Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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इच्छाओं को घटाने से ही सुख प्राप्त होगा।
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(श्री जी. श्रीकण्ठ, मैसूर)
वर्तमान समय में संसार में एक बड़ी विचित्र परिस्थिति दिखलायी पड़ रही है। एक ओर मानव विद्या, कला, धन, वैभव, शक्ति के उच्चतम शिखर पर पहुँच रहा है, वायु, जल, विद्युत, सूर्य सबको अपने नियंत्रण में कर रहा है, और दूसरी तरफ उसे उतनी शाँति भी प्राप्त नहीं है जितनी एक जंगली मनुष्य को प्राप्त है। एक दिन वह हाइड्रोजन बम के विस्फोट से ‘रेडियो एक्टिविटी’ का घातक असर होने की बात सुनकर घबड़ाता है, तो दूसरे दिन इन्फ्लुएंजा के प्रकोप से व्याकुल होकर हाय-तोबा करता दिखलाई पड़ता है। यद्यपि सभी मनुष्य रात-दिन सुख पाने की चेष्टा करते रहते हैं, पर बदले में उनको प्रायः दुःख ही प्राप्त होता है, अथवा वे दुःखी दिखलाई पड़ते हैं। इसका कोई विशेष कारण अवश्य होना चाहिये, और विचार करने से यही जान पड़ता है कि आज कल मनुष्य साँसारिक सम्पदा को ही सुख का एक मात्र साधन समझ बैठे हैं, और उसी को प्राप्त करने के लिये चारों तरफ दौड़ते रहते हैं। हर एक आदमी चाहता है कि मैं अधिक से अधिक सम्पदा इकट्ठी करके रख लूँ जिससे किसी प्रकार का अभाव सता न सके। पर चूँकि दूसरे मनुष्य भी ऐसी ही चेष्टा करते हैं इसलिये स्वभावतः उनमें संघर्ष हो जाता है और उनको कठिनाइयाँ, कष्ट सहन करने पड़ते हैं। जो दशा व्यक्तियों की है, वही छोटे-बड़े तमाम राष्ट्रों की भी है। वे भी संसार के सब पदार्थों और सम्पत्ति पर अपना प्रभुत्व अथवा अधिकार चाहते हैं, जिसके फल से उनमें भी वैमनस्य और संघर्ष की आग भड़कती है जिसके फल से करोड़ों मनुष्यों को संकटग्रस्त होना पड़ता है।
उदाहरण के लिये अमेरिका को देखिये। वह संसार में सबसे अधिक धन-धान्य और प्राकृतिक सम्पत्ति से सम्पन्न है। पर वह रूस को अपना प्रतिद्वन्दी समझता है और इस कारण सुख-शान्ति का उपयोग करने के बजाय बेचैन बना रहता है। इसलिए यह स्पष्ट जान पड़ता है कि मनुष्य को धन-धान्य और सम्पत्ति से वास्तविक सुख नहीं मिल सकता। इन पदार्थों को सुख के साधनों में गिना अवश्य जा सकता है, पर जब तक मनुष्य के मन में शान्ति नहीं है- मन पर नियंत्रण नहीं है, तब तक सुख के पाने की आशा निरर्थक ही है। सुख का प्रधान आधार मानसिक शान्ति पर है। यदि मन में अशान्ति रही तो श्रेष्ठ से श्रेष्ठ भोग सामग्री भी सुख नहीं दे सकती। जैसा गोस्वामी जी ने अयोध्या काण्ड में कहा है-
भोग रोग सम भूषण भारु।
यम यातना सरिस संसारु॥
तब केवल यह विचार करना रह गया कि मन किन कारणों से अशान्त हो जाता है। भारतीय ऋषियों ने इसका प्रधान कारण इच्छाओं को बतलाया है। मन में एक इच्छा उत्पन्न होती है और मनुष्य उसकी पूर्ति के लिये उद्योग करता है। उसके पूरी होने के पहले ही दूसरी इच्छा उत्पन्न हो जाती है। जैसा कि एक शेखचिल्ली की कहानी में बताया गया है कि वह किस प्रकार एक मुर्गी खरीदने का विचार करके हाथी खरीदने और राजा बनने की इच्छा करने लग गया। इसी प्रकार मनुष्य की एक छोटी इच्छा पूरी होती है, तो उससे बड़ी इच्छा पैदा हो जाती है। दूसरी के पूरी होने पर तीसरी और भी बड़ी उसका स्थान ग्रहण कर लेती है। यही क्रम जीवन भर लगा रहता है और इस प्रकार इच्छाओं की पूर्ति करने के लिये मनुष्य सदा व्यस्त बना रहता है। इसलिये जो व्यक्ति सुख की खोज करता है उसे इच्छाओं पर नियंत्रण प्राप्त करना चाहिये। तब इच्छायें अपनी परिस्थिति और आवश्यकता के अनुकूल ही रहेंगी तभी मनुष्य का मन शान्ति प्राप्त कर सकता है और तभी उसे सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है।