Magazine - Year 1956 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
दीपावली की पृष्ठभूमि
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(प्रो. श्री रामनिवास अग्रवाल, एम. ए.)
प्रत्येक राष्ट्र एवं जाति अपने बीते युग की स्मृति सुरक्षित रखने का प्रयास करती है क्योंकि वर्तमान का भवन निर्माण अतीत की नींव पर ही किया जाता है यही कारण है कि संसार के राष्ट्रीय पर्वों की आधार शिक्षा मनुष्य की उस प्रकृति पर निर्भर करती है जिसे वह अतीत की साँस्कृतिक स्मृतियों के संचय एवं संरक्षण में दत्तचित्त रखता है।
भारत के सम्बन्ध में यह तथ्य अत्यधिक सत्य है। पुरातन काल से ही भारत साँस्कृतिक पर्वों का स्थान रहा है जिनका आज राष्ट्रीय महत्व और भी बढ़ गया है। भारत के ये साँस्कृतिक पर्व धार्मिक वातावरण में पगे हैं क्योंकि भारतीय संस्कृति की मुख्य प्रेरणा धर्म रही है।
साँस्कृतिक पर्वों के साथ धार्मिक भावना और धार्मिक भावना के साथ लौकिक गाथाओं का सम्बन्ध भारत की अपनी विशेषता है। अतः भारतीय त्यौहारों की वह बहुत बड़ी विशेषता रही है कि चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा, जनता के हृदय में भारतीय संस्कृति के सारगर्भित मूल सिद्धान्तों को सुलभ रूप में समयानुसार जगाते रहे हैं इन पर्वों की अक्षुण्णता उसी तरह बनी रही है, जिस तरह अनेक प्रहारों एवं विदेशी आक्रमणों का सामना करते हुए भारतीय एकता भले ही परतन्त्रता जनित नवपोषित संस्कृति के झकोरों से इन त्यौहारों की दीपशिखा प्रकम्पित हुई हो परन्तु वह बाह्य संस्कृति के किसी झोंके से बुझी नहीं।
दीपावली के पीछे भी यह भावना लिपिबद्ध है। दीपावली का उत्सव प्रति वर्ष बड़ी सजधज और उत्साह के साथ सम्पूर्ण भारत में मनाया जाता है। इस ज्योतिमाला के द्वारा उपनिषदों का ‘तमसोमा-ज्योतिर्गमय’ का वालोकपूर्ण एवं आनन्दमय सन्देश पिछले सहस्रों वर्षों से हमें मिलता आया है। हो सकता है कि इस शृंखलाबद्ध दीपमाला के पीछे भी भारतीय ऋषियों की वही भावना कार्य कर रही हो जो उनके सामाजिक जीवन के विकास क्रम का बाह्य एवं आन्तरिक प्रतीक बन, इतिहास के तमसावृत्त पृष्ठों को फाड़ कर जीवन की प्रगति का निर्वाह करती हुई, आज तक हमारे राष्ट्रीय जीवन को प्रेरणा, शक्ति एवं आलोक प्रदान करती आई है। ऐसा मालूम पड़ता है कि भारतीय ऋषियों ने चार महीने की वर्षात के कारण जो गन्दगी होती होगी उसी को साफ करने के लिए तथा अमावस्या के अन्धेरे को भुलाने के लिए गन्दगी के स्थान पर शरद के रूप में आई हुई स्वच्छता की देवी, लक्ष्मी के आवाहन हेतु अमावस्या के अन्धेरे में दीपकों के आलोक से प्रकाश मय बनाने की धार्मिक भावना जोड़ दी हो, जो बाद में दीपावली कहलाई।
प्राचीन ब्राह्मण साहित्य में वात्सायन का काम-सूत्र भी दीपावली पर्व पर कुछ प्रकाश डालता है। कामसूत्र में उल्लेख मिलता है कि कार्तिकी अमावस्या को एक उत्सव मनाया जाता था, जिसे यक्षरात्रि उत्सव कहा जाता था।
ब्राह्मण साहित्य के अतिरिक्त प्राचीन भारत के बौद्ध और जैन साहित्य में भी दीपावली या उसी के अनुरूप पर्वों का वर्णन है।
बौद्धों के ‘पुष्फरत्त जातक’ में एक ऐसे त्यौहार का प्रसंग मिलता है जो कि कार्तिकी महीनों में मनाया जाता था और जिसका सम्बन्ध बुद्ध के ज्ञान प्राप्त के समय से जोड़ा जाता है। पर इस ऐतिहासिक प्रमाण के मिलने पर भी बौद्ध इतिहास में इस पर्व का कोई स्थान नहीं। अशोक बौद्ध धर्म का महान प्रचारक था उसने बुद्ध के जीवन सम्बन्धित घटनाओं को मूर्त रूप देने का प्रयत्न किया परन्तु उसके जीवन से सम्बन्धित ऐसी कोई घटना नहीं जिसमें दीपावली का उल्लेख हो।
कुछ लोगों ने इस त्यौहार की पृष्ठभूमि में जैन तीर्थ कर महावीर स्वामी का निर्वाण और उनके प्रिय शिष्य इन्द्रभूति गौतम को ज्ञान-लक्ष्मी की प्राप्ति बताया है जैन लोगों का कहना है कि दीपावली महावीर निर्वाण की स्मृति में ही मनाई जाती है। आज से करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में पाबा नगरी में भगवान महावीर का निर्वाण हुआ। निर्वाण की खबर सुनते ही सुर, असुर, मनुष्य, नाग गंधर्व आदि बड़ी संख्या में पाबा में एकत्र हो गये। रात अंधेरी थी अतः देवों ने रत्नों के दीपकों का प्रकाश कर निर्वाण उत्सव मनाया और उसी दिन कार्तिकी अमावस्या के प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में उनके प्रधान शिष्य इन्द्राभूति गौतम का ज्ञान-लक्ष्मी की प्राप्ति हुई थी। तब से प्रतिवर्ष उक्त तिथि को दीपावली का आयोजन होने लगा।
परन्तु सन्देह निवारण नहीं होता क्योंकि आज जिस रूप में दीपावली मनाई जाती है उससे ज्ञान प्राप्ति की भावना का सन्देश नहीं मिलता। आज तो दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा का विधान है जो कि धन की सूचिका, वाहिका, एवं देवी है साथ ही यदि महावीर के जीवन से सम्बन्धित घटना होती तो भारत के जीवन में व्याप्त न रह कर केवल जैन धर्मावलम्बियों के जीवन तक ही सीमित होती। यह भी नहीं कहा जा सकता कि दीपावली महावीर के समय से ही प्रचलित हुई क्योंकि ब्राह्मण युग में और उससे पूर्व भी इसकी विधि प्रचलित थी।
ऐतिहासिक प्रमाणों के इन अभावों में हमें प्रचलित विश्वासों का भी आश्रय लेना पड़ेगा। प्रचलित विश्वास के अनुसार दीपावली का श्रीगणेश राम के लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने के कारण माना जाता है। श्रीराम का रावण को मार कर अयोध्या लौट आना अयोध्यावासियों के लिए एक आनन्द सूचना थी। आनन्द से विभोर हो उन्होंने श्रीराम के सकुशल आगमन हेतु दीप जलाए और सम्पूर्ण अयोध्या नगरी को प्रकाशाभिभूत कर दिया। तभी से आज तक यह परम्परा चली आई है। परन्तु न तो वाल्मीकीय रामायण में और न अन्यत्र ही इस आशय का उल्लेख हमें मिलता है। यदि विजय उपलक्ष्य ही दीपावली पर्व का एक मात्र ध्येय रहा होता तो क्यों न प्राचीन भारत के राजाओं ने अपनी विजय कीर्तियों को चिर स्थायी बनाने के लिए दीप-स्तम्भ बनवाये। हो सकता है, सामग्री के अभाव में और वैज्ञानिक ज्ञान की कमी के कारण ऐसा सम्भव न हो सका हो।
परन्तु त्रेता में जिस प्रकार अयोध्या में दीपावली मनाई गई होगी उसका रोचक वर्णन गोस्वामी तुलसीदास कृत गीतावली में मिलता है—
साँझ समय रघुवीर पुरी की शोभा आज बनी।
ललित दीप मालिका विलोकहिं हितकर अवध धनी॥
घर घर मंगल चार एक रस हरखित रक धनी।
‘तुलसीदास’ कल कीरति गावहि जो कलिमल समनी।
कुछ भी हो भगवान राम के जीवन से इस घटना को जोड़कर प्राचीन महर्षियों ने उस भावना को जीवित रखने का प्रयत्न किया जब के आर्यों ने अनार्यों पर विजय प्राप्त की और पुरातन संस्कृति को कायम रखा।
प्रारम्भ में दीपावली का जो भारतीय साँस्कृतिक रूप रहा होगा उसकी कल्पना की जा सकती है। आज जिस धन-लक्ष्मी की पूजा इस पर्व पर होती है उसका भी ऐतिहासिक महत्व जान पड़ता है। इस पर्व का प्रयोजन एवं सर्वप्रियता हमें बाणभट्ट की रचना से प्राप्त होती है।
‘यह रण रूपी उपवन में भ्रमण करने वाली भ्रमरी लक्ष्मी जिस समय समुद्र मन्थन से निकली उसके साथ अन्य अनेकों वस्तुऐं भी निकलीं। उन प्रत्येक वस्तुओं के दोषों का समावेश लक्ष्मी में है। परित्रास पल्लव से इसने राग लिया। चन्द्रमा से टेढ़ापन, उच्चैश्रवा घोड़े से चंचलता, कालकूट से मोहन शक्ति, मदिरा से मद और कौस्तुभ मणि से अत्यन्त निष्ठुरता।”
सम्भवतः इन दोषों का परिहार करने के लिए ही भारतीय ऋषियों ने दीपावली का यह त्यौहार प्रारम्भ किया हो ताकि लक्ष्मी की शुद्धि करके उसका प्रयोग किया जा सके।