Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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सर्वशक्तिमान परमेश्वर और उसका
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प्रत्येक कर्म का कोई अधिष्ठाता जरूर होता है। परिवार के वयोवृद्ध मुखिया के हाथ सारी गृहस्थी का नियन्त्रण होता है, मिलों-कारखानों की देख−रेख के लिये मैनेजर होते हैं, राज्यपाल-प्रान्त के शासन की बागडोर सँभालते हैं, राष्ट्रपति सम्पूर्ण राष्ट्र का स्वामी होता है। जिसके हाथ में जैसी विधि-व्यवस्था होती है उसी के अनुरूप उसे अधिकार भी मिले होते हैं। अपराधियों की दण्ड व्यवस्था, संपूर्ण प्रजा के पालन-पोषण और न्याय के लिये उन्हें उसी अनुपात से वैधानिक या सैद्धान्तिक अधिकार प्राप्त होते हैं। अधिकार न दिये जाये तो लोग
स्वेच्छाचारिता ,छल-कपट और निर्दयता का व्यवहार करने लगें। न्याय व्यवस्था के लिये शक्ति और सत्तावान होना उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है।
इतना बड़ा संसार एक निश्चित व्यवस्था पर ठीक-ठिकाने चल रहा है, सूरज प्रतिदिन ठीक समय से निकल आता है, चन्द्रमा की क्या औकात जो अपनी माहबारी ड्यूटी में रत्ती भर फर्क डाल दे, ऋतुएं अपना समय आते समय ही आती और लौट जाती है, टेसू गर्मी में ही फूलते हैं ,वर्षा तभी होती है जब समुद्र से मानसून बनता है। सारी दुनिया प्रकृति, सम्पूर्ण संसार ठीक व्यवस्था से चल रहा है, जो जरा-सा इधर-उधर हुआ कि उसने मार खाई। अपनी कक्षा से जरा डाँवाडोल हुये कि एक तारे को दूसरा खा गया। जीवन-क्रम में थोड़ी भूल हुई कि रोग-शोक, बीमारी और अकाल मृत्यु ने झपट्टा मारा । इतने बड़े संसार का नियामक परमात्मा बड़ा शक्तिशाली है।सत्तावान न होता तो कौन उसकी बात सुनता । दण्ड देने में उसने चूक की होती तो अनियमितता अस्तव्यस्तता और अव्यवस्था ही रही होती ।उसकी दृष्टि से कोई भी छुपकर पाप और और अत्याचार नहीं कर सकता । बड़ा कठोर वह ।दुष्ट को कभी क्षमा नहीं करना । इसी लिये वेद ने आग्रह किया है।
यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः। यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहु कस्मैदेवाय हविषाविधेम॥
ऋ॰ वेद10।121।1
हे मनुष्यों ! बर्फ से आच्छादित पहाड़, नदियाँ , समुद्र जिसकी महिमा का गुणगान करते हैं। दिशायें उसकी भुजायें हम उस विराट विश्व पुरुष परमात्मा को कभी न भूलें।
गीता के “येन सर्वमिदं ततम “ अर्थात् “यह जो कुछ है वह परमात्मा से व्याप्त है” की विशद व्याख्या करते हुये योगिराज अरविन्द ने लिखा है-
“यह सम्पूर्ण संसार परमात्मा की ही सावररग्ण अभिव्यंजना है। जीव की पूर्णता या मुक्ति और कुछ नहीं और भगवान के साथ चेतना, ज्ञान, प्रेम और आध्यात्मिक सुख में एकता प्राप्त करना तथा भगवती शक्ति के कार्य संपादन में अज्ञान, पाप आदि से मुक्त होकर सहयोग देना है।यह स्थिति तब तक प्राप्त नहीं होती जब तक आत्मा अहंकार के पिंजरे में कैद है, अज्ञान में आवृत है तथा उसे आध्यात्मिक शक्तियों की सत्यता पर विश्वास नहीं होता । अहंकार का जाल ,शरीर ,मन,जीवन, शव, इच्छा, विचार , सुख और दुःख के संघर्ष ,पाप ,पुण्य, अपना ,पराया आदि के जटिल प्रपंच सभी मनुष्य में स्थित एक उच्चतर आध्यात्मिक शक्ति के बाह्य और अपूर्ण रूप मात्र है। महत्ता इसी शक्ति हैं, मनुष्य की नहीं ,जो प्रच्छन्न रूप से आत्मा में अधिगत है ।”
योगीराज के इस निबंध से तीन अत्यन्त महत्व पूर्ण सिद्धांत व्यक्त होते हैं । (1) यह संसार है परमात्मा से व्याप्त है उसके अतिरिक्त और सब मिथ्या है माया है भ्रम है, स्वप्न है। (1) मनुष्य को उसकी इच्छानुसार सृष्टि-संचालन के लिये कार्य करते रहना चाहिये।(3)मनुष्य में जो श्रेष्ठता ,शक्ति या सौन्दर्य है वह उसके दैवी गुणों के विकास पर ही है।
मनुष्य जीवन के सुख और शान्ति के लिये इन दोनों सिद्धांतों का पालन ऐसा ही पुण्य फलदायक है जैसा त्रिवेणी स्नान करना। मनुष्य दुष्कर्म अहंकार से प्रेरित होकर करता है पर वह बड़ा क्षुद्र प्राणी है, जब परमात्मा की मार उस पर पड़ती है तो बेहाल होकर रोता-चिल्लाता है। सुख तो उसकी इच्छाओं के अनुकूल सात्विक दिशा में चलने में ,प्राकृतिक नियमों के पालन करने में ही है। अपनी क्षणिक शक्ति के घमण्ड में आया हुआ मनुष्य कभी सही मार्ग पर नहीं चलता इसीलिये उसे साँसारिक कष्ट भोगने पड़ते हैं। परमात्मा ने यह व्यवस्था इतनी शानदार बनाई है कि यदि सभी मनुष्य इसका पालन करने लगे तो इस संसार में एक भी प्राणी दुःखी और अभावग्रस्त न रहे।
ईश्वर उपासना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है। नदियाँ जब तक समुद्र में नहीं मिल जाती अस्थिर व बेचैन रहती है।मनुष्य की असीमता भी अपने आपको मनुष्य मान लेने की भावना से ढकी हुई है।उपासना विकास की प्रक्रिया है। संकुचित का सीमा रहित करना, स्वार्थ को छोड़कर परमार्थ की ओर अग्रसर होना, “मैं” और मेरा छुड़ाकर “हम” और हमारे की आदत डालना ही मनुष्य के आत्म की ओर विकास की परम्परा है। पर यह तभी सम्भव है जब सर्व शक्तिमान परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करलें, उसकी शरणागति की प्राप्ति हो जाय। मनुष्य रहते हुए उसकी मानवता को भेदकर उसे देव रूप में विकसित कर देना ईश्वर शक्ति का कार्य है। उपासना का अर्थ परमात्मा से शक्ति को प्राप्त करना ही है।
जान बूझकर या अकारण परमात्मा कभी किसी को दण्ड नहीं देता। प्रकृति की स्वच्छन्द प्रवृत्ति में ही सबका हित नियंत्रित है। जो इस प्राकृतिक नियम से टकराता है वह बार-बार दुःख भोगता है और तब तक वह वापस नहीं आता तब तक चैन नहीं पाता जब तक वापस लौटकर फिर उस सही मार्ग पर नहीं चलने लगता है। भगवान् भक्त की भावनाओं का फल तो देते हैं किन्तु उनका विधान सभी संसार के लिये एक जैसा ही है। भावनाशील व्यक्ति भी जब तक अपने पाप की सीमाएं नहीं पार कर लेता तब तक अटूट विश्वास, दृढ़ निश्चय रखते हुए भी उन्हें प्राप्त नहीं कर पाता । अपने से विमुख प्राणियों को भी वे दुःख दण्ड नहीं देते । दुःख दण्ड देने की शक्ति तो उनके विधान में ही । मनुष्य का विधान तो देश, काल और परिस्थितियों वश बदलता भी रहता है किन्तु उसका विधान सदैव एक जैसा ही है। भावनाशील व्यक्ति भी उसकी चाहे कितनी ही उपासना करे-साँसारिक कर्तव्यों की अवहेलना कर या देवी-विधान का उल्लंघन कर कभी सुखी नहीं रह सकते। जैसा कर्म बीज वैसा ही फल-यह उसका निश्चल नियम है दूसरों का तिरस्कार करने वाला कई गुना तिरस्कार पाता है। परमार्थ उसी तरह लौटकर असंख्य गुने सुख पैदा कर मनुष्य को तृप्त कर देता है। सुख और दुःख , बन्धन और मुक्ति मनुष्य के कर्म के अनुसार ही प्राप्त होते हैं। दुष्कर्मों का फल भागने से मनुष्य बच नहीं सकता इस विधान में कही राई रत्ती भर भी गुँजाइश नहीं है।
अशुभ कर्मों का सम्पादन और देह का जड़ अभिमान ही मनुष्य को छोटा बनाये हुए है। शुभ-अशुभ कर्मों के फल रूप सुख-दुःख का भोक्ता न होने पर भी आत्मा मोह वश होकर दुःख भोगती है। “मैं देह हूँ “ “मुझे सारे अधिकार मिलने ही चाहिये “ यह मान लेने से जीव स्वयं कर्ता-भोक्ता बन जाता है और इसी कारण वह “जीव”‘ कहलाता है। जब तक वह इतनी -सी सीमा में रहता है तब तक उसकी शक्ति भी उतनी ही तुच्छ और संकुचित बनी रहती है। जब वह इस भ्रम रूप देहाध्यास का परित्याग कर देता है तो वह शिव-स्वरूप,ईश्वर-स्वरूप हो जाता है।उसकी शक्तियाँ विस्तीर्ण हो जाती है और वह अपने आपको अनन्त शक्तिशाली , अनन्त आनन्द में लीन हुआ अनुभव करने लगता है।
अपनी तुच्छ सत्ता को परमात्मा की शरणागति में ले जाने से मनुष्य अनेकों कष्ट-कठिनाइयों से बच जाता है और संसार के अनेक सुख को का उपभोग करता है। गृहपति की अवज्ञा करके जिस तरह घर कोई भी सदस्य सुखी नहीं रह सकता उसी प्रकार परमात्मा का विरोध भी कभी सुखी या सन्तुष्ट नहीं रह सकता। परमात्मा की अवमानना का अर्थ है उसके सार्वभौमिक नियमों का पालन न करना। अपने स्वार्थ, अपनी तृष्णा की पूर्ति के लिये कोई भी अनुचित कार्य परमात्मा को प्रिय नहीं । इस तरह की क्षुद्र बुद्धि का व्यक्ति ही उसके कोप का भाजन बनता है पर जो विश्व-कल्याण की कामना में ही अपना कल्याण मानते और तदनुसार आचरण करते हैं ईश्वर के अनुदान उन्हें इसी तरह प्राप्त होते हैं जैसे कोई पिता अपने सदाचारी, आज्ञा पालक और सेवा भावी पुत्र को ही अपनी सुख-सुविधाओं का अधिकाँश भाग सौंपता है।
पापों का नाश हुये बिना, इंद्रियों का दमन किये बिना अन्तःकरण की शुद्धि नहीं होती। संसार में रहते हुये मनुष्य कर्मों से भी छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकता । अतः निष्काम कर्मयोग परमात्मा की प्राप्ति और साँसारिक सुखोपभोग का सबसे सुन्दर और समन्वय युक्त धर्म है। निष्काम भावनाओं में पाप नहीं होता वरन् दूसरों के हित की, कल्याण की और सबको ऊंचे उठाने की विशालता होती है जिससे अन्तःकरण की पवित्रता बढ़ती है और सुख मिलता है। अतएव प्रत्येक मनुष्य को संसार समर का योद्धा बनकर ही जीवनयापन करना चाहिए। वह साहस , वह गम्भीरता और वह कार्य करने की भावना मनुष्य ब्रह्मा ज्ञान और ब्रह्मा सान्निध्य में ही प्राप्त करता है।
ईश्वर का ज्ञान हो जाने पर साँसारिक संयोग वियोग से उत्पन्न होने वाले सुख-दुख मनुष्य को बन्धन में नहीं बाँध पाते। यह कल्पित संसार जीव की अपनी कल्पना के सिवा और कुछ नहीं है। इसमें घट-बढ़ हुआ करती है और इसमें जीव की ममता होने के कारण इसमें बढ़ती होने पर वह प्रसन्न होता है और कमी होने पर दुःखी होता है। उदाहरण के लिए-जब परिवार में कोई बच्चा पैदा होता है तो लोग खुशी मनाते हैं पर इससे परमात्मा की सृष्टि में कोई कमी नहीं आई। जीव तो अमर है जैसे पहले था, वैसे ही अब भी है, केवल पंच भौतिक तत्वों का एक शरीर के रूप में संयोग हुआ। इसी प्रकार कोई मर जाता है तो दुःख मानते हैं पर पहली स्थिति की तरह इस बार भी परमात्मा की सृष्टि तरह इस बार भी परमात्मा की सृष्टि में बढ़ोत्तरी नहीं हुई। पंच भौतिक शरीर का वियोग मात्र हुआ जीव तो अपने मूल-रूप में अब भी विद्यमान है । इस गूढ़ रहस्य को न जानने के कारण ही मनुष्य साँसारिक बंधनों में बंधकर तरह-तरह के दुःख भोगता है। अतः कल्याणकारी पुरुष के लिये बादल समान क्षण-क्षण रंग बदलने पाले विनाश-शील व्यावहारिक जगत में मोह का सम्बन्ध न बाँधकर अविनाशी और अचल परम सत्ता में चित्त को जोड़ देने और लोक-कल्याण के लिये निष्काम करने में ही इस जीवन की सार्थकता है।
सद्-प्रेरणायें प्रत्येक मनुष्य के अन्तःकरण में छिपी रहती है। दुष्प्रवृत्तियां भी उसी के अन्दर होती है अब यह उसकी अपनी योग्यता, बुद्धिमत्ता और विवेक पर निर्भर है कि वह अपना मत देकर जिसे चाहे उसे विजयी बनादे ।चित्त का मूल स्वभाव शान्त है आत्मा आनन्दमय है जो इस अपनी मूल प्रवृत्ति को डिगाता नहीं अर्थात् सद्प्रेरणाओं में स्थिर रहता है, जगत में वही योद्धा अजेय है जिसका स्वभाव किसी भी प्राणी पदार्थ के स्वभाव से अपने शान्त स्थिर चित्त के स्वभाव को चलायमान नहीं होने देता । जगत के प्राणी और पदार्थों में इंद्रियों के द्वारा जिसके चित्त में क्षोभ उत्पन्न होता है वह निर्बल है। उसे अपनी वह निर्बलता का दण्ड भी भोगना ही पड़ता है। सुख का उपभोग तो यहाँ शक्तिमान सूरमा ही करते हैं।
परमात्मा जितना कृपालु है कठोर भी उससे कम नहीं है। उसकी एक शिव शक्ति भी है जो निरन्तर ध्वंस किया करती है। ईश्वर की आज्ञाओं की जो जान बूझकर अवज्ञा करता है उसे परमात्मा की कठोरता का दंड भुगतना ही पड़ता है। संसार की व्यवस्था, गृह समाज, राज्य या राष्ट्र से भी सर्वोपरि है। अतः गृहपति, राज्यपाल या राष्ट्रपति की तुलना में उसके पास शक्तियाँ भी अतुल होती है। विश्व नियम का प्रजा में पालन कराने वाला परमात्मा बहुत बड़ा है, बड़ा कठोर, बड़ा शक्तिशाली है। गीता में भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है- लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ । इस समय इन लोगों को नष्ट करने के लिये प्रवृत्त हुआ हूँ , इसलिये हे अर्जुन ! जो यह प्रति पक्षी सेना है वह तेरे न मारने पर भी जीवित नहीं बचेंगे । बिना युद्ध के भी इनका नाश हो जायगा। -गीता 11।23
वह परमात्मा सचमुच बड़ा शक्तिशाली, बड़ा बलवान् है। उसकी अवज्ञा करके कोई बच नहीं सकता। अतः उसी के होकर रहें , उसी की आज्ञाओं का पालन करें, इसी में मनुष्य मात्र का कल्याण है।