Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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बच्चों को भी विकसित होने दीजिए
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(श्री काशिनाथ त्रिवेदी)
जीवन में सच्ची स्वतंत्रता का अभाव आज भी हमारी सामाजिक जिन्दगी का सबसे बड़ा अभाव है। जहाँ स्वतंत्रता नहीं वहाँ विकास कैसे? विकास का अर्थ है गति, अप्रतिहत गति। जब आदमी किसी एक लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ता जाता है तो वह विकास के पथ पर होता है। लेकिन जहाँ जीवन का कोई लक्ष्य निश्चित नहीं वहां गति कैसी और विकास कैसा? हमारे औसत परिवारों की आज ऐसी ही स्थिति है। हम सब प्रवाह-पतित की तरह एक दिशा में बहते चले जा रहे हैं। किधर बह रहे हैं और क्यों बह रहे हैं, इसका विचार करने की भी हमें फुरसत नहीं है। इस सम्बन्ध की हमारी चेतना मानों सो गई है। गतानुगतिकता ने हमें मोह लिया है। हम भेड़िया-धसान के चक्कर में फँस गये हैं। स्वतन्त्र रूप से कुछ सोचने-समझने और करने की हमारी शक्ति का दिवाला सा पिट गया है। हम हततेज और हतबुद्धि से हो गये हैं। यही वजह है कि विकास के क्षेत्र में हम सामूहिक रूप से बहुत पिछड़े हुए हैं। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक हमें अपना सारा जीवन दूसरों के इशारों पर बिताना पड़ता है। जीवन में स्वतन्त्र रूप से कुछ करने धरने का हमें अवसर ही नहीं मिलता। घर में भी नहीं, समाज में भी नहीं और राज-दरबार में भी नहीं। हम अपने घर में भी स्वतन्त्र नहीं, वहाँ भी दुनियाभर के बन्धन हमारी स्वतन्त्र चेतना को चारों ओर से जकड़े बैठे हैं और हमारी मनुष्यता का गला घोंट रहे हैं। जब समाज के और घर के कर्ता-धर्ता की यह स्थिति है तो फिर बच्चों की दयनीय स्थिति का तो पूछना ही क्या? उन बेचारों को तो तिहरी गुलामी में रहना पड़ता है ऐसी दशा में उनकी शक्तियों का जो भी विकास हो जाता है, सो गनीमत है।
विकास मनुष्य का स्वभाव धर्म है। विकास सृष्टि का नियम भी है। कुछ विकास सहज होता है, कुछ यत्न पूर्वक किया जाता है। विकास की श्रेणियाँ और अवस्थायें भी भिन्न-भिन्न होती हैं। साधारण मनुष्य विकास का भूखा होता है। अपने जन्म के दिन से वह जाने अनजाने विकास की ओर बढ़ता रहता है। विकास उसके जीवन की सहज गति है। पर विकास का मार्ग निरापद नहीं। वह बाधाओं से भरा पड़ा है। यदि इन बाधाओं से बचकर आगे बढ़ने की चिन्ता न रखी जाय तो विकास का क्रम बिगड़ जाता है, थम जाता है।
आज हमारा राष्ट्र विकास के पथ पर आगे बढ़ रहा है। सदियों बाद वह स्वतंत्र हुआ है। सदियों की गुलामी के बाद आज उसे अपना विकास खुद करने की आजादी मिली है। राष्ट्र का विकास एकाँगी नहीं होता न होना चाहिए। उसे सब दिशाओं में और सब क्षेत्रों में आगे बढ़ने की चिन्ता रखनी होती है। जो राष्ट्र इस मामले में सजग और सावधान होते हैं, वे थोड़े समय में अपने पुरुषार्थ से खूब शक्तिशाली और सम्पन्न बन जाते हैं। प्रमाद में पड़े पथ भूले राष्ट्रों के विकास की गति धीमी और खंडित होती है। उनका लोक-जीवन उतना समतपूर्ण, प्रसन्न और समृद्ध नहीं होता जितना असल में उसे होना चाहिये।
दुनिया के सभी देशों में बालक की महिमा गायी गई है। आज भी गायी जाती है। बालक राष्ट्र की अनमोल निधि है। राष्ट्र की नींव में बालक बैठा है। जो राष्ट्र अपने बालकों की सही-सही सार-सँभाल रखता है, उसे अपने जीवन में कभी पछताना नहीं पड़ता क्योंकि आज का बालक ही कल का नागरिक बनता है और राष्ट्र की बागडोर सम्भालता है। जैसा बालक होगा, वैसा ही राष्ट्र बनेगा। दुनिया में सर्वत्र यही हो रहा है। हिन्दुस्तान में भी आज हम इसी सत्य के दर्शन कर रहे हैं।
हमने अपने देश में अपने बालकों की कम-से-कम चिन्ता की है। उनके विकास के लिए कम-से-कम पुरुषार्थ किया है। उनके सर्वांगीण विकास के साधनों को जुटाने की तरफ हमारा ध्यान नहीं के बराबर हो गया है। हमने अपने घरों में, विद्यालयों में, समाज में और राज-दरबार में ऐसा कोई वातावरण भी नहीं बनाया कि जिसके बीच जीकर हमारा बालक सहज भाव से सुसंस्कृत और सुविकसित बन सके। विकृति के अनेक क्षेत्र हमने अपने बीच बढ़ाकर और फैलाकर रक्खे हैं। संस्कृति के सुन्दर केन्द्रों का व्यापक विकास करने की तरफ हमारा ध्यान आग्रह के साथ जाना चाहिए, पर जा नहीं रहा है। इसी कारण आज हमारे बालकों का जीवन चारों तरफ से रुँधा पड़ा है और उन्हें ऊपर उठने के इने गिने अवसर ही मिल रहे हैं। आज हमारे समाज में बालक जितने दलित और उत्पीड़ित हैं, उतने और कोई शायद नहीं है। पर हमें अपनी इस स्थिति का न तो पूरा भान है, और न इससे ऊपर उठने की चिन्ता ही है। आज यही हमारे समाज के विचारशील लोगों की सबसे बड़ी चिन्ता का विषय हो, तो इसमें आश्चर्य नहीं।
जिन घरों में बालक खा-पीकर और पहन-ओढ़कर सुखी हैं, वहाँ भी वह एक दूसरी दृष्टि से भूखा, प्यासा और बेआसरा पड़ा हुआ है; क्योंकि मनुष्य का जीवन पशु-जीवन से भिन्न है। मनुष्य भाव का भूखा होता है। मनुष्य स्वाभिमान को प्राणों से भी अधिक मूल्यवान समझने वाला प्राणी है। मनुष्य अपनों से और गैरों से भी आदर, सत्कार, स्नेह और सराहना की चाह रखता है। मनुष्य स्वयं अपने हाथों कुछ करने की इच्छा रखता है और करके सुखी होता है। मनुष्य को पराधीनता प्यारी नहीं लगती। मनुष्य अपने बल-बूते जीकर अधिक शक्तिशाली बन सकता है, बनना चाहता है। उसे बन्धन पसंद नहीं होते, वह खुला और स्वतन्त्र जीवन बिताने का इच्छुक होता है। दूसरों के बन्धन में बँधने की अपेक्षा अपनी इच्छा से अपनाये हुए बन्धन उसके लिए अधिक लाभकर होते हैं और उनके द्वारा वह अपनी सच्ची उन्नति और मानवता की सही उपासना करता है। यह स्वस्थ और संस्कारी मनुष्य का अपना वैभव है।
आज हमारा बालक घरों में, मदरसों में और समाज के बीच इस वैभव से वंचित है। जैसे-तैसे जी रहा है। हमने उसे जीवन का कोई स्वस्थ और मनोवैज्ञानिक क्रम अभी निश्चित नहीं किया है। वह भगवान् का भेजा हमारे बीच आता है और भगवान् के भरोसे ही जीने व बढ़ने लगता है। उसके सम्मान का हमारा ज्ञान तो बहुत ही अल्प और अपर्याप्त है। हम न उसके शरीर की आवश्यकताओं को ठीक से जानते हैं, न उसके मन और मस्तिष्क की आवश्यकताओं की सही-सही जानकारी रखते हैं, फिर हमें उसकी आत्मा की भूख का तो भान ही क्यों होने लगा अमीर-से-अमीर और गरीब-से-गरीब घरों में जीने और पलने वाले हमारे बालकों का यह घोर दारिद्रय हमारी वर्तमान अवनति के और लड़खड़ाती चाल से बढ़ने वाली प्रगति के लिए जिम्मेदार है।
जन्म से सात साल की उम्र तक के बच्चों के सर्वतोमुखी विकास के लिए हम व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से बहुत ही कम चिन्ता करते हैं। बच्चों के जीवन का अत्यन्त कीमती समय हमारे इस घोरतम प्रमाद के कारण व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है। मनोविज्ञान के ज्ञाता और शिक्षा-शास्त्र के विशेषज्ञों का कथन है कि सात साल से पहले की उमर ही बच्चों के जीवन का सच्चा और सही नियम निर्माण करने वाली उमर होती है। यदि इस उमर में पूरी सतर्कता से काम लेकर बालकों के विकास की पर्याप्त चेष्टा न की गई तो बाद में उन पर किया जाने वाला सारा खर्च और परिश्रम बेकार हो जाता है। यह एक ऐसी सचाई है जिस पर दो रायें हो नहीं सकतीं। काश, हम अपने बालकों के बारे में इस नई दृष्टि से सोचें, नये बाल-मनोविज्ञान और बाल-शिक्षा-शास्त्र का गहरा अध्ययन करें और नई भावना से युक्त होकर घरों तथा विद्यालयों में अपने बाल-गोपाल के लालन-पालन का और उनकी वास्तविक शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबन्ध करने में पूरी श्रद्धा से जुट जायँ।
बाल-विकास के बिना राष्ट्र का विकास असम्भव है।