Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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अपने चित्त को प्रसन्न रखिये
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(श्री दौलत राम कटरहा, दमोह)
महाकवि वाल्मीकि ने अयोध्याकाँड के प्रथम सर्ग के प्रारम्भ में भगवान रामचन्द्र के सम्बन्ध में लिखा है कि वे सर्वदा प्रसन्न रहते थे। उनका चित्त शाँत था। कोई कुछ कठोर वचन कह दे तो उसका कुछ उत्तर न देते थे प्रत्युत उससे प्रेमपूर्वक बोलते थे। वे अक्रोधी थे। उनका किसी ने कभी कोई उपकार कर दिया तो उसी से संतुष्ट हो जाते थे, उनका कोई सैकड़ों अपकार करे तो भी वे उधर ध्यान नहीं देते थे, और अपकारी के प्रति क्रोध कर वे बदला लेने के लिये तैयार नहीं हो जाते थे क्योंकि उनका अपने मन
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आ सकता है, कि बाहरी चकाचौंध में छिपी हुई सी भारत की अन्तरात्मा ने अपनी पारिवारिक शैली सद्भाव के प्रति अपनी अविरल आस्था का कभी परित्याग नहीं किया, नहीं तो उक्त विषय का सबलता से प्रतिपादन करने वाले इस ग्रन्थ का इतना आदर नहीं हो पाता। यदि आज भी किसी परिवार में गोस्वामी जी द्वारा वर्णित-सुविचारित पारिवारिक शील हो तो वह यहीं प्रत्यक्ष स्वर्ग सुख का अनुभव ले सकेगा। फिर संयुक्त परिवार को तोड़-फाड़ कर एकांगी, संकीर्ण स्वार्थ भरा वैयक्तिक उच्छृंखल जीवन कभी भी किसी में रुचि और खिंचाव पैदा नहीं कर सकेगा।
माता की वात्सल्य भरी त्याग भावना, भाई की भाई के प्रति निश्छल, सेवा भाव पूरित भक्ति और प्रेम, पत्नी की एकात्मता, कष्ट-सहन, सुखद स्थिति का उत्सर्ग, सत्य की रक्षा के लिये प्राणों का मोह छोड़ना, सास का पतोहू को सुखी रखने की उदार हार्दिक चिन्ता और व्यवस्था, पुत्र का माता-पिता के आदेश पालन के लिये, कष्ट सहन, राज्य परित्याग आदि की दिव्य छटा देखते ही बनती है। सुमित्रा, भरत, सीता, दशरथ, कौशल्या, राम सभी इसकी आदर्श प्रतिमा जैसे ही बने हुए हैं।
माता का त्याग भरा वात्सल्य
लक्ष्मण को वनवास नहीं दिया गया था, पर विदाई के लिये माता सुमित्रा के पास आते ही माता स्वयं ही पुत्र को आदेश देती हैं :—
तात तुम्हारी मातु वैदेही।
पिता राम सब भांति सनेही॥
अवध तहाँ जहँ राम निवासू।
तहँइ दिवस जहँ भानु प्रकाशू॥
जो पै सीय रामु वन जाहीं।
अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥
जहाँ सौतेले बेटे के लिये माता स्वभावतया ही अपने कुक्षिज पुत्र को राज्य और घर का सुख छोड़कर भाई की सेवा में जाने का आदेश करती है—ममता को अन्दर-अन्दर ही पी जाती है, वहाँ स्वर्ग नहीं तो क्या है?
लक्ष्मण जी सौतेले भाई होते हुए भी बड़े भाई की सेवा में रहने के लिये उतावले हैं और यहाँ तक कह देते हैं—
गुरु पितु मातु न जानऊँ काहू।
कहऊँ सुभाव नाथ पतिआहू॥
जहँ लगि जगत सनेह सगाई॥
प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई॥
मोरे सबई एक तम्ह स्वामी।
दीन बन्धु उर अन्तरजामी॥
भरत जी, जिसके राज्य-सुख के लिये ही इतने सारे उपद्रव-वैमनस्य और द्वेष अपने ऊपर उसकी माता कैकेयी ने उठा लिये थे, वे अपने सौतेले भाई के वन जाने का कारण जानते ही माता से कह बैठते हैं—
जो पै कुरुचि रही अति तोही।
जनमत काहे न मारेसि मोही॥
भरत जी को यह सोच कर असीम वेदना होती है।
“मैं केवल सब अनरथ हेतु”
“मोहिं लगि मे सिय राम दुखारी”
और राज्य भोग की सभी अनुकूलता होने पर भी उसे छोड़ राम को मनाने के लिये जंगल चल पड़ते हैं और अन्त में अपनी जिद और इच्छा को त्याग कर भाई रामचन्द्र जी के आदेश से पादुका को आधार बनाकर अयोध्या लौट आते हैं और तपस्वी तथा सेवक बनकर राम का राज्य संभालने की सेवा करते हैं।
राजा दशरथ जी को पुत्र राम से इतना मोह है कि वे सभी दुःख, अपयश और नरक का दुःख उठा कर भी राम को वनवास का कष्ट देना नहीं चाहते, पर अपने दिये वचन की सत्यता को रखने के लिये प्राण त्याग कर भी मुख से राम को रहने की आज्ञा नहीं देते- वे मन ही मन शिवजी से प्रार्थना करते हैं-
तुम्ह प्रेरक सब के हृदय, सोमति रामहिं देहु।
वचनु मोर तजि रहहिं घर, परिहरि शील सनेहु।।
अजसु होउ जग सुजस नसाऊ।
नरक परौं वरु सुरपुर जाऊँ।।
सब दुख दुसह सहावहु मोहीं।
लोचन ओट राम जनि होहीं।।
माता कौशल्या के हृदय में वात्सल्य और ममत्व के साथ कर्तव्य का उत्पीड़क संघर्ष मच जाता है– उसे विश्वास है कि पिता की आज्ञा होने पर भी माता की आज्ञा के बिना वे जंगल नहीं जा सकते, फिर भी असीम धैर्य धारणा पूर्वक कहती है:—
तात जाउं वलि कीन्हेहु नीका।
पितु आयसु सब धरमक टीका॥
जौं केवल पितु आयसु ताता।
तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता।।
जौं पितु मातु कहेउ वन जाना।
तौ कानन सत अवध समाना॥
अपने सौतेले बेटे भरत के प्रति भी कौशल्या माता का प्रेम कितना अपार और विशाल है, जो चित्रकूट में जनक पत्नी से वार्ता करते हुए प्रगट होती है, वे कहती हैं:—
लखनु रामसिय जाहु वन भल परिणाम न पोचु।
गहवरि हियं कह कौशिला मोहि भरत कर सोचु॥
पराये घर की लड़की-पतोहू सीता को सास कौशल्या कितना स्नेह करती थी यह भी वन जाने के समय प्रगट होता है:—
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई।
राखेउं प्राण जानकि हिं लाई॥
और स्वयं सीता जी भी जो पतोहू का कर्त्तव्य भली भाँति जानती है और उसे पालन करना चाह कर अन्य महान् कर्त्तव्य के सामने विवशता से छोड़ना पड़ता है। वह कहती है-
एहिते अधिक धरम नहीं दूजा।
सादर ससु ससुर पद पूजा॥
सेवा समय दैव वन दीन्हा।
मोर मनोरथ सफल न कीन्हा॥
वह महान कर्त्तव्य जो प्रत्येक नारियों का है, जिसके लिये सीता जी को सासु-ससुर की सेवा रूपी धर्म को छोड़ना पड़ रहा है- सास के सामने संकोच सहित अपने पति से कह रही हैं:—
जहाँ लगि नाथ नेह अरु नाते।
पिय बिनु तिय हिं तरनिं ते ताते॥
जिय बिन देह नदी बिन बारी।
तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥
राम का शील तो पर्याप्त व्यापक है, माता, पिता, भाई, मित्र-सखा परिजन-प्रजा, सास, ससुर, पत्नी, कुटुम्ब, गुरु, ऋषि, मुनि सभी के साथ उनका व्यवहार उनका शील नित्य-अनुसरणीय है।
यद्यपि विमाता कैकेयी अपने तथा अपने पुत्र के सुख-स्वार्थ के लिये राम को जंगल भेज रही है, फिर भी कैकेयी के मुख से ही यह संवाद सुनकर रामचन्द्र जी कहते हैं:—
सुनु जननी सोइ सुत बड़ भागी।
जो पितु मातु वचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनि हारा।
दुर्लभ जननी सकल संसारा॥
पुत्र के वियोग की कल्पना से पिता दशरथ व्यथा से मर रहे हैं, उनकी वाणी रुद्ध हो रही है, पर उनका मौन देखकर राम अपने में ही दोष ढूंढ़ने लगते हैं, सोचते हैं शायद मेरे द्वारा हुए किसी दोष से ही पिता जी व्यथित होकर नहीं बोल रहे हैं और माता कैकेयी से कहते हैं-
राउ धीर गुन उदधि अगाधू।
भा मोहिं तें कछु बड़ अपराधू॥
जब लक्ष्मण सुमन्त के सामने आविष्ट भाव से पिता के प्रति कुछ कठोर-वाणी कह जाते हैं तो राम इस आघात से पिता को बचाने का प्रयत्न करते हैं। वे सुमन्त से कहते हैं—
सकुचि राम निज शपथ देवाई।
लषन सन्देश कहिय जनि जाई॥
इसीलिये ऐसे पुत्र के वियोग में पिता का जीवन धारण करना दूभर हो जाता है और वे—
राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम।
तनु परिहरि रघुवर विरह, राउ गयउ सुरधाम॥
चित्रकूत्र में रामचन्द्रजी भरतजी की अपार व्यथा और ग्लानि को धोने के लिये कहते हैं—
उर आनत तुम पर कुटिलाई।
जाइ लोक परलोक नसाई॥
कहउँ सुभाउँ सत्य शिव साखी।
भरत भूमि रह राउर राखी॥
जब तक भारत में सत् शील भरा साहित्य है और जनता में ऐसे साहित्य को पढ़ने में आस्था, प्रेम और सुरुचि है, तब तक भौतिक सभ्यता की भयंकर आंधियों और तूफानों के बीच भी भारत का पारिवारिक शील सदा सुरक्षित है।