Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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अहंकार की असुरता पर देवत्व की विजय
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पितामह ब्रह्माजी ने युद्ध की योजना बनाकर दी थी, विष्णु ने संगठित किया था, महर्षि दधीचि ने अस्थियाँ दी थीं जिससे वृत्रासुर को मारने वाला वज्र बना था-विजय इन योजनाओं और आयुधों में ही मिली थी किन्तु कृतघ्न अहंकार की जितनी निन्दा की जाये कम होगी, उसी अहंकार ने आज बिडौजा इन्द्र में आच्छादित कर लिया था। इन्द्र गाल बजाते घूम रहे थे-मैं न होता तो वृत्रासुर को कोई मार नहीं सकता था।
गुणों का सम्मान ही इस दृष्टि से दूसरे लोग प्रशंसा दे, सम्मान करे यह उचित ही नहीं आवश्यक भी है किन्तु व्यक्ति जब स्वयं ही कर्तापन का अभिमान हो जाता है तो वह अपने सहयोगियों की भी उपेक्षा करता है और भविष्य की सतर्कता को छोड़ बैठता है जिससे उसका पतन होने लगता है। परमपिता परमात्मा नहीं चाहते थे कि जो देवत्व इतने यत्नों के बाद विजयी हुआ वह अहंकार के कारण पतित हो जाये अतएव उन्होंने मधवन् का अहंकार नष्ट करने का निश्चय कर लिया।
विद्युत् चमकती है उसी प्रकार चौंध उत्पन्न हुई जब तक देवताओं की दृष्टि उधर उठे एक अनुपम काँति युक्त यक्ष समक्ष खड़ा दिखाई दिया। उसका मनोहारी सौन्दर्य देखते ही देवगण मोहित हो उठें ऐसा सौन्दर्य पहले कभी नहीं देखा था। इन्द्र ने अग्नि से कहा-जातवेद! टाप हम सब में पूज्य है , अग्रणी है आप ही जाकर पता लगायें यह यक्ष कौन है। हुताशन अपनी प्रशंसा सुन फूले न समाये। दीर्घ ज्वालायें लपलपाते हुये वे यक्ष के पास पहुँचे अहंकार प्रदर्शित कर पूछा-तुम कौन हो ?
यक्ष ने हँसकर कहा-अग्नि देव! अपनी शक्ति का अहंकार न करो-यदि तुम सचमुच इतने समर्थ हो तो इस तिनके को जलाकर दिखाओ। तिनके को देखकर हँसे मानो वह उनके लिये फूँक मारकर जला देने से भी सहज कार्य था। सारी शक्ति लगाकर प्रहार किया उन्होंने पर तिनके को न जला पाये। अग्नि अहंकार लेकर गये थे पराजय लेकर लौट आये।
इन्द्र ने तब महाबली मरुत को भेजा। मरुत से भी यक्ष ने वही बात कही। अपने बल का गर्व करने वाले पवनदेव भी तिनके को कण भर हिला तक न सके। तब क्रमशः वरुण, पृथ्वी और आकाश सभी ने शक्ति आजमाई पर उस तिनके का कोई कुछ भी बिगाड़ न सका। विस्मित इन्द्र स्वयं चल पड़े तिनके को पास जाकर देखा और फिर ऊपर दृष्टि उठाई तो वहाँ न कोई यक्ष था न उसकी छाया। इन्द्र बड़े विस्मित हुये और ध्यान लगाकर बैठ गये आखिर यह यक्ष कौन था ।
मन जब एकाग्र होता है और दत्त-चित्त होकर विराट् विश्व की-परिस्थितियों का, गतिविधियों का सर्वेक्षण करता है तब पता चलता है कि कर्तापन का अपना अहंकार नितान्त मिथ्या है। यह संसार अपने न रहने पर भी ज्यों का त्यों चलता रहता है। इसे चलाने और जीवन देने वाली तो कोई दूसरी ही महान् सत्ता है जब तक वह महान् चेतना अस्तित्व में है मनुष्य का अहंकार करना पाप ही तो है।
इन्द्र ने उस सत्ता को शीश झुकाया पुनः प्रकट हुए इन्द्र ने प्रणाम किया और कहा-भगवन् अपनी माया से समस्त देवों को परास्त करने वाले आप कौन हैं और यहाँ क्यों आये। यक्ष ने कहा-तात ! इस विश्व का अधिष्ठाता और कर्माध्यक्ष ब्रह्मा हूँ , तुमने अहंकार वश सेवा, त्याग और बलिदान की उन वृत्तियों को भुला दिया जिनके कारण तुम विजयी हुए थे । स्वयं-विजेता बनने का अहंकार हर कोई करने लगेगा तो श्रेष्ठ गुणों को कौन महत्व देगा ? यही पाठ पढ़ाने मुझे यहाँ आना पड़ा।
इन्द्र का मनोविकार धुल गया। उन्होंने भूल के लिये क्षमा माँगी और वहाँ से उठकर विश्व में पनप रही देव वृत्तियों के विकास और अभिनन्दन के लिये चल पड़े।