Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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आप श्रद्धालु बनिए
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(श्री ला. ना. बृहस्पति)
नास्ति श्रद्धा समं पुण्यं नारित श्रद्धा समं सुखम्।
नास्ति श्रद्धा समं तीर्थं संसारे प्राणिनां नृप॥
(योगवा.)
हे राजन्! संसार में प्राणियों के लिये श्रद्धा के समान न तो कोई पुण्य है, न श्रद्धा के समान कोई सुख है और न श्रद्धा के समान कोई तीर्थ है! अथवा पुण्य सुख और तीर्थ की संसार में सर्वोपरि स्थिति यदि कोई है तो वह केवल एक मात्र—“श्रद्धा” है! दूसरे शब्दों में- “श्रेय की सिद्धि जिस परम-श्रेष्ठ से प्राप्त होती है, उस परम-श्रेष्ठ के प्रति सरल हृदय की प्रीतियुक्र भावना को “श्रद्धा” कहते हैं।”
वास्तव में किसी के प्रति हृदय में अत्यन्त आदर पूर्वक जो पूज्य-भावना जाग्रत होती है—उसी को श्रद्धा कहते हैं।
इसको दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं:—
जिसकी थाह अपनी बुद्धि के द्वारा न मिलती तो उसके प्रति जो सविनय प्रेम-भावना विकसित होती है—उसी को श्रद्धा कहते हैं। गीता में भगवान् योगेश्वर कृष्ण महात्मा अर्जुन को श्रद्धा की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं:—
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा पराँशान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥ (गीता)
श्रद्धावान् पुरुष ज्ञान लाभ कर जितेन्द्रिय होकर तत्क्षण परम-शान्ति को प्राप्त हो जाता है।
और—
अश्रद्धयाहुतं दत्तं तपस्तप्त कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥ (गीता)
हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, तथा दिया हुआ दान और तपा हुआ तप तथा जो कुछ भी किया हुआ कर्म है वह समस्त असत् ही समझो। उसका न तो इस जन्म में कुछ फल मिलता है, न परलोक में!
संत-महात्मा, सद्गुरु, वेदशास्त्रादि और तीर्थ देवतादि सभी से तब तक समुचित फल की प्राप्ति नहीं होती, जब तक हृदय में उनके प्रति विशुद्ध श्रद्धा जाग्रत न हो।
सात्विक श्रद्धा की पूर्णता में अंतःकरण पवित्र हो जाता है। नीचातिनीच, अध्मातिअधम पतितों को भी पावन एवं परम-पुण्यशाली बना देने की अतुलनीय क्षमता इसी “श्रद्धा” में निहित है! श्रद्धा के बल से ही मलिन चित्त अशुद्ध चिन्तन का त्याग करके परमात्मा का चिन्तन करता रहता है एवं बुद्धि भी जड़ पदार्थों में ही तन्मय न रहकर परमात्मज्ञान में अधिकाधिक सूक्ष्मदर्शी होकर दिव्य हो जाती है और इसी प्रकार की विशुद्ध-बुद्धि के द्वारा मायाबद्ध अह की परमगति अथवा मुक्ति होती है। ऐसे मुक्त जीवात्मा, परमगति को प्राप्त व्यक्ति ही सार्वभौम-सेवा-साधना में सफलता प्राप्त कर संसार में शुद्धि के स्रोत चिरस्थायी बनाये रखने में सफल हो सके हैं।
अपनी कुत्सित कामनाओं की पूर्ति के लिये जो क्रूर स्वभाव वाली शक्तियों को भजते हैं, वे तमोगुणी श्रद्धा वाले राक्षसी प्रकृति के व्यक्ति हैं।
जो समुचित धर्म और शास्त्र सम्मत मर्यादा पूर्वक साँसारिक सुख ऐश्वर्य-भोग एवं स्वर्ग की प्राप्ति के लिये देव-शक्तियों के उपासक हैं, वे रजोगुणी श्रद्धा वाले व्यक्ति हैं, और—
आत्म-कल्याणार्थ निष्काम भाव से भक्ति, ज्ञान के उदय के लिये केवल परमात्मा के ही जो उपासक होते हैं—वे सतोगुणी श्रद्धा वाले पुरुष हैं।
सात्विकी श्रद्धा वालों का जीवन भक्ति और ज्ञान के सुख से परम शान्तिमय होता है, राजसी श्रद्धा वालों का जीवन विक्षिप्त और भोगलोलुप होने के कारण दुःख युक्त होता है तथा तामसी-श्रद्धा वाले लोगों का जीवन मूढ़ता अथवा जड़ता रूप अज्ञान—अन्धकारमय होता है।
जब तक सात्विक श्रद्धा का उदय नहीं होता तब तक संसार का कोई भी व्यक्ति परम-सुधि-स्वरूप संतसद्गुरु के वास्तविक रहस्यों का ज्ञाता नहीं बन सकता।
वास्तव में सात्विक शुद्ध श्रद्धावान् व्यक्ति के अन्तर में ही सन्त-सद्गुरु स्वयं अपनी महती दया से नित स्वरूप का ज्ञान कराते हैं। सद्-शिष्य की शुद्ध जिज्ञासा एवं सात्विक श्रद्धाभाव के अनुसार व्यापक परमात्मा की ज्ञानमयी शक्ति ही पवित्र अन्तः करण वाले महान् पुरुषों के द्वारा अज्ञान में भटकते हुए शिष्य का सत् पथ-प्रदर्शन करती रहती है।
यह ज्ञानमयी परम शक्ति ही सद्गुरु तत्व है, जिससे जीव का परम कल्याण होता है।
सात्विक शुद्ध श्रद्धा वाले व्यक्ति ही सर्वोत्तम श्रद्धालु हैं। उत्तम श्रद्धालु का पथ-प्रदर्शन सद्गुरु देव ही करते हैं और ये श्रद्धालु भी सर्वभावेन सद्गुरुदेव के ही आश्रित होकर रहते हैं।
इसीलिये श्रद्धालु सदा निर्भय और निश्चिन्त होते हैं। श्रद्धालु के हृदय में सद्गुरुदेव के अतिरिक्त और किसी के लिये स्थान नहीं मिलता। वह सरलता एवं सद्भाव पूर्वक अपना जीवन भार सद्गुरु के कर-कमलों में देकर अपना सब कुछ सुरक्षित और सार्थक समझता है। श्रद्धालु अपने हानि-लाभ, पतन-उत्थान की चिन्ता नहीं करता।
जिसका अन्तःकरण सरल एवं शुद्ध है उसी में सात्विक श्रद्धा प्रकाशित होती है सन्त सद्गुरु के सान्निध्य में रहकर जो उनकी आज्ञानुसार सदाचरण, सद्वर्तन रूपी सेवा करता है, उसी की श्रद्धा सात्विक होती है। वह स्वच्छंद, स्वेच्छाचारी नहीं होता, वह अपने श्रद्धेय की रुचि-विरुद्ध कुछ भी नहीं करता वास्तव में ऐसे ही व्यक्ति के अन्तर में सर्वोत्तम श्रद्धा का वास होता है।
जो अपनी सेवाओं का मूल्य नहीं चाहता, जो फलाशा नहीं रखता, यही उत्तम श्रद्धालु में त्याग होता है। जो अपने श्रद्धेय के संकेतानुसार चलने में कहीं भी आलस्य नहीं करता और कर्त्तव्य-पालन में जो प्रमादी नहीं होता—जो हर्षित रहकर सेवा—धर्म में तत्पर रहता है—यही उत्तम श्रद्धालु का तप है।
इस प्रकार के त्याग और तप से उत्तम श्रद्धालु पवित्रता और शक्ति से सम्पन्न होता है।
उत्तम श्रद्धालु अपनी बुद्धिमता का गर्व नहीं करता, वह सदा अपने श्रद्धेय के सन्मुख अपनी बुद्धि को निष्पक्ष रखता है, विनम्र और दयालु होकर, क्षमावान् और सहनशील होकर सभी प्राणियों पर हित–दृष्टि रखते हुए शुद्ध व्यवहार करता है।
उत्तम श्रद्धालु जगत की वस्तुओं के वास्तविक रूप को जान लेता है अतएव वह मोही नहीं होता। वह स्वार्थ लोलुप भी नहीं होता, इसलिए रागी अथवा द्वेषी नहीं होता किन्तु पूर्ण-प्रेमी होता है और इसी कारण वह तृप्त होता है।
श्रद्धा के द्वारा साधक विवेक दृष्टि प्राप्त करता है और सद्गुरु प्रदत्त ज्ञान के प्रकाश में अपने आराध्य देव के यथार्थ रूप को देखकर परम शांति को प्राप्त हो जाता है।
प्रकृति के जड़त्व में खेलती हुई चेतना श्रद्धा-पथ से ही प्राप्त की जा सकती है! श्रद्धा ही संसार की सर्वोत्कृष्ट शक्ति है जो नित्य उर्ध्वोन्मुख ही रहती है। प्राप्ति ही, सफलता ही श्रद्धा का सर्वोपरि गुण है—जिसको देखते ही सर्वेश्वर रीझ जाते हैं!
श्रद्धा से ही संसार की समस्त-साधनाओं का प्रारम्भ होता है! यदि हम सफलता चाहते हैं तो अपनी साधना का प्रारम्भ श्रद्धा से ही करें।
श्रद्धा से ही साधक श्रद्धेय के अलौकिक गुण, सौंदर्य एवं शक्ति तथा ऐश्वर्य को देख पाते हैं और संसार में सर्वथा सफल होकर सर्वस्व की प्राप्ति कर जीवन सार्थक कर पाते हैं!