Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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कर्मयोग द्वारा परमात्मा की प्राप्ति
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(महात्मा गाँधी)
संन्यास और योग (निष्काम कर्म)ये दोनों अच्छे हैं ,पर मुझे यदि चुनाव ही करना पड़े, तो मैं योग अर्थात् अनासक्ति कर्म को ज्यादा पसन्द करूंगा। जो मनुष्य किसी वस्तु या मनुष्य से न द्वेष करता है ,न राग रखता है, न कोई इच्छा रखता है, सुख-दुख सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्वों से परे रहता है वह संन्यासी ही है। फिर वह कर्म करता हो या न करता हो। ऐसा मनुष्य सहज में बंधन मुक्त हो जाता है। अज्ञानी ही ज्ञान और योग में भेद करता है, ज्ञानी ऐसा नहीं करेगा। उसकी दृष्टि में दोनों का परिणाम एक ही होता है, अर्थात् दोनों से वही दर्जा मिलता है। इसलिए सच्चा जानने वाला वही है जो दोनों को एक समझता है।
शुद्ध ज्ञान वाले के संकल्प भर से कार्य सिद्धि होती है, अर्थात् बाहरी कर्म करने की उसे जरूरत नहीं रहती । जब जनकपुरी जल रही थी तो दूसरों का धर्म था कि जाकर आग बुझायें। महाराज जनक के संकल्प से ही उनका आग बुझाने का कर्तव्य पूरा हो रहा था, क्योंकि उनके सेवक उनके अधीन थे। यदि वह घड़ा भर पानी लेकर दौड़ते तो कुल चौपट कर देते। दूसरे लोग उनकी ओर ताकते रहते और अपना कर्तव्य भूल जाते। और विशेष भलमंसी दिखाते तो हक्के-बक्के होकर सब जनक की रक्षा करने दौड़ते। पर वे सब जनक नहीं बन सकते, क्योंकि जनक की सी मनोवृत्ति बड़ी दुर्लभ है करोड़ों में से किसी को वह अनेक जन्मों की सेवा से प्राप्त हो सकती है। निष्काम कर्म करने वाले मनुष्य का संकल्प बल उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है और बाहरी कर्म कम होते जाते हैं। ऐसे व्यक्ति को बाहर से देखने पर उसका पता भी नहीं लगता और वह कोई प्रयत्न दिखलाई नहीं देता पर वास्तव में वह सेवा कार्य में डूबा रहता है। उसकी सेवा शक्ति इतनी बढ़ जाती है कि उसे सेवा से कोई थकान आती नहीं जान पड़ती। इससे अन्त में उसके संकल्प में ही सेवा आ जाती है, वैसे ही जैसे कि बहुत जोर से गति करती हुई वस्तु स्थिर सी लगती है। ऐसा मनुष्य कुछ करता नहीं है, यह कहना प्रत्यक्ष रूप से उपयुक्त है। पर ऐसी स्थिति साधारणतः कल्पना की ही वस्तु है अनुभव में नहीं आती।
इसलिए कर्म योग का महत्व अधिक माना गया है। करोड़ों जीव निष्काम कर्म द्वारा ही संन्यास का फल प्राप्त करते हैं। वे संन्यासी होने जाएं तो इधर या उधर, कहीं के न रहेंगे। संन्यासी होने जाएं तो मिथ्याचारी हो जाने की पूरी संभावना है, और कर्म से तो गये ही, अर्थात् उन्होंने सब कुछ खो डाला। पर जो मनुष्य अनासक्त कर्म करता हुआ शुद्धता को प्राप्त करता है, जिसने अपने मन को जीता है,जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में रखा है, जिसने सब जीवों के साथ अपनी एकता साधी है और सबको अपने ही समान मानता है, वह कर्म करते हुए भी उससे अलग रहता है, अर्थात् बन्धन में नहीं पड़ता। ऐसा मनुष्य बोलने-चालने आदि की क्रियाएं करते हुए भी ऐसा लगता है कि इन क्रियाओं को इन्द्रियाँ अपने धर्मानुसार कर रहीं हैं। स्वयं वह कुछ नहीं करता। शरीर से आरोग्य पुरुष की क्रियाएं स्वभाविक होती हैं उनके जठर फेफड़े आदि अपने आप काम करते हैं, इसकी ओर उसे कुछ ध्यान नहीं देना पड़ता। इसी प्रकार जिसकी आत्मा आरोग्य है उसके लिये कहा जा सकता है कि वह शरीर में रहते हुये भी स्वयं लिप्त है, कुछ नहीं करता। इसलिए मनुष्य को चाहिये कि सब (3) कर्म ब्रह्मार्पण ही करे, तब वह कर्म करते हुये भी पाप अथवा पुण्य का उपार्जन नहीं करेगा। पानी में कमल की भाँति कोरा का कोरा ही रहेगा। इसलिये जिसने अनासक्ति का अभ्यास कर लिया है वह व्यक्ति काया से, मन से, बुद्धि से कार्य करते हुये भी मोह रहित होकर, अहंकार जलाकर व्यवहार करता है इससे वह शुद्ध हो जाता है और शान्ति भी पाता है। पर जो इस योग को नहीं जानता, फल की कामना करता रहता है, वह कैदी की भाँति अपनी कामनाओं में बंधा रहता है।
इस नौ दरवाजे वाले देह रूप नगर में सब कर्मों का मन से त्याग करके,स्वयं कुछ न करता हुआ योगी सुखपूर्वक रहता है। संस्कारवान शुद्ध आत्मा न पाप करता है न पुण्य। जिसकी कर्म में आसक्ति नहीं, अहंभाव नष्ट कर दिया , फल का त्याग किया, वह जड़ की भाँति बरतता है, निमित्त मात्र बना रहता है, भला उसे पाप पुण्य कैसे छू सकते हैं? इसके विपरीत जो अज्ञान में फंसा है, वह हिसाब लगाता रहता है-इतना पुण्य किया, इतना पाप किया और इससे वह नित्य ही नीचे गिरता जाता है। और अन्त में उसके पल्ले पाप ही रह जाता है। ज्ञान से अपने अज्ञान का नाश करते जाने वाले के कर्म में नित्य निर्मलता बढ़ती जाती है, संसार की दृष्टि में उसके कर्मों में पूर्णता और पुण्य का भाव होता है, उसके सब कर्म स्वभाविक जान पड़ते हैं। वह समदर्शी होता है। उसकी नजरों में विद्या और विनय वाला ब्रह्मज्ञाता ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता और विवेक-हीन पशु से भी गया बीता मनुष्य सब समान है। आशय यह है कि वह सबकी समान भाव से सेवा करेगा- यह नहीं कि किसी को बड़ा मानकर उसका मान करेगा और दूसरे को तुच्छ समझ कर उसका तिरस्कार करेगा। अनासक्त मनुष्य अपने को सबका देनदार मान कर सबको उनका लहना चुकावेगा और पूरा न्याय करेगा। उसने जीते जी जगत को जीत लिया है, वह ब्रह्ममय है। अपना प्रिय करने वाले पर रीझता नहीं, गाली देने वाले पर खीझता नहीं। आसक्तिवान सुख को बाहर ढूँढ़ता है, अनासक्त निरन्तर भीतर से शान्ति पाता है, क्योंकि बाहर से अपने जीव को समेट लिया है। इन्द्रियजन्य समस्त भोग दुख के कारण हैं। मनुष्य को काम क्रोध से उत्पन्न उपद्रवों का मुकाबला करके उन पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। जो योग अर्थात् समत्व को साधना चाहता है उसका कर्म बिना गुजारा ही नहीं। जिसे समत्व प्राप्त हो गया है, वह शान्त दिखलाई देता है। तात्पर्य उसके विचार मात्र में कर्म का बल आ जाता है। जब मनुष्य इन्द्रिय के विषयों में या कर्म में आसक्त न हो और मन की सारी तरंगों को छोड़ दे तब कहना चाहिये कि उसने योग साधा है अथवा वह योगारुढ़ हुआ है।
आत्मा का उद्धार आत्मा से ही होता है। इसे यों भी कह सकते हैं कि आत्मा ही स्वयं अपना शत्रु बनता है और स्वयं ही मित्र बनता है। जिसने मन को जीता है उसका आत्मा मित्र है, जिसने नहीं जीता है उसका आत्मा शत्रु है।
अनासक्त योगी सब प्राणियों के हित में ही लगा रहता है वह शंकाओं से पीड़ित नहीं होता । ऐसा योगी बाहरी जगत से निराला रहता है वह सदैव स्थिर चित्त रहता है और कामनाओं का अनायास त्याग किये रहता है। उसे जग के खेल अथवा अपने मन में उठने वाली विचारों की लहरें डाँवाडोल नहीं कर सकतीं। प्रकट में वह संसार के कामों लिप्त दिखलाई पड़ता है, तो भी उस पर चारों तरफ के वातावरण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसा ही अनासक्त कर्मयोगी परमात्मा को जानने और परम शाँति प्राप्त करने में समर्थ होता है।