Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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आलस्य न करना ही अमृत पद है।
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(प्रो. रामचरण महेन्द्र, एम. ए.)
बुद्ध भगवान ने एक स्थान पर कहा है कि “अप्रमाद ही अमृत पद है।” अप्रमाद अर्थात् आलस्य न करना ही उन्नति के इच्छुक के लिए श्रेष्ठ है। आलस्य करने से बड़े से बड़े शक्तिशाली व्यक्ति, सम्पन्न व्यापारी, समृद्ध देश, समुन्नत जातियाँ विनष्ट हो जाती हैं। कारण, आलस्य से मनुष्य का मन, बुद्धि और शरीर तीनों ही दुर्बल बन जाते हैं और उच्च शक्तियाँ पंगु हो जाती हैं।
कहा भी है, “श्रद्धावान् लभते ज्ञान तत्परः संयतेन्द्रियः” कार्य में तत्पर संयमी एवं श्रद्धालु को ही ज्ञान प्राप्त होता है। जो आलस्य में जीवन व्यतीत नहीं करता और निरन्तर कार्यरत रहता है, उसे दीर्घायु प्राप्त होती है।
आलसी व्यक्ति के लिए किसी भी प्रकार की उत्कृष्टता प्राप्त करना कठिन है। कारण, वह अपनी शक्तियों को आलस्य की केंचुली में ढके रहता है। उद्योग तथा परिश्रम द्वारा उन्हें विकसित नहीं कर पाता। जब तक उद्योग नहीं, परिश्रम में प्रवृत्ति नहीं, तब तक शक्तियों का विकास नहीं हो सकता। आलस्य और उन्नति साथ-साथ नहीं चल सकते।
आलस्य एक प्रकार का अन्धकार है, आत्मा पर, शक्तियों पर और मनुष्य की भावी उन्नति एवं प्रगति पर तुषारापात कर देता है। आलसी पड़ा-पड़ा यही सोचा करता है कि मेरा काम कोई अन्य व्यक्ति कर दे; मेरी तरक्की करा दे। बाजार से मेरे घर की नाना वस्तुएँ ला दे; दफ्तर का काम भी अन्य कोई साथी ही कर दे। आलसी अफसर अपने छोटे मातहतों के वश में रहते हैं। वे जो पत्र या ड्राफ्ट लिख देते हैं, उसी पर हस्ताक्षर कर देते हैं। ठीक है या गलत, उचित है या अनुचित, क्या बातें लिख दी गई हैं, यह भी नहीं देखते। बड़े-बड़े व्यापारियों के दिवाले प्रायः उनके हिसाब किताब आय-व्यय का ठीक ब्योरा न रखने के कारण निकलते हैं। वे उधार पर उधार दिये जाते हैं, पर उसे वसूल करने में आलस्य करते हैं। रकमें उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं। और अन्त में सारी पूँजी ही उधार वालों में बँट जाती है। आलसी माता-पिता अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई उन्नति आदि को नहीं देखते। फलतः बच्चे उतनी उन्नति नहीं कर पाते जितना वस्तुतः उन्हें करना चाहिए। यदि वे अपना आलस्य छोड़कर उन पर एक तीखी दृष्टि रखा करें, स्वयं भी काम में अपना सहयोग देते रहें, तो पर्याप्त प्रगति हो सकती है।
प्रकृति को देखिए, उसका काम कैसा नियमबद्ध होता है। प्रत्येक वस्तु अपना-अपना निर्धारित कार्य निश्चित समय पर करते चलते हैं। आलस्य का नाम निशान तक नहीं। आलसी सदस्यों के प्रति प्रकृति बड़ी निष्ठुर है। आलसी की बड़ी दुर्गति होती है। अन्त में सजा के तौर पर तहाँ मृत्यु दण्ड तक का विधान है। प्रकृति का प्रत्येक सदस्य अन्त तक अपना काम सक्रियता से करता है।
पशु-पक्षियों में भी आलस्य को स्थान नहीं है। मधुमक्खियों के छत्ते में नर मक्खी का कार्य केवल संतानोत्पत्ति मात्र है। वह कोई कार्य नहीं करता। बैठा-बैठा खाता है। आलसी अकर्मण्य पड़ा रहता है। आप जानते हैं, उसे इसकी क्या सजा मिलती है? तिरस्कार, और व्यंग्य, ठोकरें और अन्त में मृत्यु। मादा मक्खियाँ दिन भर जी तोड़ कर परिश्रम करती हैं। कुछ न कुछ मधु संचित करती जाती हैं। फलतः उनके छत्ते में समृद्धि का भंडार बना रहता है। पर्याप्त संग्रह होने पर भी वे आलस्य नहीं करतीं। उनका श्रम उसी रफ्तार से चलता रहता है। अन्य पशुओं में भी आलसी पशु पक्षियों की दुर्गति है।
अब मनुष्यों के समाज की ओर देखिए। उद्योगी और परिश्रमी व्यक्ति ही आपको सुखी और समृद्ध दिखाई देंगे। मनुष्य का जन्म भले ही निर्धन परिवार में हो। उसके पास जाति श्रेष्ठता या घर की जमीन-जायदाद कुछ भी न हो, केवल उद्योग और श्रम की आदतें हों, आलस्य से मुक्त हो, तो वह धनाढ्य और कीर्ति प्राप्त कर सकता है।
कीर्ति और लक्ष्मी श्रम और उद्योग के आधीन हैं। जो आलस्य नामक शिथिल करने वाली और शक्तियों को पंगु बनाने वाली आलसी वृत्ति को छोड़ेगा, वह निश्चय ही यश प्रतिष्ठा और कीर्ति प्राप्त करेगा।
आलस्य एक प्रकार का तमोगुण से उत्पन्न विकार है। बहुत से मनुष्य अनापशनाप भक्ष्य अभक्ष्य अनेक पदार्थ बड़ी तादाद में भक्षण कर लेते हैं। अधिक भोजन से उन्हें निद्रा बहुत सताती है। राक्षसों की तरह पड़े-पड़े सोया करते हैं, अकर्मण्य बन जाते हैं और अपने दैनिक कर्त्तव्यों का भी पूरी तरह पालन नहीं कर पाते। दफ्तर में, दुकान में, अपने वायदों में तमोगुणी व्यक्ति सदा पिछड़ा रहता है। जैसे सर्प केंचुली में लिपट कर निष्क्रिय हो जाता है; एक स्थान पर पड़ा रहता है, वैसे ही आलस्य में फँसकर हमारा मन थोड़ी देर के लिए काम से दूर भागता है। बस पड़े रहें, कुछ न करें, यही तबियत चाहती है। आपने अजगर देखा है। उसका बहुत बड़ा शरीर है। पूरे के पूरे जानवर निगल जाता है और फिर पड़ा-पड़ा सोया करता है। 10-10 दिन सोते हुए व्यतीत हो जाते हैं। सोते हुए उस पर नाना विपत्तियाँ आती रहती हैं। इन्द्रिय सुख, अधिक भोजन, विषय भोग, बलात्कार, व्यभिचार, अहंकार, क्रूरता, निष्ठुरता- इन सब बुरे विकारों का सम्बन्ध आलस्य से है। फालतू पड़ा हुआ दिमाग शैतान का घर है- यह सत्य अंक है। आलसी पड़ा-पड़ा बुरी वृत्तियों का शिकार बनता जाता है। उसकी आसुरी वृत्तियाँ उद्दीप्त हो उठती हैं। भोग की इच्छा ही उसमें निरन्तर बढ़ती जाती है। आलसी इस कर्मक्षेत्र के लिए तो किसी काम का रहता ही नहीं, उच्च जीवन, त्याग, प्रेम तप संयम भी नहीं साध पाता। आलस्य और परमार्थ का बैर है। अतः वह नाली के कीड़े की तरह वासना-सुख को ही जीवन का लक्ष्य मानता रहता है।
संसार के इतिहास को उठा देखिए। वे जातियाँ नष्ट हो गईं, जो आलसी और विलासी बनीं। जिस जाति और समाज में आलस्य भर जाता है, वह यश, प्रतिष्ठा और नेतृत्व तीनों ही दिशाओं में अवनति के मार्ग पर अग्रसर होती जाती है। इन्द्रिय सुख, विलास, और आलस्य उसको जर्जर तथा अशक्त कर देते हैं।
एक विद्वान ने सत्य ही लिखा है, “सर्वतोमुखी उन्नति के लिए यह जरूरी नहीं है कि मनुष्य धनी हो अथवा उसके पास सब प्रकार के साधन मौजूद हों। यदि ऐसा होता, तो संसार उन सब युगों में उन मनुष्यों का ऋणी न होता, जिन्होंने निम्न श्रेणी से उन्नति की है। जो मनुष्य आलस्य और ऐश आराम में अपने दिन बिताते हैं, उनको उद्योग अथवा कठिनाइयों का सामना करने की आदत नहीं पड़ती और न उनको उस शक्ति का ज्ञान होता है, जो जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए परम आवश्यक है। गरीबी को लोग मुसीबत समझते हैं, परन्तु वास्तव में बात यह है कि यदि मनुष्य दृढ़तापूर्वक अपने पैरों पर खड़ा रहे तो वह गरीबी उसके लिए आशीर्वाद हो सकती है। गरीबी मनुष्य को संसार के युद्ध के लिए तैयार करती है जिसमें यद्यपि कुछ लोग नीचता दिखा कर विलास प्रिय हो जाते हैं, परन्तु समझदार और सच्चे हृदय वाले मनुष्य बल और विश्वास पूर्वक लड़ते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं।”
आज का मनुष्य समय न मिलने की बड़ी शिकायत किया करता है। अध्ययन, समाचार पत्र पठन पाठन, पूजा पाठ, सद्ग्रन्थावलोकन या प्रातः भ्रमण इसलिए नहीं करते, क्योंकि उनकी राय में उन्हें इन कार्यों के लिए अवकाश ही नहीं मिलता। वास्तव में ये व्यक्ति अपना अधिकाँश समय आलस्य में ही खो देते हैं। फुरसत में अमुक काम करूंगा, अवकाश मिलने पर अमुक से मिलने जाऊँगा; पूजा शुरू करूंगा, जप, प्रार्थना इत्यादि प्रारम्भ करूंगा, अमुक को पत्र लिखूँगा- पर आलसी वृत्ति उन्हें निरन्तर टालती ही रहती है। ठोस काम करने का अवसर ही नहीं आता। टालने से उत्साह मन्द पड़ जाता है और फल यह होता है कि आवश्यक कार्य भी सम्पन्न नहीं हो पाते।
मान लीजिए आप प्रातः छह बजे उठने के आदी हैं। यदि आलस्य त्याग आप किसी प्रकार प्रातः पाँच बजे उठ जाया करें, तो एक घंटा जीवन का और मिल सकता है। महीने में तीस घंटे मिल गए। अब यदि इन तीस घण्टों में कोई नया काम प्रारम्भ किया जाय, तो निश्चय ही आप संसार को कोई नयी वस्तु देकर अपना नाम चिरस्थायी बना सकते हैं।
प्रसिद्ध विचारक श्री अगरचन्द नाहटा ने आलस्य के इस पक्ष पर विचार करते हुए लिखा है- “जो कार्य अभी हो सकता है, उसे घंटों बाद करने की मनोवृत्ति आलस्य की निशानी है। एक कार्य हाथ में लिया और करते चले गए, तो बहुत से कार्य पूर्ण हो सकेंगे। पर बहुत से काम एक साथ लेने से किसे पहले किया जाय, इसी दुविधा में समय बीत जाता है और एक भी कार्य पूरा और ठीक से नहीं हो पाता है। अतः जो कार्य आज और अभी हो सकता है, उसे कल के लिए न छोड़ तत्काल कर डालिये। दूसरी बात ध्यान में रखने की यह है कि एक साथ अधिक कार्य हाथ में न लिए जायं, क्योंकि किसी भी कार्य में पूरा मनोयोग व उत्साह न रखने से सफलता नहीं मिल सकेगी। अतः एक-एक कार्य को हाथ में लिया जाय और क्रमशः सब को कर लिया जाय, अन्यथा सभी कार्य अधूरे रह जायेंगे, और पूर्ण हुए बिना किसी भी काम का फल नहीं मिल सकता। जैन ग्रन्थों में बाधा डालने वाली तेरह बातों में आलस्य पहली है। बहुत बार बना बनाया काम तनिक से आलस्य के कारण बिगड़ जाता है। क्षण मात्र भी प्रमाद न करने का भगवान महावीर ने उपदेश दिया है। अतः पुनः विचार कर प्रमाद का परिहार कर कार्य में उद्यमशील होना परमावश्यक है। जैन-दर्शन में प्रमाद निकम्मेपन के ही अर्थ में नहीं है, परन्तु समस्त पापाचरण के आसेवन के अर्थ में भी है। पापाचरण करके जीवन के बहुमूल्य समय को व्यर्थ न गंवाइये। आत्मा की शक्ति का ठीक तरह उपयोग नहीं होता, तो पापाचारी व्यक्ति उसका दुरुपयोग करता है।”
आलस्य से मुक्त कैसे हों? पहले तो आलस्य के विरोध में मन में दृढ़ संकल्प कीजिए। हम अपने चरित्र में आये हुए आलस्य को अवश्य दूर करेंगे, जब आलस्य आकर हमारे मन और इन्द्रियों को शिथिल करेगा, हम फौरन सचेत हो जायेंगे। समय का उचित उपयोग करेंगे—मन में यह धारणा जम जाने के बाद सक्रियता की आवश्यकता है।
मान लीजिये आपने निश्चय किया है कि आप बड़े तड़के चार बजे ही उठ बैठेंगे। शौचादि व्यायाम स्नान-पूजन-प्रार्थना आदि नित्य कर्म एक घण्टे में समाप्त कीजिये और पाँच बजे ही अपने दैनिक कार्य में पूर्ण मनोयोग से जुट जाइए।
जब आप प्रातःकाल शय्या त्याग करने का प्रयत्न करेंगे, तो मन का शैथिल्य आपको कुछ देर और सोये पड़े रहने के लिए खींचेगा। शरीर कोमल शय्या पर पड़ा रहना चाहेगा। यही आपकी परीक्षा का क्षण है। फौरन उठ पड़िये और आलस्य नामक राक्षस को पछाड़ दीजिये।
जिस कठिन कार्य को करने के लिये तबियत में आलस्य उत्पन्न हो, उसे जरूर किया कीजिये। मान लीजिये आप मन में यह अनुभव करते हैं कि अमुक व्यक्ति से मिलने जाना आवश्यक है, तो मन को मोड़ कर जरूर यह काम कीजिये। जिन-जिन पत्रों का उत्तर लिखना है, अवश्य ही उनका उत्तर लिखिये। लिखने में आलस्य कभी न कीजिए।
संभव है आपको मानसिक श्रम से आलस्य हो? आप कठिन विषयों के अध्ययन में चित्त को एकाग्र न कर पाते हों। दिल बहलाव की कहानियों, पुस्तकों, उपन्यासों या कामुक रुचि बढ़ाने वाले साहित्य में ही दिलचस्पी लेते हों, यदि ऐसा है तो मन को दृढ़ता से इन गम्भीर शुष्क विषयों में दिलचस्पी लेने वाला बनाइये सब ओर से मन हटाकर एक ही विषय पर देरी तक मन को केन्द्रित कीजिये। जो समय आपने उक्त विषय के अध्ययन के लिए निश्चित किया है, उतनी देर अवश्य पढ़िये अन्यथा एकबार शैथिल्य आने से आदत और अनुशासन भंग हो जाएगा और निश्चय बल भी कम हो जायगा।
हमें फासिस्ट शिक्षा-पद्धति की कुछ उपयोगी बातें विशेषतः उनका अनुशासन और किसी समय भी बेकार न बैठने का नियम अवश्य अपने राष्ट्रीय चरित्र में उतारना चाहिये। तभी लोकतन्त्र की रक्षा हो सकेगी। बालकों को अभ्यास कराना चाहिए कि वे अपना-अपना दैनिक कार्य करें, वस्तुओं और विशेषतः कपड़ों को सफाई से तह करके रखें, जूतों को पालिश करें, वस्तुओं को उनके नियत स्थानों पर ही रखा करें।
आलस्य एक प्रकार की बुरी आदत मात्र है। मन शरीर, दिमाग, वाचा- सभी प्रकार का आलस्य हमारी आदतों के परिणाम हैं। यदि माता-पिता आरम्भ से ही बच्चों में अनुशासन रखें और उनका मानसिक व शारीरिक कार्य सतर्कता से कराने की आदतें डालें तो एक पीढ़ी ही सुधर सकती है।
स्मरण रखिये निकम्मेपन और आलस्य में भी एक प्रकार का घृणित आकर्षण है सैकड़ों व्यक्ति आलस्य के गन्दे कूप में पड़े हैं और उसी को श्रेष्ठ समझ रहे हैं। उन्हें अपने जीवन से अधिक से अधिक कार्य लेने के लिये कमर कस कर तैयार हो जाना चाहिये।
“ आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः”
अर्थात् मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु आलस्य ही तो है।