Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रकृति की ओर लौटो
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(श्री एडाल्फ जुस्ट)
पिछले कुछ सौ वर्षों योरोप में भौतिकवाद का जोर बढ़ रहा है और उसने इस लहर को समस्त संसार में फैला दिया है। आज हमको अपने देश के भी अधिकाँश लोगों में जो भोगवाद, फैशनपरस्ती की बढ़ी हुई प्रवृत्ति दिखलायी पड़ती है उसका मूल कारण योरोप के उपर्युक्त सिद्धान्तों का ही प्रभाव है। पर जब भोगवाद के हानिकारक परिणाम दिखलाई पड़ने लगे तो योरोप के ही अनेक लोग उसके विरुद्ध हो गये और उन्होंने ‘प्रकृतिवाद’ का नारा लगाया। इस लेख के लेखक इन्हीं विचारों के एक व्यक्ति हैं और उन्होंने ‘प्रकृति की ओर लौटो’ नामक पुस्तक लिखी है। इसमें भौतिकवाद के विरोध और संसार में फैले हुए कष्टों के सम्बन्ध में निम्नलिखित दलीलें दी हैं :-
(1) आरम्भ में मनुष्य रोग, द्वेष, दुःख, दारिद्रय से मुक्त था। न वह पापी था, न रोगी। वह विशुद्ध था और ईश्वरीय तेज उसमें विद्यमान था।
(2) वह अपने कसूर से पतित हुआ। वह अपनी अयोग्यता से उन्नति न कर सका, उल्टा उसने अपराधों की वृद्धि की, जिससे उसे रोग, शोक, दुःख, दरिद्र ने आ घेरा। विषय-वासना से उत्पन्न हुई गुलामी से उसकी दुर्गति हो गई।
(3) विज्ञान बेदम है। भूकम्प आने के पहले पशु-पक्षी भाग जाते हैं, पर मनुष्य को खबर नहीं होती। विज्ञानवादियों का कमीशन भी एक बार कुछ खबर न पा सका और भूकम्प आ गया।
(4) बीमारी पाप है। यदि संसार में पाप न हो, तो बीमारी भी न हो। यह मानी हुई बात है कि मानसिक विकार, खुदगर्जी, अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष, अनुदारता और क्रोध आदि का भयंकर असर शरीर पर पड़ता है।
(5) मनुष्य के पापों का असर समस्त प्रकृति को दूषित कर देता है। मनुष्य ने उन्नति के नाम पर प्रकृति को बिगाड़ दिया है। जंगलों को काटकर, वायु को दुर्गन्धित करके और शिकार खेलकर सृष्टि को अस्वाभाविक बना दिया है।
(6) क्या कभी किसी ने विचार किया है कि हम क्यों जीते हैं, हमारे जीवन का क्या उद्देश्य है, हम क्यों मरते हैं, संसार का मुख्य प्रयोजन क्या है और परलोक क्या है?
(7) कला-कौशल और व्यापार ने उपरोक्त सब बातों का ध्यान भुला दिया है। नवीन आविष्कारों ने संसार को उलट दिया है। मनुष्य की दौड़-धूप इतनी बढ़ गयी है कि हम उसे चिन्ताजनक अशान्ति मान सकते हैं। व्यापार ने समस्त संसार में एक ऐसी लड़ाई उत्पन्न कर दी है, जैसी आज तक नहीं हुई। व्यापारी रेलों, साइकिलों और मोटरों द्वारा शहर-शहर, पहाड़-पहाड़, नदी-नदी मारे-मारे फिरते हैं। यहाँ से साधन काम नहीं देते वहाँ हवाई जहाजों द्वारा जाते हैं। इनको कहीं सुख नहीं। कौन ऐसा व्यापारी है जो बीमार और अशक्त नहीं?
(8) कुदरत और सभ्यता दोनों परस्पर विरोधी हैं, जो कभी एक नहीं हो सकते। प्राचीन काल में मिश्र, वैविलन, फिनीशिया, यूनान और रोम ने सभ्यता का विस्तार किया, पर आज उनका कहीं पता नहीं है। आज अनेक श्रमजीवी कारखानों के धुँए और खतरनाक यन्त्रों से अपना आरोग्य और स्वतंत्रता खो रहे हैं।
(9) ऊँची जातियों, हाकिमों और पूँजीपतियों ने अपनी शक्ति से निर्बल जातियों को कुचल डाला है। मानसिक पाप से प्रकृति पर धक्का लगता है।
(10) यदि मनुष्य के लिये पृथ्वी पर चलने की अपेक्षा हवा में उड़ना उत्तम होता तो उसके पंख अवश्य होते।
(11) बहुतों का ख्याल है कि मनुष्य प्रकृति की ओर कभी नहीं लौट सकता। वह बुद्धिबल से प्रकृति तक पहुँच सकता है। किन्तु मालूम नहीं ये लोग बुद्धिबल किसको कहते हैं। मनुष्य तो प्रकृति को छोड़ कर बुद्धिवाद में चला गया, अब वह बुद्धिवाद के द्वारा प्रकृति में कैसे आ सकता है? यह प्रवृत्ति मनुष्य को कभी सुखी, निरोग और मृत्युंजय नहीं बना सकती।
(12) सभ्यता ने इसके पूर्व ऐसी उन्नति कभी नहीं की। इसकी भी एक प्रतिक्रिया होगी जो या तो इस सभ्यता को नष्ट कर देगी या इसे प्रकृति और परमेश्वर तक पहुँचा देगी।
(13) मनुष्य प्रकृति को अपना गुलाम बनाकर सुख चाहता है, परन्तु वह इस मार्ग से दुःखों की ओर ही जा रहा है, क्योंकि उसने ईश्वरीय सृष्टि-नियमों को भंग किया है।
(14) डार्विन के विकास-सिद्धान्त से उच्छृंखलता बढ़ी है और मनुष्य- जाति की बड़ी हानि हुई है। इस सिद्धान्त से मनुष्य-जाति की आबरू बहुत कम हो गई।
(15) भौतिक और आध्यात्मिक सिद्धान्त में बड़ा अन्तर है। दोनों परस्पर विरोधी हैं।
(16) जीवन-संग्राम, धीरे-धीरे कम हो जायेगा। परन्तु यह तब तक नष्ट नहीं हो सकता जब तक कि भौतिक उन्नति का नाश न हो जाय और आध्यात्मिक जीवन फिर से आरम्भ न हो।
(17) जिसे पुनः ईश्वर-प्राप्ति पर विश्वास होता है वह मनुष्य भौतिक उन्नति के तंग रास्ते से निकलकर परमेश्वर के प्रकाशमय मार्ग पर आ जाता है। यही सच्चा विज्ञान है। ऐसा करने से उसमें नवजीवन तथा बल की वृद्धि होती है और अन्त में वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
इसलिये लौटो-लौटो-प्रकृति की ओर लौटो। नीचे लिखे नियमों पर आचरण करो। तभी भगवान तुम पर कृपा करेंगे और तुम कष्टों से छुटकारा पा सकोगे।
(1) मनुष्य फलाहारी है। मेवा और फल इसके लिये महान लाभकारी हैं। उसके पचाने वाले यन्त्रों की बनावट फल पचाने के लिए है। दूध, दही और मक्खन खाना उत्तम है।
(2) यद्यपि हम हमेशा नंगे नहीं रह सकते, तो भी शरीर का बहुत बड़ा भाग खुला रह सकता है। खुले पैर बिना जूता पहने घर में और बाहर फिरना बहुत लाभकारी है। स्त्री और पुरुष दोनों को चाहिये कि नंगे सिर घूमने की आदत डालें। दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हमारे पुरुष और स्त्री वर्ग दोनों इस कमबख्त फैशन की दयाजनक गुलामी में फँस गये हैं।
(3) सोने के लिये घास और लकड़ी के बने हुए सादे झोंपड़े ही उत्तम हैं। ये झोंपड़े खुली वायु में जहाँ सघन वृक्षावली और काफी रोशनी हो, बनाने चाहिएं। जमीन पर घास बिछाकर अथवा रेतीली मिट्टी (बालू) बिछाकर सोना उत्तम है। मिट्टी के स्नान से दाह और पुराने रोग भी शाँत हो जाते हैं।
(4) बिजली की रोशनी आँख के लिये महा हानिकारक है।
(5) जहाँ जंगल नहीं वहाँ बड़े-बड़े बगीचे लगाकर जंगल बना लेना चाहिये। मनुष्य जब फल खाने लगेगा तो बगीचों के जंगल हो जायेंगे, जहाँ पशुओं को चारा मिलेगा और मनुष्य को फल।
(6) विषय-भोग तभी होना चाहिये जब प्रकृति आज्ञा दे।
(7) कातना- बुनना, सीना और अन्य गृहस्थी के आवश्यक पदार्थ सब घर में ही तैयार कर लेना चाहिए। विलास की चीजें और साज-सामान एक दम हटा देना चाहिये।
(8) यह मानी हुई बात है कि सादगी ही सत्यता का चिन्ह है।
(9) पशुओं का पालन अच्छी तरह करना चाहिये, क्योंकि उनसे सवारी, माल ढोना, दूध और खेती सम्बन्धी अनेक काम लिये जाते हैं। पशुओं को ताजा, शुद्ध चारा देना चाहिये। जिन घोड़ों को घास की बजाय दाना अधिक दिया जाता है वे बीमार हो जाते हैं। घोड़े की पूँछ वगैरह भी न काटनी चाहिये।
(10) कृत्रिम खाद से उत्पन्न किया गया अन्न, रोगी होता है। यहाँ (विलायत) के रसोईदार अपने देश का गेहूँ अधिक पसन्द नहीं करते। गन्दी खाद से उत्पन्न को तो पशु पसन्द नहीं करते। यही हाल कृत्रिम फलों का समझना चाहिये।
इस तरह यदि मनुष्य भौतिकवाद को त्यागकर परमात्मा और प्रकृति की ओर फिरे तो आपसे आप सामाजिक असमानता मिट जाय और सबको परिश्रम करने का समान रूप से अवसर मिले। मनुष्य शुद्ध हो जाय, निरोग जो जाय, बलवान और प्रतिभावान हो जाय। संसार से बैर, ईर्ष्या, द्वेष चले जायें और हिंसा का सदा के लिये अन्त हो जाय।