Magazine - Year 1971 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
तन्मे मनः शिव संकल्प मस्तु
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
“ 16 वर्षीया एक फ्रांसीसी युवती ने एक बार युवक से विवाह सम्बन्ध निश्चित किया। युवक भी उसे प्यार करता था अतएव विवाह की स्वीकृति तो उसने दे दी किन्तु साथ ही यह वचन भी ले लिया कि वह अभी कुछ दिन धन कमाएगा तब विवाह करेगा। युवती जानती थी कि गृहस्थ संचालन की सुविधायें धन से ही प्राप्त होती है अतएव उसने सहर्ष अनुमति दे दी। युवक अमेरिका चला गया और रोजगार शुरू कर दिया।”
3 वर्ष बाद उसने पर्याप्त धन कमा लिया किन्तु इस बीच एक मुकदमा लग गया और उसे मुकदमे में उलझना पड़ गया। युवक ने पत्र द्वारा प्रेयसी को सूचना भेजी दी कि वह कम से कम 10 वर्ष तक लौट नहीं पायेगा, युवती ने उत्तर में लिखा -तुम जब भी लौटोगे तभी विवाह करूंगी, मृत्युपर्यन्त तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगी, युवक ठीक 14 वर्ष बाद लौटा , और यह देख कर आश्चर्य चकित रह गया कि जिस युवती को 14 वर्ष में 14 वर्ष में अधेड़ हो जाना चाहिए उसके नाक-नक्शे, शरीर स्वास्थ्य में बिल्कुल अन्तर नहीं पहले जैसी ताजगी, मानो उसे अमेरिका गये कुछ सप्ताह से अधिक न बीते हो। विवाह सम्पन्न हुआ। विवाह संपन्न हुआ। दोनों सुख से रहने लगे पर युवक का विस्मय अभी तक भी दूर नहीं हुआ था सो उसने एक दिन युवती से पूछ ही तो लिया रहस्य ?
उक्त घटना का चित्रण करते हुये अमरीकी वैज्ञानिक और लेखक डॉ॰ बैनेट अपनी पुस्तक “वृद्धावस्था-कारण और निवारण (ओल्ड एज, इट्स काज एन्ड प्रिव्हेन्शन”) में लिखते हैं कि मनुष्य शरीर समुद्री लहर की तरह है जिसमें से कूड़ा कचरा हर घड़ी किनारे फेंका जाता रहता है और जल को शुद्ध रखा जाता रहता है। 80 दिन पीछे शरीर का एक भी कोश (ऐल) पुराना नहीं रह जाता । जिस तरह जीर्ण और पुराना हो जाने पर मकान को बदल दिया जाता है उसे और अधिक पक्की ईंटों से बनाकर नया कर देते हैं उसी प्रकार परमात्मा ने शरीर की व्यवस्था की है। हर पुराना कोश बदल जाता है और प्रकृति उसके स्थान पर स्वस्थ कोश स्थापित करती रहती है । फिर मनुष्य बूढ़ा क्यों हो जाता है ? बैनेट ने वर्षों इस बात पर विचार किया, मनन-चिन्तन और अन्य परीक्षण किये तब कहीं उसका उत्तर उसकी समझ में आया। वह उत्तर उन्होंने इस घटना के माध्यम से देते हुए आगे लिखा है के एक दिन युवक ने पूछ ही लिया अपनी नव विवाहिता से- तुम्हारे शरीर में अन्तर क्यों नहीं पड़ा ?
युवती अपने पति को एक 6 फुट शीशे के पास ले गई और उसके सामने खड़ी होकर बोली-यह है रहस्य मेरे स्वास्थ्य का। जिस दिन आप मेरे पास से विदा हुये मैंने संकल्प लिया कि आप जब लौटेंगे आपको इसी अवस्था में मिलूँगी । मैं प्रतिदिन प्रातःकाल सोकर उठती तो पहले इस शीशे के पास आती । इसी तरह इसके सामने खड़ी होकर अपने चेहरे को देखकर प्रसन्न होती और मस्तिष्क में एक बात उठाती कि कल जैसी थी अब भी ठीक वैसी ही हूँ मुझ में कुछ भी परिवर्तन नहीं होगा। फिर मैं काम पर लग जाती । दिन भर काम करती हंसती खेलती पर मन में अपने सवेरे वाले स्वस्थ चेहरे की ही कल्पना करती रहती और उससे हर क्षण एक नई स्फूर्ति अनुभव करती रहती। मैंने मन में सदैव अपने आप को 16 वर्ष का बनाकर रखा, उसी का प्रतिफल है कि 14 वर्ष बीत जाने पर भी मैं ज्यों की त्यों स्वस्थ हूँ ।
इस घटना द्वारा डॉ॰ बैनेट ने एक नये विज्ञान और अभूत पूर्व भारतीय को नई स्थापना दी है और लिखा है मनुष्य का मन जैसा होगा वैसा ही वह बनेगा। मनुष्य का मन बड़ा समर्थ है वह मिट्टी को सोना और सोने को हीरे में बदल सकने की सामर्थ्य से परिपूर्ण है।
जिस तरह मनुष्य ने शरीर को भोग की वस्तु समझ कर उसने अपने आपको महान् आध्यात्मिक सुख संपदाओं से विमुख कर लिया यह दुर्भाग्य ही है कि वह मन जैसी अत्यन्त प्रचण्ड शक्ति का उपयोग केवल लौकिक स्वार्थों और इन्द्रिय भोगो तक सीमित रखकर उसे नष्ट करता रहता है। मन भौतिक शरीर की चेतन शक्ति है-आइन्स्टीन के शक्ति सिद्धांत के अनुसार न कुछ भार वाले एक परमाणु में ही प्रकाश की गति फ् प्रकाश की गति अर्थात्- 186000 फ् 186000 कैलोरी शक्ति उत्पन्न होगी। 1 पौण्ड पदार्थ की शक्ति 14 लाख टन कोयला जलाने से जितनी शक्ति मिलेगी इतनी होगी । यद्यपि पदार्थ को पूरी तरह शक्ति में सम्भव नहीं हुआ । तथापि यदि इस शक्ति को पूरी तरह शक्ति में बदलना सम्भव होता तो एक पौण्ड कोयले में जितना द्रव्य होता है उसे शक्ति में बदल देने से सम्पूर्ण अमेरिका के लिये 1 माह तक के लिये बिजली तैयार हो जाती है। मन शरीर के द्रव्य की विद्युत शक्ति है मन की एकाग्रता जितनी बढ़ेगी शक्ति उतनी ही तीव्र होगी। यदि सम्पूर्ण शरीर को इस शक्ति में बदला जा सके तो 120 पौण्ड भार वाले शरीर की विद्युत शक्ति अर्थात् मन की सामर्थ्य इतनी अधिक होगी कि वह पूरे अमरीका को लगातार 10 वर्ष तक विद्युत देता रह सके। इस प्रचण्ड क्षमता से ही भारतीय योगी ऋषि महर्षि शून्य आकाश में स्फोट किया करते थे और वे किसी को एक अक्षर का उपदेश दिये बिना अपनी इच्छानुसार अपने संकल्प बल से समस्त भूमंडल की मानवीय समस्याओं का संचालन और नियंत्रण किया करते थे। शेर और गाय को एक ही घाट पानी पिला देने की प्रचण्ड क्षमता इसी शक्ति की थी। मन को ही वेद में “ज्योतीषां ज्योति “ अर्थात् प्रकाश का भी महाप्रकाश कहा है। डॉ॰ बैनेट उसे एक महान-विद्युत शक्ति (माइन्ड इज इग्रेट इलेक्ट्रिकल फोर्स) से सम्बोधित किया है।
खेद है कि मनुष्य इतनी अतुल शक्ति-संपत्ति का स्वामी होकर भी परमुखापेक्षी और दीन-हीन जीवन जीता है। मन एक शक्ति है यदि उसे विकृत और घृणित रखा जाता है तो सिवाय इसके कि दूषित परिणाम सामने आये और क्या हो सकता है । अमेरिका के रोगियों का मनोविश्लेषण करने से पाया गया है कि यों तो अधिकाँश सभी रोगी मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ थे किन्तु पेट के अधिकाँशतः प्रतिशत मरीज दूषित विचारो वालो व्यक्ति थे । डॉ॰ कैनन ने अध्ययन करके लिखा है कि “ आमाशय “ का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क के “आटानोमिक “ केन्द्र से होता है। आटोनोमिक केन्द्र के दो भाग होते हैं। (1) सिंपेथेटिक, (2) पैरा सिंपेथेटिक यह दोनों अंग पेट की क्रियाएं संचालित करते हैं पाचन रस उत्पन्न करते हैं। यदि रोगी मानसिक चिंताओं और आवेगों से पीड़ित होगा तो निश्चित ही उसकी पेट की क्रियाओं में विपरीत प्रभाव पड़ेगा और उसका पेट हमेशा खराब रहेगा। इसलिये सामान्य स्वास्थ्य के लिये ही-मनुष्य का अच्छे और विधायक विचारो वाला होना अत्यावश्यक है।
सन् 1623 में किये गये डॉ॰ क्रेन्स डेलमार और डाक्टर राओ की शोधें शरीर और मन के संबंधों पर विस्तृत प्रकाश डालती है उनका कहना है कि शरीर में कोई रोग उत्पन्न नहीं हो सकता जब तक कि मनुष्य का मन स्वस्थ है। जाँच के दौरान जो महत्वपूर्ण निष्कर्ष हाथ लगे वह बताते हैं कि “स्नायुशूल“ उन्हें होता है जो आवश्यकता से अधिक खुदगर्ज तथा हिंसक होते हैं। “गठिया “ का मूल कारण ईर्ष्या है। निराश और हमेशा दूसरों में दोष देखने वाले लोग ही कैंसर का शिकार होते हैं। सर्दी उन्हें अधिक लगती है जो दूसरों को तंग किया करते हैं। हिस्टीरिया और गुल्म, चोर,ठग और निराश व्यक्तियों को होता है। अजीर्ण झगड़ालू लोगों को होता है। तात्पर्य यह कि हर बीमारी मनुष्य की मानसिक विकृति का परिणाम होती है। आज जो संसार में रोग-शोक की भयानक बाढ़ उपज पड़ी है। उसका कारण न तो कोई विषाणु है और न ही बाहरी वातावरण। उसका कारण तो विकृति और बुरे विचारो के रूप में हर व्यक्ति के मन के अन्दर बैठा हुआ होता है। यदि मनुष्य अपने मन को ऊर्ध्वगामी बनाले तो वह कुछ से कुछ बन सकता है उत्तम स्वास्थ्य तो उसका अत्यन्त स्थूल लाभ है। “मन एवं मनुष्याणाँ कारणं बधं मौक्षयो“ अर्थात् बंधन और मुक्ति का कारण भी यह मन ही है।
डॉ॰ बैनेट ने स्वयं अपना उदाहरण इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है। उन्होंने पुस्तक में अपनी दो फोटो छापी है। एक 40 वर्ष की उम्र की दूसरी 70 वर्ष की आयु की 70 वर्ष की आयु वाले फोटो में कोई झुर्री नहीं कोई सिकुड़न और बुढ़ापे के लक्षण नहीं जब कि 40 वर्ष की आयु वाले फोटो को देखने से लगता है कि यह बूढ़ा ही नहीं रोगी भी होगा ,धँसी आंखें पिचके गाल सूखा चेहरा ?
यह अन्तर कहाँ से आ गया उसका उत्तर देते हुये श्री बैनेट स्वीकार करते हैं कि उन्होंने मन के महत्व को 40 वर्ष की आयु में तब जाना जब शरीर बिलकुल कृश हो बया था। मैंने 40 वर्ष का जीवन बुरी मनःस्थिति में दूषित कर्मों का लिया। स्वास्थ्य इतना खराब हो गया कि एक क्षण की जिन्दगी भी 10 मन पत्थर से दबी जान पड़ने लगी तभी मैंने डॉ॰ मारडन, जोकि अमरीका के एक महान् अध्यात्म-परायण व्यक्ति है के विचार पढ़े उन्होंने अपनी पुस्तक “लौह इच्छा शक्ति” (एन आइरन बिल) में लिखा है -मनुष्य अपने विचार नयशक्ति कर ले। अपने विचार और चरित्र बदल ले तो वह अपने शरीर को नया कर सकता है। इस स्वाध्याय ने मुझे औषधि का वरदान दिया। मैंने अपने आपको स्वस्थ अनुभव करने सदैव प्रसन्न रहने सेवा सहयोग प्रेम मैत्री दया करुणा और परोपकार का जीवन जीने का अभ्यास प्रारम्भ कर दिया और उसका जो सुफल मिला वह मेरी 70 वर्ष वाली फोटो में पाठक स्पष्ट देख सकते हैं।
डॉ॰ बैनेट की बात को सबसे पहले भारतीय तत्वदर्शियों ने जाना उन्होंने पहले ही लिख दिया है-”संकल्पं मातसं दवेी चतुसवर्ग प्रदायकम् “ अर्थात् मन के संकल्प में धर्म अर्थ ,काम और मोक्ष दिलाने वाली सभी शक्तियाँ भरी पड़ी है। उसकी शुद्धता और उसकी विधेयक शक्ति की जानकारी होने पर ही वे प्रातःकाल प्रार्थना किया करते थे-यस्मात् ऋतु किंचन कर्म क्रियते। तन्मे मनः शिव संकल्प मस्तु (यजुर्वेद) अर्थात् जिसके बिना संसार का कोई भी कर्म नहीं हो सकता वह मेरा मन शिव संकल्प वाला हो।
आज के रोग शोक आज की सामाजिक विकृतियों का कारण कोई बाह्य नहीं लोगों के मनों का दूषित हो जाना है। इसलिये आज की प्रमुख समस्या बेरोजगारी, आबादी ,खाद्यान्न आदि नहीं मन की विकृति है जब तक उसको न सुधारा जायेगा संसार से संकट कम करने की बात सोचना व्यर्थ और निरर्थक होगा।