Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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वेष को देखकर धोखा मत खाइये
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(श्री चन्द्रशेखरजी शास्त्री)
किसी विद्वान की उक्ति है कि “मूर्ख व्यक्ति बुद्धिमानों या चतुरों का भोजन हैं।” आज यह कहावत भारतीय-समाज में, विशेषतः हिन्दुओं में पूर्ण रूप से चरितार्थ हो रही है। तरह-तरह के ऐसे उपाय निकाले जा रहे हैं, जिनसे जनता का धन सहज में हरण किया जा सके। बड़े-बड़े परोपकारी निकल आये हैं। कोई कुबेर की सम्पत्ति दिला देने का दम भरता है और कोई परलोक में स्वर्ग-सुख प्राप्त करने का वचन देता है।
कोई भी वस्तु स्वभाव से न तो नितान्त भली ही होती है और न बुरी ही। प्रत्येक वस्तु का एक खास गुण होता है जो हितकारी भी हो सकता है और अहितकारी भी। इसका आधार उपयोग करने वाले पर रहता है। आग में गरमी होती है, उससे भोजन पकाया जाता है और किसी का घर भी जलाया जा सकता। अन्न को खाकर हम जीवित रहते हैं, पर कितने ही पेटू लोग आवश्यकता से अधिक खाकर बीमार भी पड़ जाते हैं। धर्म भी उपयोगी चीज है। उससे लोक और परलोक का हित-साधन होता है। पर आजकल अनेक धूर्तों ने उसको जघन्य श्रेणी के स्वार्थ-साधन का उपाय भी बना लिया है।
भारतवर्ष धार्मिक देश कहा जाता है। भारतवासी धर्म से प्रेम करते हैं। जो धर्माचरण करता है उसका सम्मान करते हैं, उसको दान देना, उसकी सेवा-सुश्रूषा करना अपना कर्तव्य समझते हैं। यह देखकर अनेकों धूर्त उन्हें ठगने को तैयार हो गये हैं। कोई संन्यासी बना, कोई वैरागी, कोई शैव बना, कोई वैष्णव, किसी ने राख पोती, किसी ने चन्दन, किसी ने मस्तक घुटाया, किसी ने जटायें बढ़ाई, कोई आग के बीच में बैठा, कोई जल में खड़ा हुआ। यह सब इसलिये किया गया कि हम लोग उसे धर्मात्मा समझें, महात्मा मानें। उन्हें अपने आत्म-कल्याण की कोई चिन्ता नहीं, धर्म या धार्मिक क्रियाओं पर उनको विश्वास नहीं। उनका एकमात्र उद्देश्य होता है जनता में धर्मात्मा के नाम से प्रसिद्ध होना और उसके द्वारा अपना प्रभाव जमाकर जनता का धन हरण करना।
इस श्रेणी के स्वार्थी व्यक्तियों ने हमारे धार्मिक विश्वास से अनुचित लाभ उठाया है। वे स्वयं भी डूबे और हमको भी डुबाया। देश और विदेशों में भी धूर्त हमारी धार्मिकता सुनकर दौड़ पड़े और हमें भी सिखाने लगे। कोई अवतार बनकर आया और किसी ने महायोगी होने का दावा किया, किसी ने आत्म-सत्कार करने का प्रलोभन दिखाया और किसी ने जीवनमुक्त होने का नुस्खा बताया। हम लोगों ने अपने सरल स्वभाव के कारण ज्यादा छान-बीन न की और सभी चमकीली चीजों को असली सा समझ लिया। इसका फल यह हुआ कि आज हम मूर्ख बन गये। हमारा वैज्ञानिक धर्म हमारे लिए उपहास की सामग्री बन गया है। वह हमारी उन्नति में बाधक सिद्ध हो रहा है। हमारे धर्म-भाव से लाभ उठाते हैं हमारी उन्नति के विरोधी।
दुःख है कि हमारे समाज में ऐसे ठगी का जाल फैलाने वालों की संख्या बढ़ रही है। उनको बिना रुपये-पैसे के धन पैदा करने का नुस्खा मिल गया। लोग समझते हैं कि बिना पैसे के हमारा काम चल गया, कैसी बुद्धिमानी की हमने। उनकी निगाह में ईमान का कोई मूल्य ही नहीं? यदि वे इस बात को समझते होते, तो इस महंगे सौदे के फेर में न पड़ते कुछ रुपयों के लिये, साधारण सुख के लिये, ईमान बेचा जाय, तो एक साधारण समझ वाला मनुष्य इसे महंगा ही समझेगा। धर्म, समाज और ईश्वर से डरने वाला ऐसे सौदे की बात भी नहीं करेगा। कुछ साहसी लोग ईमान भी बेच रहे हैं। पेट के लिए, पूरी और मलाई के लिए, पलंग और गद्दे के लिए वे विश्वासी हृदयों के विश्वास के कोमल पौधे को जड़-मूल से उखाड़कर फेंक देते हैं। इससे बढ़कर समाज का दुर्भाग्य क्या होगा?
समाज तो रहेगा, उजड़ कर भी रहेगा और फिर इसके दिन भी पलटेंगे, आज नहीं तो कुछ दिन बाद। सभी व्यक्ति बहुत दिन तक भूल नहीं कर सकते। एक दिन परिस्थिति उनको आँखें खोलने तथा अपनी दशा सुधारने को मजबूर करेगी ही। इसलिये विचार यह करना चाहिये कि उस समय उनकी क्या दशा होगी जो धर्म और ईमान को बेचकर इतना महंगा सौदा खरीद रहे हैं।
आलसी और निकम्मे आदमियों की इन्द्रियाँ प्रबल होती हैं। उनकी लालसा इतनी बढ़ी होती है कि वे उसे रोक नहीं सकते। फिर वे क्या करें? पैसे आवें कहाँ से। नौकरी तो वैसे निकम्मों से होती नहीं और उनको नौकरी देता भी कौन है? व्यापार के लिए पूँजी चाहिये, साख चाहिये। यदि व्यापार के लिए कुछ पूँजी इकट्ठी भी की जाय तो उसमें लाभ ही होगा, इसका कोई निश्चय नहीं। ऐसी दशा में वैसी प्रकृति वालों के लिए दो ही उपाय रह जाते हैं। एक तो यह कि वे अपनी आदत सुधारें, मेहनत-मजदूरी करके जो कुछ रूखा-सूखा मिले उसी में सन्तोष करें। दूसरा उपाय यह है कि किसी भी प्रकार पैसे का प्रबन्ध करें। ऐसे लोग पहले घर की चीजें बेचते हैं, जमीन, जायदाद, मकान आदि बेचकर अपनी इच्छाएं पूर्ण करते हैं। फिर स्त्रियों के गहने बाजार ले जाते हैं। अन्त में ईमान की बारी आती है। कुछ लोग ऐसे भी इस श्रेणी में देखे गये हैं जो ईमान से ही शुरू करते हैं। ये ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं होते, धर्माधर्म का ज्ञान भी इनको नाममात्र को ही होता है। पर होते हैं साहसी, दिल के पक्के। अतएव ईमान बेचकर, धर्म की दलाली करके, लोगों के साथ विश्वासघात करके ही अपना पेट पालते हैं, चैन से रहना ही अपना एक मात्र उद्देश्य रखते हैं।
ऐसे लोगों में बहुत से विरक्त बनकर दुनिया को धोखे में डालते हैं। ये रहते हैं कुटी में- चाहे वह बढ़िया कोठी ही क्यों न हो- पर उसका नाम कुटी ही होता है। उसमें सुख के सभी सामान होते हैं, श्रद्धालु लोग तो उनके किसी आचरण पर सन्देह नहीं करते। पर कुतर्की भी कभी पहुँच जाते हैं और पूछ बैठते है- “महाराज! आप तो त्यागी हैं, फिर इन वस्तुओं का संग्रह आपने क्यों किया, ये चीजें तो विलास की हैं।” कोई भला आदमी अगर ऐसा काम करता है और उसे टोक दिया जाता है तो वह लज्जित हो जाता है। पर ये महात्मा तो घुटे हुए होते हैं। वे ऐसे प्रश्नों के लिये पहले से ही बहुत तरह के उत्तर तैयार रखते हैं। जैसा मौका देखा वैसा ही दे दिया। कभी कहते हैं “शिष्यों की इच्छा! हमारी तो कोई इच्छा है ही नहीं! हमारे लिये जैसे बढ़िया पोशाक पहिनना वैसा ही नंगा रहना।” कभी मुस्करा कर चुप रह जाते हैं, कभी आँखें तरेर कर देख भर लेते हैं, कभी कहते हैं- “अँग्रेजी पढ़ते हो न भैया? तुम ये सब बातें क्या जानो? किसी साधु का सत्संग किया होता हो जानते।” कभी कभी कह देते हैं- “यह तो प्रचण्ड नास्तिक है, निकालो इसको। आश्रम अपवित्र कर रहा है।” इसी तरह की चालों से वे अनेक विरोधियों का मुँह बन्द कर देते हैं। अगर सब तरह से हार गये तो कह देते हैं कि “शास्त्रों के बन्धन जीवन्मुक्तों के लिए लागू नहीं होते।” फिर कोई कुछ नहीं बोल सकता क्योंकि यह कहना कि आप तो जीवन्मुक्त नहीं है- शिष्टाचार के विरुद्ध समझा जाता है। इसी तरह की विद्या के सहारे ये लोग भोली जनता को धोखे में डालकर अपना स्वार्थ सिद्ध किया करते हैं। इस प्रकार इनका तो काम चल जाता है पर धर्म और समाज को जो गहरी क्षति उठानी पड़ती है उस पर कोई दृष्टिपात नहीं करता। आवश्यकता है कि हम केवल वेष के चक्कर में न पड़कर गुण की पूजा करना सीखें।