Magazine - Year 1957 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अपनी संस्था के लिए एक खतरे की चेतावनी?गायत्री परिवार अगले वर्ष अधिक सावधान रहे।
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(हिमालय निवासी त्रिकालदर्शी परमसिद्ध महात्मा विशुद्धानन्दजी महाराज द्वारा भेजे हुए एक सन्देश का साराँश)
गायत्री तपोभूमि द्वारा आयोजित ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान भारतभूमि में गत पाँच हजार वर्षों में हुए सभी अनुष्ठानों से अधिक महत्वपूर्ण है। महाभारत के बाद इतना बड़ा एवं इतना शक्तिशाली आयोजन और कोई नहीं हुआ। इतनी शक्तिशाली साधन-व्यवस्था यदि कोई साधक अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए कर ले तो वह इस विश्व-ब्रह्माण्ड में सर्वोच्च पद पर पहुँच सकता है। परन्तु चूँकि यह अनुष्ठान विश्व-कल्याण के लिए, विश्व-व्यापी त्रासों और विपत्तियों को हटाने के लिए किया गया है, इसलिए उस उद्देश्य की पूर्ति होनी भी निश्चित है। इस अनुष्ठान के फलस्वरूप भारतभूमि आगामी कुसमय में से अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकेगी और उस ऊँची स्थिति को पहुँच सकेगी जो आज किसी भी देश को प्राप्त नहीं है। भारत को विशेष रूप से इस अनुष्ठान से उत्पन्न महत्वपूर्ण लाभों का रसास्वादन प्राप्त होगा।
आसुरी शक्तियाँ ऐसे दिव्य अनुष्ठानों के प्रभाव से नष्ट होती हैं, पर नष्ट होते समय वे अपने नष्ट करने वाले पर प्रत्याक्रमण अवश्य करती हैं। बन्दूक में भरी हुई बारूद को जब घोड़ा दबाकर चलाया जाता है तो वह घोर गर्जना करती हुई धू-धाँय की आवाज करती है और पीछे की ओर चलाने वाले में ऐसा धक्का मारती है कि यदि चलाने वाला बेखबर हो तो वह औंधे मुँह गिर सकता है और उसकी हड्डी-पसली टूट सकती है। ताँत्रिक अनुष्ठान करने वालों को प्रायः अनेक भयों और प्रलोभनों के बीच में गुजरना पड़ता है, यदि वे फिसल जाएं या डर जाएं तो वे भयंकर विपत्ति में पड़ सकते हैं। उन्हें जीवन से भी हाथ धोना पड़ सकता है। चाहे ताँत्रिक हो या वैदिक शक्ति-तन्त्र को जब भी छेड़ा जायेगा तो उसकी प्रतिरोधी प्रक्रिया भी अवश्य होगी। प्राचीन काल में वैदिक अनुष्ठान करने वाले साधकों को भी यह कठिनाई बराबर सामने आती रही है। विश्वामित्र ऋषि एक बहुत बड़ा अनुष्ठान कर रहे थे- उससे आसुरी तत्व नष्ट होने और दैवी तत्वों के प्रबल होने की संभावना थी, फलस्वरूप प्रतिरोधी असुर शक्तियाँ अपनी आत्म-रक्षा के लिए कटिबद्ध हो गई और उन्होंने अपनी जान को हथेली पर रखकर विश्वामित्र का आयोजन असफल करने की ठान ठानी। ताड़का, मारीच, सुबाहु आदि असुरों ने प्रत्यक्ष संघर्षात्मक मोर्चा संभाला और नानाविधि उपद्रव खड़े करके उस महान् अनुष्ठान को नष्ट करने पर कमर कस ली। विश्वामित्र घबरा गये और उन्हें अन्ततः दशरथजी के द्वार पर अपनी रक्षा की पुकार करने जाना पड़ा, क्योंकि यदि विश्वामित्रजी स्वयं क्रोध करते, असुरों से लड़ते या शाप देते तो उनके अनुष्ठान से उत्पन्न शक्ति उसी प्रतिरोध में समाप्त हो जाती। असुर तो मर जाते पर उनका उद्देश्य विश्वामित्र की शक्ति को नष्ट कर देना पूरा हो जाता। इसी कठिनाई से बचने के लिए विश्वामित्रजी राम-लक्ष्मण को बुलाकर लाये थे।
गायत्री तपोभूमि द्वारा संचालित ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान, त्रेता में विश्वामित्र द्वारा आयोजित अनुष्ठान से कम महत्वपूर्ण नहीं है, त्रेता में उस अनुष्ठान में एक देशीय, एक क्षेत्रीय विशेषताएं थीं और इस युग की स्थिति के अनुसार इस अनुष्ठान में विशाल जनसमूह द्वारा सुगठित 24 करोड़ जप, 24 लक्ष आहुतियाँ, 24 लक्ष मन्त्र-लेखन, 24 लक्ष पाठ का विधान है। दोनों ही अनुष्ठानों का मूल आधार गायत्री महामन्त्र रहा है। गायत्री महामन्त्र के ऋषि विश्वामित्र हैं। उन्होंने अपने जीवन में गायत्री का ही अनुसन्धान किया था, वही उनके प्रयोगों का एकमात्र माध्यम था। तपोभूमि में भी वैसी ही पुनरावृत्ति हो रही है। रावण काल में असुरता एक देशीय थी इसलिए विश्वामित्र का अनुष्ठान भी एक देशीय था। अब असुरता विश्व-व्यापी है, उसका विकास लंका जैसी किसी नगरी में सीमित न होकर जन-मानस में व्यापक हो गया है। ऐसी दशा में उसके निवारण के लिए विशाल जन समूह के द्वारा सुयोजित ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान जैसी प्रक्रिया ही उपयुक्त हो सकती है।
असुरता विरोधी इतने बड़े अभियान द्वारा जो दिव्य शक्ति उत्पन्न की जा रही है, उसकी विरोधी प्रतिक्रिया का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। असुरता अपने आपका नष्ट होना चुपचाप सहन कर ले और अपने शत्रु से कुछ बदला न ले ऐसा नहीं हो सकता। हमें स्पष्ट दीख रहा है कि अगले वर्ष इस ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के संयोजक श्री आचार्यजी के ऊपर आसुरी तत्वों का कोई बड़ा आक्रमण होगा। जो अनुष्ठान उन्होंने आरम्भ किया है वह अत्यधिक विशाल है। 24 करोड़ जप और 24 लक्ष आहुतियाँ प्रतिदिन होना कोई सामान्य कार्य नहीं है। जब छोटे-छोटे 24 हजार और सवा लक्ष के अनुष्ठानों के लिए असुरता से संरक्षण की आवश्यकता पड़ती है तो इतने विशाल अनुष्ठान के विरोध में तो असुरता निश्चय ही उठेगी। सिंह और सर्प जिस प्रकार अपने छेड़ने वाले के ऊपर झपटते हैं उसी प्रकार इस महा-अभियान के प्रतिरोध में भी असुरता फुफकार कर उठेगी।
आचार्यजी आध्यात्मिक तत्व ज्ञान के पारदर्शी मनीषी हैं, वे इस तथ्य को अवश्य जानते होंगे। दो वर्ष पूर्व उन्होंने सवा वर्ष में 125 करोड़ जप और 25 लाख आहुतियों के हवन का आयोजन किया था, उसमें जो प्रतिरोधी तत्व उत्पन्न हुए थे उनसे अपनी रक्षा करने के लिए उन्हें एक-एक माला सुरक्षा के लिए जपने वाले 24 हजार संरक्षक नियुक्त करने पड़े थे। तब यह आयोजन पार पड़ा था। उस पिछले अनुष्ठान की अपेक्षा यह वर्तमान अनुष्ठान लगभग 100 गुना बड़ा है। इस दृष्टि से असुरता का आक्रमण भी उन पर सौ गुना अधिक हो सकता है। उससे बचने के लिए सौ गुने सुरक्षा प्रयत्नों की भी आवश्यकता है। जब विश्वामित्र जैसे ऋषि को अपने निजी प्रयत्न अपर्याप्त मानकर राजा दशरथ के द्वार पर सुरक्षा-व्यवस्था के लिए जाना पड़ा तो आचार्य जी अपनी सुरक्षा अपने तपोबल से आप कर लेंगे यह मानना एक बड़ी भूल ही होगी। दो वर्ष पूर्व वाले विशाल गायत्री महायज्ञ के लिए 24 हजार संरक्षक नियुक्त करना और उससे 100 गुने बड़े यज्ञानुष्ठान को अरक्षित छोड़ देना किसी भी प्रकार उचित नहीं है।
ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान धीरे-धीरे विकसित हो रहा है। गत वर्ष 24 लाख जप और 24 हजार आहुतियाँ प्रतिदिन का संकल्प था। अब वह सवा करोड़, सवा लाख का चल रहा है। अगले वर्ष 24 करोड़ जप, 24 लक्ष आहुतियों का हो जायेगा। तब उसका पूर्ण परिपक्व काल होगा। असुरता भी अपने आक्रमणकारी अस्त्र-शस्त्र उसी क्रम से संभाल रही है। आगामी वर्ष हमें अपनी सूक्ष्म दृष्टि से स्पष्ट दीखता है कि आचार्यजी पर असुरता के अनेक आक्रमण होंगे। जिनमें से कुछ इस प्रकार के हो सकते हैं :-
1- उनके अब तब पूर्ण स्वस्थ रहने वाले शरीर में कोई आकस्मिक कठिन रोग उत्पन्न हो जाय।
2- किसी वाहन दुर्घटना से उनके शरीर को भारी क्षति पहुँचे।
3- किसी मनुष्य द्वारा उनके शरीर को क्षति पहुँचायी जाये।
4- किन्हीं व्यक्तियों की बुद्धि या वाणी पर असुरता बैठकर उनसे अनुष्ठान की निन्दा कराये और उससे अनुष्ठान में लगे हुए व्यक्ति डर जाएं या उदासीन हो जाएं।
5- इस अनुष्ठान में संलग्न साथियों, सदस्यों और साधकों पर आलस्य एवं उदासीनता छा जाय और वे संकल्पित साधना की उपेक्षा करने लगें।
6- तपोभूमि एवं आचार्यजी के सम्बन्ध में कोई लोकापवाद खड़ा हो जाय।
7- सहयोगियों का सहयोग शिथिल हो जाय।
8- कोई आकस्मिक कल्पनातीत बाधा खड़ी हो जाय।
प्राचीन युगों में असुरता अपने विरोधी पर सीधे आक्रमण करती थी। तीर तलवार से अपने विरोधी का शरीर नष्ट करती थी, पर इस युग में लुक-छिप कर छलपूर्ण, भेद भरे, षड्यन्त्रों की प्रधानता रहती है। छल, कपट, प्रपंच, धोखा, विश्वासघात, बनावट एवं षड्यन्त्र इस युग के प्रधान अस्त्र हैं। असुरता किन्हीं व्यक्तियों की बुद्धि में अपनी माया प्रवेश करके इन्हीं शस्त्रों से आक्रमण कराती है और अपने निशाने को आसानी से छेद लेती है।
यों आचार्यजी कच्ची मिट्टी के बने नहीं हैं। उनकी नस-नाड़ियाँ फौलाद की हैं, उन्हें तोड़ सकना हंसी खेल नहीं है। विगत तीस वर्षों से उन्होंने अपने को घनघोर तपस्याओं में तपा-तपाकर अष्टधातु बना लिया है। जिन कमजोरियों पर शत्रु हमला करता है, उन्हें उन्होंने पहले से ही ठोक-पीटकर काफी मजबूत बना लिया है। गिराने वाली वस्तुओं में वासना और तृष्णा-कंचन और कामिनी प्रधान हैं। इन दोनों पहलुओं को उन्होंने पूरी तरह परिपक्व कर लिया है। अपनी जीवन भर की कमाई हुई तथा पूर्वजों की छोड़ी हुई सम्पत्ति का एक-एक पैसा उन्होंने इस मिशन के लिए अर्पण कर दिया है। उनकी धर्म-पत्नी माता भगवतीदेवी ने अपने शरीर के आभूषणों की एक-एक कील माता के चरणों में अर्पण करके एक सतयुगी उदाहरण उपस्थित किया है। जौ की रोटी और नमक छाछ को अपना प्रधान भोजन और तन ढकने भर के लिए खादी के टुकड़े पहनने का व्रत लेकर धन-लोभ को एक प्रकार से इन दोनों ने अपने से हजारों कोस दूर कर दिया है।
यही बात वासना के सम्बन्ध में है। आचार्यजी का दाम्पत्य जीवन यों आरम्भ से ही साधनापूर्ण रहा है, पर गत पाँच वर्षों से तो यह दोनों स्त्री-पुरुष गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी एक दूसरे को माता-पिता जैसी दृष्टि से ही देखते हैं। आचार्यजी माता भगवतीदेवी को माताजी कहते हैं और माताजी की दृष्टि में आचार्यजी पिताजी हैं। आपस में जिनके इतने उच्च भाव हैं, वे दूसरे नर-नारियों के प्रति अत्यन्त उत्कृष्ट भावना ही रख सकते हैं। ऐसे दैवी जीवन में वैसे पतन की कोई संभावना नहीं है, जैसी सामान्य लोगों में होती है। असुरता इन्हीं दो छेदों में प्रवेश करके किसी ऋषि को तपविहीन करती है। चरित्र रूपी किले के इन दो प्रधान फाटकों पर आचार्य जी ने पहले ही इस्पात के फाटक जड़ दिये हैं। हिमालय जैसे उदार हृदय और मानसरोवर से निर्मल इन आत्माओं में वह विष बीज निश्चित रूप से कहीं नहीं है जो इतने बड़े अनुष्ठानों के संयोजकों और संचालकों को झुकाकर उस योजना को नष्ट-भ्रष्ट करा देते हैं। आचार्यजी असंख्यों को पार करने वाले अनुभवी मल्लाह हैं, वे अपने जीवन की बाजी लगाकर प्रारम्भ किए इस महान् अनुष्ठान की विफलता में अपनी किसी कमजोरी को कारण न बनने देंगे, इस सम्बन्ध में हम सब पूर्ण निश्चिन्त रह सकते हैं। वे महान् पैदा हुए हैं, महानता के साथ जी रहे हैं और उनका अन्त भी महान् ही होगा।
काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, मद, मत्सर, शोषण, अनीति, अन्याय, छल, कपट आदि अनेक कारण मनुष्य के सामान्य जीवन में ऐसे होते हैं, जिससे अनेक व्यक्ति उनके शत्रु हो जाते हैं। ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के संचालकों में एक भी दुर्गुण ऐसा नहीं है, जिनके कारण असुरता को उन पर आक्रमण करने का मौका मिले। पर असुरता को बहाना तो कोई ढूंढ़ना ही पड़ेगा। ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान को असफल बनाने के दो ही निमित्त हो सकते हैं- (1) आचार्यजी का शरीर नष्ट या अशक्त हो जाय और उसकी स्थान पूर्ति के लिए और कोई वैसी ही तेजस्वी आत्मा आगे न आये, (2) जो साथी सहयोगी उनका साथ देते हैं वे उदासीन, विलग या प्रतिकूल हो जावें। इन दो ही स्थितियों में संकल्पित जप, हवन, पाठ, लेखन आदि पूरा न होने पर यह महा-अभियान निष्फल किया जा सकता है।
गीता के प्रथम अध्याय के 11वें श्लोक में दुर्योधन ने अपनी सेना के महारथियों को सावधान करते हुए कहा-
अयनेषु व सर्वेषु यथा भाग मवस्थिता।
भीष्मयेवाभि रक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि॥
अर्थ- “इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह रहते हुए आप लोग सबके साथ ही निस्सन्देह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें।” इस अभिवचन में दुर्योधन ने भीष्म पितामह का महत्व सबसे अधिक बताया और अपनी सफलता के लिए उनके शरीर की रक्षा करने के निमित्त अपने सैनिकों और सेनापतियों को बड़ी सावधानी के साथ नियुक्त किया।
जिन देशों में महत्वपूर्ण वैज्ञानिक आविष्कार होते हैं, उन प्रधान आविष्कारों में लगे हुए वैज्ञानिकों की सुरक्षा उस देश की सरकार पूरी सावधानी से करती है। पुराने समय के राजा लोग ब्राह्मणों और तपस्वियों की सुरक्षा में ही अपनी शक्ति सुरक्षित समझ कर उनकी रक्षा प्राण-प्रण से करते थे। आज विश्व-शान्ति के लिए आरम्भ किया गया इस युग का महानतम अनुष्ठान- जिस पर कि संसार का भला-बुरा बहुत कुछ निर्भर है- असफल न हो जावे ऐसा प्रयत्न करना चाहिए; इसका उत्तरदायित्व अब किसी राजा या शक्तिशाली व्यक्ति पर नहीं, वरन् गायत्री- परिवार के सदस्यों पर है। उन्हें यह पूरा ध्यान रखना होगा कि आसुरी शक्तियाँ हमारे भीष्म पितामह के व्यक्ति को किसी प्रकार की आँच न पहुँचाने पावें। अगले वर्ष उन्हें यहाँ-वहाँ यज्ञ- सम्मेलनों में बुलाना या घुमाना भी जहाँ तक हो
सके नहीं ही करना चाहिये ताकि उनका शरीर अस्वस्थता या दुर्घटना होने के अवसरों से बच सके। उनके हिमगिरि जैसे उज्ज्वल व्यक्तित्व पर कीचड़ उछालने परिवार में उदासीनता, भेद-बुद्धि, मतिभ्रम एवं अश्रद्धा उत्पन्न करने की कोई छद्म प्रक्रियायें चल सकती हैं, इनकी वास्तविकता को समझने के लिये परिजनों में सतर्क बुद्धि रहनी चाहिये।
संकल्प बहुत बड़ा है, 24 करोड़ जप एवं 24 लक्ष आहुतियाँ रोज करने के लिए गायत्री परिवार का संगठन और भी बढ़ाने, मजबूत करने एवं गतिशील बनाने की आवश्यकता है। इसके लिए अगले वर्ष हर सदस्य को, हर साधक को, हर परिजन को कुछ अधिक त्याग करने, कुछ अधिक उत्साह दिखाने एवं कुछ अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता है।
अन्त में एक बार आचार्य जी से भी पुनः कहना है कि वे प्रत्येक साधक को एक माला अधिक जप एक वर्ष तक अनुष्ठान की निर्विघ्न सफलता के लिए करने को कहें। सन् 58 में ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान पर नाना विधि आक्रमण होंगे। उस बहुत बड़ी खाई को पार करना है अन्यथा इतना विशाल आयोजन, इतना महान प्रयत्न विफल हो सकता है और उस विफलता का दुष्परिणाम सारी मनुष्य जाति को भोगना पड़ेगा।
सब अपना ध्यान आचार्यजी की सुरक्षा तथा ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की प्रगति पर पूरी सावधानी के साथ रखें। सन् 58 के लिए गायत्री-परिवार को यह एक बहुत महत्वपूर्ण चेतावनी है।