह्मचर्य को परमात्मा प्राप्ति का साधन इस प्रकार बताया है:—
सर्वे वेदा यत्पदयाभवन्ति तयाँ सि
सर्वणि च यद्धदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति तत्ते पदँ
संग्रहेणा ब्रवीम्योमित्येतत्॥
“सारे वेद जिस पद का वर्णन करते हैं, संपूर्णतयों को जिसकी प्राप्ति का साधन बतलाते हैं तथा जिसकी इच्छा रखने वाले ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को मैं तुम से संक्षेप से बताता हूँ; ॐ यही वह पद है।’
उपर्युक्त दानों मन्त्रों से ब्रह्मचर्य की महत्ता पूर्ण रूप से स्पष्ट है। पर अपने पूर्वजों की ओर तो नजर डालिए वे कितनी उम्र प्राप्त करते थे, पर ऐसा क्यों? यदि वह हजारों वर्ष जीवित रहते थे तो क्या हम पूरे 100 साल भी सुख पूर्वक नहीं जी सकते? हम भी उनकी तरह ही दीर्घजीवी हो सकते हैं परन्तु इसके लिए हमको भी उनकी तरह ही अखण्ड ब्रह्मचर्य और तपस्या की आवश्यकता है। इस ब्रह्मचर्य के बल पर ही अकेले हनुमान जी ने हजारों राक्षसों पर विजय प्राप्त की थी और ब्रह्मचर्य की आन पर लक्ष्मण जी इन्द्रजीत का वध कर सके थे। वीरवर भीष्म की जो इतनी महिमा है वह उनके अखंड ब्रह्मचर्य पालन का ही फल है। इसी ब्रह्मचर्य के पालन के कारण उनका नाम भीष्म पड़ा। इसी व्रत के प्रभाव से महाप्रतापी परशुराम भी उन पर विजय प्राप्त करने में असमर्थ नहीं हुए। और तो और स्वयं भगवान श्री कृष्ण को भी शाँतनुसुत के सामने अपनी प्रतिज्ञा को तोड़कर महाभारत के युद्ध में शस्त्र ग्रहण करने पड़े। धन्य है ऐसा ब्रह्मचर्य। पर कुछ महानुभाव कहेंगे कि वह द्वापर और त्रेता युग था और अब है कलियुग, अब ऐसा कठिन साधन साध्य नहीं। पर हम कहते हैं कि इस कलियुग में भी ब्रह्मचर्य सम्भव है यदि कोई इच्छा करे। इस कलियुग में भी सैकड़ों ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपनी सारी आयु ब्रह्मचर्य पालन में ही व्यतीत की।
ब्रह्मचर्य के पालन करने से जहाँ एक ओर शरीर में बल, स्फूर्ति आदि की वृद्धि होती है वहाँ दूसरी और मन में प्रसन्नता रहती है, स्मरण शक्ति बढ़ती है, अंग-अंग से तेज टपकने लगता है, उत्साह सदैव ही सेवक के रूप में विद्यमान रहता है, बुद्धि में तीव्रता उत्पन्न होती है, इच्छा शक्ति बलवान बनती है, कायरता का तो नाम ही बुरा है, कर्त्तव्य शीलता का साम्राज्य रहता है, विपत्ति के समय धैर्य रहता है, वीर भाव उत्पन्न होता है, सात्विक भावों की वृद्धि होती है- क्षमा, दया, शाँति, सहानुभूति, अहिंसा, प्रेम, सत्य आदि सदैव ही पूर्ण रूप से विद्यमान रहते हैं।
इसके विपरीत कामी पुरुष के पास सर्वथा ही निराशा का साम्राज्य रहता है, स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है, प्रत्येक क्षण उसका मन अशाँत रहता है, वह, सदैव ही सशंकित रहता है, बहुत थोड़ी आयु में ही वृद्धावस्था घर दबाती है और थोड़े समय में ही वह यमपुर का मेहमान बन जाता है। वहाँ भी उसे तरह-तरह की यातनायें सहनी पड़ती हैं। इस प्रकार से हम देखते हैं कि ब्रह्मचर्य के नाश से न तो इह-लोक में ही सुख और न परलोक में ही। ऐसी अवस्था में सदैव ही सावधानी के साथ वीर्य की रक्षा करनी हितकर है।
ब्रह्मचर्य पालन में निम्नलिखित नियम सहायक सिद्ध होंगे—
1. सिनेमा का सर्वथा त्याग कर दें। आज-कल भारतवर्ष में जो सिनेमा दिखाये जाते हैं उनमें कामुकता को भड़काने वाला विष भारी मात्रा में भरा पड़ा है।
2. भोजन सदैव ही सात्विक करें, कभी भूल कर भी बासी, सड़ा हुआ अन्न, लाल मिर्च, खटाई, लहसुन, प्याज और तिरस्कार पूर्वक दिए गए अन्न का सेवन न करें। भोजन ताजा और सादा होना चाहिये जिस अन्न को खाया जाय वह ईमानदारी के कमाये गये पैसे से खरीदा गया हो।
3. नित्य आसन, प्राणायाम तथा व्यायाम का कुछ देर अभ्यास करें। खुली शुद्ध वायु का नित्य सवेरे और शाम को सेवन करें।
4. रात्रि में जल्दी सोकर सबेरे ब्राह्ममुहूर्त में निद्रा त्याग करे। सोते समय पेशाब करके और हाथ पैर धोकर सोए। सोते समय एक गिलास जल पीकर सोये और सबेरे जागते ही एक गिलास जल पी लें। सोते समय और सबेरे जागते ही भगवान का स्मरण करें।
5. सदैव लंगोट या कोपीन पहने रहे परन्तु वह हलके कपड़े का हो जिससे दाह न उत्पन्न हो।
6. मलमूत्र की हाजत को कभी न रोके। पेशाब करने और पाखाने के बाद हमेशा इन्द्रिय को शुद्ध जल से धो डाले।
7. स्त्रियों के पास न बैठे न बात करे, न ताश चौपड़ आदि खेले, न हँसी मजाक करे। यद्यपि कुछ लोग कहते हैं कि माँ बहिन का भाव रखे पर तौ भी उनसे अलग रहना ही ठीक है।
8. अधिकतर अपना समय सत्संग में व्यतीत करे, दुष्ट लोगों का संग भूल कर भी न करे।
9. स्वाध्याय करे जिसमें योगवाशिष्ठ रामायण, गीता, महाभारत, उपनिषद् आदि का पठन होना चाहिये।
10. नित्य अग्निहोत्र और संध्या करनी चाहिये।
11. इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिये कि यह शरीर नाशवान है, किसी दिन भी मृत्यु हो सकती है। अतएव अपना समय वेदाँत चर्चा और भगवद्जन में ही व्यतीत होवे भोग विलास में नहीं।
12. प्रत्येक स्त्री और पुरुष को चाहिये कि वह एक दूसरे में ऐसी धारणा करे कि यह शरीर बहुत अपवित्र वस्तुओं से बना है इससे मल, मूत्र, अस्थि, चर्म, रुधिर जैसी वस्तुऐं हैं जो कि सर्वथा अशुद्ध हैं।
13. स्त्री पुरुष में और पुरुष स्त्री में ऐसी भावना करे कि यह संसार इस अनन्त ब्रह्म का है इसमें जितनी प्राणी हैं सब उस दयालु प्रभु की ही सृष्टि हैं और इन सब में प्रभु का अंश है, सब एक हैं।
14. कम से कम चार व्रत एक मास में अवश्य करे....... दो एकादशी, एक पूर्णमासी और एक अमावस्या। यदि सम्भव हो तो अधिक उपवास अधिक हितकर हैं।
15. निरन्तर भगवान को याद रखे, कभी न भूले इसके लिए राम जप श्रेष्ठ साधन है। उसी प्रकार भगवद् भक्ति के उदित होते ही अज्ञान रूपी अन्धकार स्वयं ही नष्ट हो जाता है।
16. उपर्युक्त साधन करने पर भी यदि काम विकार मालूम हो तो फौरन ही टहलने लगे और नाम जप या भगवद् चिंतन करने लगे।
इन सब उपायों को तो काम में लाये ही, साथ ही पूर्ण सन्तोष प्राप्त करने के लिए हनुमान जी का एक अनुष्ठान करे। इस अनुष्ठान के पूर्ण होने पर हनुमान जी की कृपा से कामविकार पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है और साधक कपीश्वर की दया से तत्वज्ञान को प्राप्त करता है। इसकी विधि यह है:—
सर्व प्रथम सात-सात, छह, चार, आठ तथा चार मंत्राक्षरों के द्वारा षडंग-न्यास करके कपीश्वर हनुमान जी का इस प्रकार ध्यान करे:—
‘हनुमान जी का बाँया हाथ घुटने पर रखा हुआ है। दाहिना हाथ ज्ञान मुद्रा में स्थित हो हृदय से लगा है। वे आध्यात्म तत्व का चिंतन करते हुए कदलीवन में बैठे हैं। उनकी कान्ति उदयकाल के कोटि कोटि सूर्यों के समान है।’
इस प्रकार ध्यान करते हुए एक लाख इस मन्त्र का जप करे:— ॐ नमो हनुमते मम मदन क्षोभं संहर संहर आत्मतत्वं प्रकाशय प्रकाश हूँ फट् स्वाहा। इस मन्त्र में साड़े छत्तीस अक्षर हैं इसके वशिष्ठ मुनि अनुष्टुप् छन्द और हनुमान देवता हैं।
अन्त में एक बार फिर यह याद दिलाता हूँ कि ब्रह्मचर्य पालन में ही सुख है और उसके नाश में ही दुख, अतएव प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण रूप से कर्त्तव्य का पालन करे।