Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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क्या धर्म और विज्ञान में विरोध है?
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(श्री रामलखन चौधरी, एम.ए.)
आज चारों ओर इस बात की बड़े जोरों से चर्चा हो रही है कि धर्म का युग समाप्त हो गया और वर्तमान युग विज्ञान का है। ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म और विज्ञान दोनों एक दूसरे की विरोधी शक्तियाँ हैं। यह ठीक भी है कि धर्म और विज्ञान के तत्वों में थोड़ा सा अन्तर है—और वह अन्तर यह है कि धर्म-भावमूलक है और विज्ञान बुद्धिगत है अर्थात् धर्म की उत्पत्ति मनुष्य की भावना से हुई है और विज्ञान की बुद्धि से यह अन्तर केवल समझने की बात है। वास्तव में धर्म में बुद्धि का कुछ अंश रहता ही है और विज्ञान में भावना का अभाव नहीं होता। अस्तु अन्तर है और अवश्य है परन्तु इस अन्तर को इतना चौड़ी खाई बना देने का श्रेय वर्तमान राजनीतिज्ञों को है जिन्होंने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए दूसरों की शक्ति घटाने में उचित-अनुचित सभी प्रकार के साधनों का प्रयोग किया। उन्होंने धर्म को व्यक्तिगत है अर्थात् धर्म को संकुचित-रूढ़िगत और न जाने क्या-क्या कहा है। धर्म को व्यक्तिगत बताने का अर्थ है, धर्म को संकुचित अर्थ में लेना। उनके मन में धर्म से तात्पर्य है किसी विशेष देवता की पूजा करना; मन्दिर, मस्जिद या गिरजे में पूजा करना सवेरे या पाँच वार पूजा करना; आदि। धर्म के सामाजिक पहलू की ओर ध्यान देकर, उसे प्रगति का विरोधी और प्रतिक्रिया वादी ठहराया है। यहाँ तक कह दिया गया है कि भारत एक धर्म निरपेक्ष राज्य है मानों हमारे देश में धर्म का कोई महत्व नहीं है। धर्म को एक सड़ी-गली और त्याज्य चीज मान लिया गया है। धर्म मानो देश और समाज उन्नति से कोई सम्बन्ध ही नहीं रखता।
विज्ञान और धर्म में यह विरोध मान कुछ ऐतिहासिक कारणों से भी उत्पन्न हो गया है। यूरोप और हमारे देश में, कुछ समय ऐसा भी रहा है जब धर्म के कारण अनेक लड़ाई-झगड़े हुए हैं, अन्धविश्वास और निरक्षरता की प्रबलता रही है परन्तु वास्तव में उसे सच्चा धर्म नहीं कहना चाहिए। ऐसी शोचनीय अवस्था तभी उत्पन्न हुई जब तक लोग धर्म के सच्चे स्वरूप को भूल बैठे जब धर्म की बागडोर अच्छे विद्वान, उन्नतमना व्यक्तियों के हाथ में होती है तो वह एक अपूर्व शक्ति का स्रोत बन जाता है, वैदिक युग में सर्वांगीण उन्नति का कारण धर्म ही था। बौद्धकालीन भारत में अशोक और हर्ष प्रभृति राजाओं ने धर्म का आशय लेकर जो कुछ काम किए, उन पर आधुनिक काल में संसार गर्व करता है। अतः यह कहना निरर्थक है कि धर्म अनावश्यक और झगड़े का कारण है। धर्म, विज्ञान से किसी प्रकार हीन नहीं है। आज हम प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं कि विज्ञान द्वारा भी तो मानव-समाज का अहित हो रहा है। विज्ञान ने हमें चिन्तन शक्ति की ओर बुद्धि को क्रियाशील बनाया और हमें शक्ति दी परन्तु उसका परिणाम तो यही हुआ कि हम अधिक स्वार्थी, दम्भी और अत्याचारी बन गए। विज्ञान ने हमारे मन का परिष्कार नहीं किया। कल कारखानों के बनने से जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन कई गुना बढ़ा परन्तु संसार पहले से कहीं अधिक अभावग्रस्त है। वैज्ञानिक अस्त्रों के आविष्कार ने हर प्रकार से मानव जाति को विनाश के संकट में डाल रक्खा है। फिर तो विज्ञान भी बुरा है और धर्म तो बुरा था ही।
तनिक ध्यान से देखने पर प्रतीत होता है, न धर्म ही बुरा है और न विज्ञान। संसार की कोई वस्तु बुरी तभी होती है, जब हम उसका जान बूझ कर दुरुपयोग करते हैं। विष भी बुरा नहीं, वरन् यह रोग दूर करता है; वह घातक तभी बनता है, जब अधिक मात्रा में उसे खाया जाता है। धर्म और विज्ञान तभी हानिकारक बन जाते हैं, जब उनका प्रयोग गलत ढंग से किया जाता है। अब देखिए, धर्म और विज्ञान दोनों ही बहुत कुछ समान हैं। धर्म के अंतर्गत अनेक विश्वास आ जाते हैं, जैसे एक ऐसी शक्ति पर विश्वास जो सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है, प्रकृति की अनेक शक्तियाँ जिन्हें देवताओं के रूप में ग्रहण किया गया है, इन शक्तियों को प्रसन्न करने के अनेक साधन, जैसे पूजा, भजन, ध्यान, यज्ञ, तथा अन्य कर्म काँड आदि। इन सब बातों से क्या प्रकट होता है? हजारों वर्षों पहले मनुष्य के मन में इस अद्भुत सृष्टि को देखकर जिज्ञासा उत्पन्न हुई और उसने उसकी व्याख्या करनी चाही। उसी व्याख्या ने प्राचीन दर्शन, धर्म और साहित्य का रूप धारण कर लिया। मनुष्य की शक्ति उस समय सीमित थी और प्रकृति की शक्ति अनन्त इसलिए उसने उसे, शक्ति के रूप में पूज्य मानकर प्रसन्न करने की चेष्टाएँ की वैदिक मन्त्रादि इसके प्रमाण है। यह कह सकना कठिन है कि इन शक्तियों को उन उपायों द्वारा प्रसन्न करके अपने वश में कर लेना संभव है या नहीं? फिर भी कभी देखा जाता है कि मन्त्र आदि में बड़ी चमत्कारपूर्ण शक्ति होती है और उनकी सहायता से प्राकृतिक शक्तियों पर नियंत्रण किया जा सकता है। आधुनिक मनोविज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य अनन्त शक्ति का भण्डार है। विचारों और भावों में जितनी शक्ति है, उतनी तोप तलवार में नहीं होती। धर्म का आधार यही विचार और भाव हैं।
धर्म द्वारा मनुष्य ने प्रकृति के नियमों को एक युग और देश के अनुसार समझने की चेष्टा की। उनमें बहुत सी बातें सत्य और बहुत सी असत्य हैं। तथा अनिर्भरशील बातों के आधार पर अनेक शाश्वत सत्यों का तिरस्कार करना अनुचित है। विज्ञान के सम्बन्ध में भी यही बात घटित होती है। विज्ञान प्राकृतिक नियमों की एक व्याख्या है। विज्ञान की विशेषता यह है कि उसके द्वारा प्रस्तुत की गयी व्याख्या को प्रयोगों द्वारा दिखलाया भी जा सकता है। इसलिए आँखों से देखकर मनुष्य का उन पर सहज ही विश्वास हो जाता है। इसके विपरीत धर्म के तत्व बड़े ही सूक्ष्म हैं उन्हें तुरन्त घटित करके दिखाना कठिन है, इसलिए साधारण जन धर्म को विश्वसनीय नहीं मानते। ज्यों-ज्यों विज्ञान की उन्नति होती जा रही है, वैज्ञानिकों के आगे वही कठिनाइयाँ पैदा होती जा रही हैं, जो धर्म वेत्ताओं के आगे आयी थीं। जैसे मनुष्य का ज्ञान बढ़ता है पुराने नियमों में भूलें दिखाई पड़ने लगती हैं, उनमें संशोधन की आवश्यकता प्रतीत होती है। धर्म यह संशोधन नहीं कर सका। उदाहरण के लिए पहले यह धार्मिक विश्वास प्रचलित था कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्य उदयाचल पर्वत से निकल कर आकाश की परिक्रमा करता हुआ रात्रि में अस्ताचल पर विश्राम करता है या पृथ्वी शेषनाग के फण पर ठहरी है। मनुष्य के भौगोलिक और खगोल विद्या के ज्ञान ने इस विश्वास को असत्य सिद्ध कर दिया। 15 वीं शताब्दी में कोपरनिकस और गैलीलियो ने इनके स्थान पर नवीन सिद्धाँत स्थिर किए। ऐसे समय में धर्म वेत्ताओं का कर्तव्य था कि अपने धार्मिक विश्वासों में थोड़ा सा परिवर्तन करके सुधार कर लेते। उससे धर्म की हानि न होती जो आज हो रही है। अब भी बदले हुए समय और परिस्थिति के अनुसार धार्मिक विश्वासों में थोड़ा हेर-फेर करके धर्म को हृदयग्राही बनाने की आवश्यकता है। ऐसा धर्म वैज्ञानिक धर्म होगा और उसका पालन करने में किसी को हिचक न होगी।
अब विज्ञान की बात देखिए। विज्ञान के क्षेत्र में ज्ञात नियमों में उसी प्रकार परिवर्तन करने की आवश्यकता प्रतीत हो रही है जैसे धर्म में है। न्यूटन ने जो नियम खोज निकाले थे, उन्हें इस शताब्दी में डा. आइन्स्टीन ने असत्य सिद्ध कर दिया है। पुराने जमाने के वैज्ञानिक पदार्थ और शक्ति को अलग-अलग मानते थे और अब दोनों केवल एक ही वस्तु के दो निष्क्रिय एवं सक्रिय रूप माने जाते हैं। इसी प्रकार थामस एडिंगटन और सरजेम्सजीन्स आदि पाश्चात्य विद्वानों ने सिद्ध कर दिया है कि आज का विज्ञान कुछ वर्षों बाद निरर्थक और असत्य सिद्ध होगा। यह विश्व अनन्त है और उसका विकास इतनी तेजी से हो रहा है कि गणित तथा विज्ञान द्वारा नियमों को समझाना प्रायः असम्भव सा है। अतः जिस प्रकार धर्म ने इस विश्व को रहस्यमय माना था उसी प्रकार विज्ञान भी मानता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म और विज्ञान में विरोध नहीं है।
अब धर्म और विज्ञान के व्यावहारिक पक्ष को लीजिये। धर्म हमें देश, समाज और व्यक्ति के साथ संबंध स्थापित करना सिखाता है, विज्ञान हमें केवल वस्तुओं के साथ सम्बन्ध करना बताता है। विज्ञान शक्ति है और धर्म उस शक्ति का उपयोग और नियमन है। सरल भाषा में, विज्ञान ने हमें भाप, बिजली, पेट्रोल और अणु की शक्तियाँ प्रदान की हैं, उसने हमें यंत्र दिये हैं और उनसे नयी नयी उपयोगी वस्तुओं को तैयार करने की क्षमता दी है— बस। इसके आगे अभी तक विज्ञान की प्रगति नहीं हुई है। इस बात को अनेक वैज्ञानिक मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं। शक्तियाँ, और यन्त्र पा जाने से ही मनुष्य का भला नहीं हो जाता। यदि इनका वह दुरुपयोग करे तो वह दानव हो जायगा जैसा कि गत पच्चीस वर्षों से देखने में आ रहा है। कहा गया है—
विद्या विवादाय, धन मदाय, शक्तिः परेषां परिपीड़नाय, खलस्य साधोर्विपरीतमेतत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।
खल अर्थात् दुष्ट अग्नि शक्ति का दुरुपयोग समाज को पीड़ित करने में करता है, साधु उसका उपयोग सबकी रक्षा में। ‘शठतायुक्त सबलता उत्पाता’ होती है। खल को साधु में बदलने के लिए धर्म की आवश्यकता है। प्रयोजन वादियों के अनुसार सत्य वही है जो समाजोपयोगी है। यदि विज्ञान द्वारा खोजे गये सत्य समाज संहारक बन जायं, तो स्वयं विज्ञान सत्य से कोसों दूर सिद्ध होता है। धर्म विज्ञान को उपयोगी बनाता है। अतः धर्म और विज्ञान दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। विज्ञान विहीन धर्म कोरा अंध विश्वास है। विज्ञान द्वारा संशोधित नियमों का अतिक्रमण करने वाला धर्म जीवित नहीं रह सकता। धर्म को प्रगतिशील होना चाहिए। प्रचलित परम्पराओं और विश्वासों को केवल इसलिए जीवित नहीं रहने देना चाहिए कि वे प्राचीन काल से चले आ रहे हैं। सड़ी-गली चीजों को इकट्ठा रखने से शोभा नहीं बढ़ती, वरन् कुरूपता आती है। सच्चा धर्म वही है जो विज्ञान सम्मत हो अर्थात् जो देश और काल की चाल के साथ चल रहा हो।