Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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मृत्यु जीवन का अन्त नहीं
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महान धर्मात्मा राजा जनश्रुति को जब भोग-विलास से वैराग्य हुआ तो उसने देखा कि अब तो उसका शरीर भी जर्जर हो चुका है। शरीर में तप और साधना की शक्ति भी नहीं रही। जीवन भर अज्ञान में अनेक पाप किये उनका पश्चाताप राजा को दलने लगा तो वह महामुनि रैक्य के पास पहुँचे और बोले भगवन् मैं धर्म चित्त हुआ राजा आज जीव भाव से आपके समक्ष उपस्थित हुआ हूँ।
मुझे बतलाइये मृत्यु के बाद क्या होता है और क्या मेरी असहाय चेतना भी जन्म मृत्यु के बन्धन से मुक्ति पा सकती है।
महामुनि रैक्य ने बताया-राजन् ! जब मृत्यु का समय आता है तब सब इंद्रियों की वृति वाणी में लय हो जाती है वाणी की वृति मन में और मन की वृति तब प्राण में परिवर्तित हो जाती है। जागृत अवस्था में पाँच ज्ञानेंद्रियां मन की इच्छाओं पर नाचती थी पर मृत्यु के समय मन प्राण चेतना के वश में चला जाता है तब प्राण ही जीवन भर की स्थिति के अनुरूप नये निर्माण में जुट जाते हैं वह निर्माण चाहे अच्छा हो या बुरा उसका निर्णय चेतना के शरीर छोड़ते समय ही हो जाता है । जो लोग उपासना, तप, ज्ञान सम्वर्धन और साधना द्वारा अपना मनोबल और आत्म बल विकसित कर लेते हैं वह अनेक गुणों और संस्कारों से युक्त सुन्दर बनी रह पाते हैं और जिनकी इंद्रियों के प्रति लालसा जागृत बनी रहती है वे उन उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए पुनः कोई शरीर धारण करते हैं। यह पटाक्षेप तनातन काल तक चलते रहते हैं।
उपरोक्त कथन में मृत्यु विज्ञान पर जहाँ शास्त्रीय प्रकाश डाला गया है वहाँ यह समझाने का प्रयत्न भी है कि एक मृत्यु के बाद मनुष्य जीवन का अन्त नहीं हो जाता वरन् उसे अपने कर्मानुसार अन्य जन्म भी धारण करने पड़ते हैं। बार-बार जन्म और मृत्यु होती है जब तक सृष्टि का प्रत्येक जीव पूर्णता नहीं प्राप्त कर लेता यह प्रक्रिया कभी बन्द न होगी। पुनर्जन्म के इस के इस सिद्धांत को न मानने के कारण जहाँ ईसाई और मुसलमानों में अमानवीय आदर्श , हिंसा, भोगवाद, संग्रह, विलासिता और असामाजिकता का भाव बढ़ा वहाँ भारतीयों में कर्तव्य धर्म और सदाचार के प्रति अब भी प्रेम और निष्ठा जुड़ी हुई है। इस विश्वास का मनोवैज्ञानिक लाभ हिन्दू जाति को सत्कर्म के रूप में मिला हैं। अभी भी यदि दुनिया में कोई देश है जहाँ विश्व मानव के प्रति दया, करुणा ,क्षमा, उदारता ,नैतिकता और सामाजिकता का भाव बचा हुआ है तो वह भारतवर्ष ही है।
प्रस्तुत घटनायें इस बात का प्रमाण है कि पुनर्जन्म की मान्यता निराधार तथ्य नहीं । 1660 में राजकोट के सलोद बैंक के कर्मचारी प्रवीनचन्द्र शाह को एक पुत्री हुई । उसका नाम राजुल है। तीन साल तक बालिका के अति मस्तिष्कीय ज्ञान में जागृति के कोई लक्षण नहीं दिखाई दिये। पर थोड़े दिन बाद ही वह करने लगी कि वह तो जूनागढ की है उसका नाम गीता है। पहले तो घर वालो ने कोई ध्यान नहीं दिया पर बाद में लड़की के दादाजी ब्रजभाई शाह ने अपने दमाद को जूनागढ जाकर पता लगाने को कहा।
जब वहाँ जाकर खोज की गई तो पता चला कि टैली स्ट्रीट जुनागढ के गोकलदास ठक्कर की बेटी गीता की मृत्यु जब वह 2॥ वर्ष की थी तब हो गई थी। राजुल अपने घर पास मिठाई की दुकान का जिक्र किया करती थी। जब यह लोग बालिका को लेकर जूनागढ पहुँचे तो ऊपर पते पर बताये गये स्थान के पास ही उस दुकान को बालिका ने पहचान लिया । शाम को व लोग राजुल को लेकर गोकुलदास ठक्कर के घर गये। उनकी धर्म पत्नी काँताबेन खिड़की के पास खड़ी थी। ब्रजभाई ने राजुल से पूछा? क्या तू इन्हें पहचानती है तो बालिका ने थोड़ा दिमाग को जोर लगाया और बोली-” तुम मेरी माँ हो। “ यही नहीं उसने उन्हें “भाभी “ कहकर पुकारा तो सब लोग आश्चर्य चकित रह गये क्योंकि गीता (अब राजुल) अपनी माँ को भाभी कहकर ही पुकारा करती थी। शाह परिवार को भी बड़ा आश्चर्य हुआ कि अपने परिवार में तो माँ को बा कहा जाता है पर लड़की ने माँ को भाभी कहने का सम्बोधन कहाँ से सीखा।
दूसरे दिन घर के सब लोग मन्दिर दर्शन करने गये। बालिका से उस मन्दिर का पता पूछा तो उसने एक घर की ओर इशारा किया । लोगों ले समझा लड़की भूल गई पर काँताबेन ने बताया कि यह मकान सा दिखाई देने वाला ही मन्दिर है और वे प्रतिदिन यहाँ पूजा करती है तो लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। लड़की के कथन की सत्यता को सभी ने स्वीकार किया।
इसी तरह का एक और प्रसंग कल्याण मार्च 1666 में छपी बेमुला (लंका) का है। सुरेश मैतृमूर्ति नाम के एक व्यक्ति जिन्होंने बौद्ध धर्म में दीक्षा ली थी बीमार पड़ गये। बीमारी के दिनों में उन्हें किसी अज्ञात प्रेरणा से मालूम हो गया कि उनकी मृत्यु कल शाम तक अवश्य हो जायेगी और उनका दूसरा जन्म उत्तर भारत में कही होगा।
लोगों ने इनकी बातों का विश्वास नहीं किया क्योंकि तब स्थित काफी सुधर चुकी थी। दिन भर स्थिति सुधरती ही रही किन्तु बात उन्हीं की सच हुई सायंकाल से पूर्व ही उनकी मृत्यु हो गई । मरने से पूर्व उन्होंने अपनी कलाई घड़ी अपने गुरुभाई श्री आनंद नेत्राय ने को दी । दोनों में बड़ा आत्म भाव था इसलिये श्री नेत्राय ने उनकी दूसरी बात का भी पता लगाने का निश्चय किया।
कई वर्ष बाद श्री आनन्द नेत्राय मद्रास और एक ज्योतिषी से सुरेश के पुनर्जन्म की बात पूछी । उक्त ज्योतिषी के पास 5000 वर्ष पुरानी कोई पुनर्जन्म विद्या की पुस्तक थी उसके आधार पर उसने बताया कि सुरेश का जन्म बिहार प्राँत में हुआ है । पिता का नाम रमेश सिंह और माता का नाम सावित्री बताया । इतने सूत्र मिल जाने पर श्री आनन्द नेत्राय ने पुलिस रिकार्ड की सहायता से पता लगाया। बच्चे का पता चल गया और कुछ विचित्र बाते सामने आई जैसे कि यह बालक भी अपने पूर्व जन्म की बाते बजाने लगा । आनन्द नेत्राय लंका में प्रोफेसर है वे बच्चे को वहाँ ले गये उसने जहाँ अनेक बाते स्पष्ट पहचानी वहाँ लोगों को अपनी घड़ी पहचान कर आश्चर्य चकित कर दिया आनन्द नेत्राय के हाथ की घड़ी देखते ही उसने कहा-”यह घड़ी मरी है। यह वही घड़ी थी जो मृत्यु के पूर्व सुरेश ने ही आनन्द जी को दी थी।
बिहार में जन्मे बालक ओर सुरेश के गुण , कर्म और स्वभाव में अधिकाँश साम्य पाया गया इससे यह सिद्ध हो जाता है कि जीवात्मा की यात्रा जिस स्थान से (आत्मिक विकास की दृष्टि से) समाप्त हुई थी वही से फिर शुरू हो जाती है यदि मनुष्य अपने जीवन को संवारने , सुधारने ऊर्ध्वगामी बनाने में लग जाता है तो पिछले जीवन के अशुभ कर्मों का फल भोगते हुए भी उसका जीवन साधुओं जैसा निर्मल और उद्यत होता जाता है यदि पिछले जन्म के प्रारब्ध बहुत कठिन और जटिल न हुये तो थोड़े ही दिन में स्थिर शान्ति और आनन्द की प्राप्ति होती है यदि जीवन का अधिकाँश जन्म ग्रहण करना पड़ता है तो उसका दूसरा जन्म उच्च और श्री सम्पन्न कुल में होता है और फिर उसे जीवन मुक्ति की उपलब्धि होती है।
गीता का कथन है-
शरीरं यदवाप्नोति पच्चाप्यूत्क्रामतीश्सरः।
गृही त्वैवानि संयति वायुर्गम्धानिवाशायात्॥
--गीता 5।8
अर्थात्-जिस तरह गन्ध के स्थान से गन्ध ग्रहण कर ले जाता है वैसे ही देहों में निवास करने वाला जीवात्मा जिस पहले शरीर को त्यागता है उससे इन मन सहित इंद्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें जाता है भावार्थ यह है कि मृत्यु के समय जैसे
भाव-कुभाव जीव के होते हैं वह अन्य जन्म में चले जाते हैं। सह संस्कार कहे जाते हैं और उन्हीं के आधार पर जब नये जीवन का प्रारम्भ करता है।
इसी सूक्ष्म जीवन विद्या पर प्रकाश डालते हुये अपौरुषेय वेद करते है-
“पुनर्मन पुनरायुर्म आगन्पुनः-प्राणः-पुनरात्मा म आगन पुनण्चक्षुः पुनः श्रोत्रं आगन् । वेश्वानरोऽदब्ध स्तनूपा अग्निर्नः पातु दुरितादवसात् ॥
यजु॰ 4।15
अर्थात्-सोने के समय मन आदि सब इंद्रियां लीन हो गई थी तब भी प्राण जागृत था तथापि उसके कार्य का हमें पता नहीं था वह सब कल के समान आज पुनः प्राप्त हुआ है यह आत्मा हमें पाप कर्मों से बचावे। जिस प्रकार निद्रा के पश्चात सभी इंद्रियां आदि स्वस्थ रूप में प्राप्त होती है उसी प्रकार महा निद्रा के पश्चात भी हम उन्हें नई शक्तियों के साथ प्राप्त करते हैं जो इस बात को नहीं जानता और इन्द्रियासिक्त या प्रमाद में पड़ा रहता है आत्म शक्ति को नष्ट कर क्षुद्र योनियों में पड़ता है । अग्निदेव (परमेश्वर) हमें स अधोगति से बचाये।
मृत्यु एक विधि व्याख्या है मात्र संयोग नहीं उसका एक उदाहरण इस प्रकार है बरेली जिले के बहेडी ग्राम में पुनर्जीवन की एक विलक्षण घटना घटित हुई । गन्ना विकास संघ के एक चपरासी की एक अल्पवयस्क पुत्री की मृत्यु हो गई । जब उसे दफनाने के लिये ले जाया जा रहा था तो शव हिलता डुलता दिखाई दिया । जमीन पर रखदी गई। और थोड़ी देर में ही वह जीवित होकर उठ बैठी । और भी विचित्र बात उस समय हुई जब उस बालिका ने जैसे ही लौटकर घर में कदम रखा तो पड़ोस की एक उसी आयु की बालिका की मृत्यु हो गई। यह घटना मृत्यु के सम्बन्ध में और भी दार्शनिक गूढ़ता पैदा करने वाली कही जा रही है। इससे पता चलता है कि मृत्यु परमात्मा भी एक नियन्त्रित व्यवस्था है भले ही उसे समझने में कुछ समय क्यों न लगे।