Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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मानव जाति के ज्ञान का आदि स्रोत वेद है।
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(श्री सुदर्शन सिंह जी)
आधुनिक युग के विज्ञान वेत्ताओं का मत है कि मनुष्य आरम्भ में जंगली था। वह असभ्य और बर्बर था। उसके पास न लिपि थी, न भाषा, न सभ्यता। ऐसी दशा में वस्त्र और सभ्यता के अन्य पदार्थों के होने की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। धीरे-धीरे मनुष्य की भाषा, सभ्यता और बुद्धि का विकास हुआ तथा उत्तरोत्तर होता जा रहा है। हम अपने पूर्वजों से अधिक सुसभ्य, बुद्धिमान एवं सुसंस्कृत हैं।
साथ ही विज्ञान मानव मस्तिष्क के दो भाग बतलाता है। एक अंतर्मन और दूसरा बहिर्मन। प्रारंभ में मनुष्य के बहिर्मन का अस्तित्व नाम मात्र के लिए ही था। मनुष्य मूलतः पशु-स्वभाव का प्राणी है और पशुयोनि से विकसित हुआ है, अतः उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ पाशविक हैं। जैसे-जैसे मनुष्य सभ्य होता जाता है, उसके सामाजिक और नैतिक बन्धन बढ़ते जाते हैं और उसकी पशु प्रवृत्ति दबती चली जाती है। लज्जा और भय के कारण मनुष्य के पाशविक संस्कार दबे रहते हैं, बहिर्मन सावधानी के साथ उन्हें बाहर आने से रोकता है। पर ये पाशविक संस्कार सर्वथा नष्ट नहीं होते । वे अंतर्मन में बीच-बीच में प्रकट होकर चरितार्थ होने का प्रयत्न करते रहते हैं। जो मनुष्य स्वप्न देखने लगता है तो उसका बहिर्मन सोता रहता है। उस समय अंतर्मन पर नियंत्रण न रहने से वे पाशविक वासनाएं प्रकट होने लगती हैं। जब कभी अंतर्मन के इन पाशविक संस्कारों का दबाव बढ़ जाता है, तो बहिर्मन उनको रोकने में असमर्थ हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप उन्माद, पागलपन जैसे रोग होते हैं।
इस मत के अनुसार मनुष्य ने आदि युग में बिजली चमकते, आकाश से जल बरसते, वन में दावाग्नि लगते, आँधी चलते तथा ज्वार-भाटा आते देखकर भय और अज्ञान के कारण अज्ञात-शक्तियों की कल्पना कर ली। अज्ञात-शक्तियों की कल्पना कर ली। यही अज्ञात-शक्तियाँ कालांतर में मनुष्य का बुद्धि से विकसित होकर देवता और ईश्वर के रूप में परिणत हो गई। इनको प्रसन्न करने के लिए प्रार्थना, पूजा, बलिदान आदि जो कुछ आदिम युग के मनुष्य करने लगे थे, वही आगे चलकर ‘धर्म’ बन गया, उसकी विधि और नियम बन गये। इसीलिए इस मत के ‘महापण्डित’ कहलाने वाले लोग बड़े गर्व से कहते हैं कि “ईश्वर मनुष्य का मानस पुत्र है और धर्म मानवीय दुर्बलताओं का सही भाव है”।
ऐसे मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का फल यह हुआ कि पढ़ने वाले नवयुवक यह मानने को विवश हो गये कि धर्म के साथ सदाचार, सत्य आदि भी कल्पित हैं। वे आवश्यकताओं के कारण लज्जा और भयवश ही स्वीकार किये जाते हैं। इस प्रकार असदाचरण, असत्य, चोरी, हिंसा, विश्वासघात, परपीड़न से मनुष्य की स्वभाविक घृणा नष्ट हो गई और सदाचार के नियमों को तोड़कर व्यवहार करना मानसिक दृढ़ता तथा निर्भीकता माना जाने लगा। कविता, मूर्ति एवं चित्रकला प्रभृति का आदर्श वासनात्मक अश्लीलता बन गई। कला के आकर्षण का हेतु और उद्देश्य वासना माना जाने लगा।
पर वास्तव में विकासवाद का यह सिद्धांत भ्रममूलक है। उसके आविष्कारक इतना भी नहीं देख सके कि प्रकृति विकारोन्मुखी अथवा अधोगामिनी है, वह विकसित होने का गुण नहीं रखती। यदि मनुष्य का मन मूलतः पाशविक हो तो यह कभी सम्भव नहीं था कि वह स्वप्न में सत्कार्य एवं सद्विचार करे। पर स्वप्न में लोग धर्म का आचरण करते हैं, उपासना करते हैं, कुछ तो स्वप्न में भगवान के दर्शन तक करते हैं। इसका अर्थ यह है कि मन मूलतः पाशविक नहीं है। वह विकृत हो जाता है और प्रयत्न से उसे शुद्ध किया जा सकता है। हमारे शास्त्रों में मन की उत्पत्ति अहंकार के सत्वाँश से मानी गई है। वह सत्व स्वरूप है। सद्गुण, धर्म तथा आस्तिकता उसका स्वभाव है। अधर्म, असदाचार और वासनाएं उसमें संगदोष से विकृत होने के कारण आयी हैं। इसीलिए इनको ‘विकार’ कहा जाता है। प्रकृति भी इसी नियम का साक्षी है। जल पहले शुद्ध रूप में बरसता है और फिर विकृत होता है। निर्मलता, शीतलता, सुस्वादुपन उसके स्वभाव हैं, स्वरूप हैं। मैल, दुर्गन्ध तथा खारापन उसमें दूसरी वस्तुओं के संयोग से विकृत होने के कारण आया है। इसीलिए जल को शुद्ध किया जा सकता है।
हम इतिहास में देखते हैं कि एक समय भारत में घरों में ताले बन्द नहीं होते थे। मनुष्य चोरी, झूठ, विश्वासघात की कल्पना तक नहीं कर पाते थे। असदाचार का अपनाना मनुष्य के लिए एक भयंकर आश्चर्यजनक दुर्घटना थी। आज ढूँढ़ने पर भी कहीं-कहीं हमें सच्चे सदाचारी और सत्यवादी मिलते हैं। संयम , सदाचार का उपदेश देना पड़ता है और उनका पालन करने वाला महापुरुष माना जाता है। आज का मनुष्य अपनी मानसिक और शारीरिक शक्तियों में अपने पूर्वजों से हीन हुआ है और उत्तरोत्तर प्रत्येक पीढ़ी में होता जा रहा है।
इन प्रत्यक्ष सत्यों से नेत्र नहीं बन्द किये जा सकते। ये बताते हैं कि जल ही विकृत नहीं होता, सम्पूर्ण प्रकृति ही बराबर विकृत होने का स्वभाव रखती है प्रकृति स्वभावतः अधोगामिनी है। शास्त्र इसी बात की घोषणा करते हैं। आदि युग सत्य-युग था। उस युग का मानव शरीर से सबल, हृदय से धर्मात्मा, संयमी तथा सदाचारी, मन से दृढ़ निश्चयी, दयालु, परदुख, कातर, निस्वार्थ एवं निर्भीक तथा बुद्धि से प्रबल, प्रतिभाशाली तथा बहुज्ञ था। सम्पूर्ण सभ्यता और संस्कृति थी आदि-मानव में। धीरे-धीरे उसकी सभी शक्तियों का ह्रास हुआ। सत्य-युग से त्रेता, द्वापर होते हुए कलियुग आ गया।
हमें स्मरण रखना चाहिए कि विद्या का साधारण नियम भूलना है, बढ़ना नहीं। यहाँ भी प्रकृति की वही अधोगामिनी गति स्पष्ट होती है। आपने जो कुछ पढ़ा या सीखा है, वह बराबर पढ़ने, सीखने और अभ्यास से ही स्थिर रह सकता है। नवीन अध्ययन और प्रयत्नों के परिणाम उसमें सम्मिलित करते हुए ही आप उसका भण्डार बढ़ा सकते हैं। वैसे अध्ययन जन्य शिक्षा का स्वभाव है भूलना। यह मनुष्य का नित्य का अनुभव है कि वह जितना सीखता है उसमें से अधिकाँश भूल जाता है और बराबर भूलता रहता है। सीखे हुए ज्ञान को स्मृति में रखने के लिए उसे बार-बार दुहराने की आवश्यकता पड़ती है और इतने पर भी कुछ अंश तो भूल ही जाता है।
ये उदाहरण बतलाते हैं कि मनुष्य स्वयं कुछ भी करने में असमर्थ है। उसे सब कुछ दूसरों से सीखना पड़ता है। यह सीखा हुआ ज्ञान भी भूलता ही है, वह विकसित नहीं होता। इसलिए यह प्रश्न होता है कि यदि मनुष्य स्वयं ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता तो वह प्रकृति के संघर्ष में जीवित कैसे रहा? उसने इतना ज्ञान कहाँ से सीखा जो उसे आज विश्व पर तथा कुछ अंशों में प्रकृति पर भी शासन करने में सक्षम बना रहा है। उसे आरम्भ में कौन यह ज्ञान और भाषा सिखाने आया था?
इस बात का उत्तर तो इसी प्रकार पाया जा सकता है कि आज के युग में भी जो बिना पढ़े तथा दूसरों से सीखे कबीर, तुकाराम जैसे अत्यन्त गम्भीर दार्शनिक रहस्यों को प्रकट करने वाले हो गये हैं, उन्होंने यह ज्ञान कहाँ से और कैसे पाया? जिस प्रकार, जिससे उन्हें ज्ञान मिला, आदि-मानव का भी वही शिक्षक और वही शिक्षा पद्धति हो सकती है।
आदि मानव ने ज्ञान कैसे पाया? इससे पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है कि ज्ञान आदि-मानव ने किसी स्रोत से पाया अथवा उसका विकास हुआ? सत्य तो यह है कि जो मूल ज्ञान आदि-मानव ने पाया था, मनुष्य जाति उसमें कुछ भी वृद्धि नहीं कर सकी है। उसमें से अधिकाँश हम भूले ही हैं और इसी भूल के कारण हमारा वर्तमान ज्ञान अव्यव-स्थित तथा भ्रमोत्पादक हो गया है।
विकासवाद के भ्रम से पृथक होकर जब हम यह मानने को बाध्य होते हैं कि सर्वांगपूर्ण भाषा और समस्त ज्ञान मनुष्य को आदि में ही प्राप्त हुआ तो हमें मानना ही पड़ेगा कि उसकी प्राप्ति या शिक्षा किसी विशेष ज्ञान-भण्डार से हुई होगी । तब क्या ज्ञान सिखाया हमारे ऋषियों का तो यही कहना है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है और उसे परमात्मा से ही ऋषियों ने प्राप्त किया है वेद का अर्थ ही है ज्ञान।
आरम्भ में मानव-मन विकृत नहीं था। मन का मूल रूप सात्विक है। आदि युग में वह सम्पूर्ण सात्विक था। सभी आध्यात्मशास्त्र एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि सम्पूर्ण निर्मल एवं शुद्ध मन में परमात्मा की ज्योति प्रकट होती है। आदि मानव ने अपने निर्मल तथा शुद्ध हृदय में परमात्मा का साक्षात किया। उस समय उसके हृदय में दिव्य वाणी प्रकट हुई। जिस ऋषि ने समाधि में जिस मन्त्र को उपलब्ध किया, वह उसका द्रष्टा कहा गया है, अर्थात् वह उसे देखने वाला हुआ। उसी दिव्य वाणी पर अपने शुद्ध हृदय में उस ऋषि ने मन को एकाग्र किया और इस एकाग्रता के द्वारा उसके अर्थ को जाना। इस प्रकार वेद वह ईश्वरीय वाणी है जिसे ऋषियों ने समाधि की स्थिति में सुना है।