Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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धुआँ क्या धरती को नष्ट करके छोड़ेगा
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जनसंख्या में वृद्धि , उद्योगों के विकास, ग्रामीण लोगों का भी शहरों के प्रति आकर्षण , मनोरंजन के साधनों के क्षेत्र में विकास खाद्य समस्या पर बहुत सोचा विचारा जाता है इन पर विचार किया भी जाना चाहिये पर मनुष्य की जीवन जिस सांसों पर चलता है उससे भी आँख नहीं मूँद लेना चाहिये। ऐसी भूल मानव जाति की सबसे बड़ी बेवकूफी होगी।
यज्ञो द्वारा वायु-मण्डल के परिष्कार और जलवायु नियन्त्रण की बात तो अब हास्यास्पद समझा जाता है पर दरअसल आलोच्य यज्ञ करने और कराने वाले नहीं, वे तो आज नहीं तो कल निश्चित रूप से विश्व-संरक्षक माने ही जाने वाले हैं, दरअसल निन्दनीय तो आज की भौतिकता की वह बाढ़ है जो मनुष्य जाति को याँत्रिकता के रोग और धुँये की घुटन से भरती ही जा रही है। वायु-दूषण आज की मुख्य समस्या है उसे न रोका गया तो मानव अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है इस सम्बन्ध में अखण्ड-ज्योति के पिछले अंकों में विस्तार से लिखा जाता रहा है।
इन पंक्तियों में धुयें की समस्या की ओर से सावधान करते हुये यह लिखा जा रहा है कि आज शहरी क्षेत्रों की ही समस्या नहीं रह गयी, उसके दुष्प्रभाव अब गांवों की ओर भी लपट मारने लगे। एक व्यक्ति बीड़ी-सिगरेट पीता है जहाँ तक मानवीय स्वतन्त्रता की बात है बीड़ी सिगरेट क्या, लोग अफीम तक खाते हैं यदि बीड़ी सिगरेट का धुआँ पेट से बाहर निकाले तब तो ठीक पर वे 3/4 धुआँ पेट से बाहर उगल कर शेष वायु को भी गन्दा बनाते हैं तो दूसरे विचारशील लोगों का यह नैतिक अधिकार हो जाता है कि वे अपने और भावी पीढ़ी की स्वास्थ्य रक्षा के लिये उनको न केवल समझदार वरन् संघर्ष करके भी रोकें। यही बात ग्रामीण किसानों के पक्ष में है शहरों द्वारा बढ़ रही धुयें की दाब को कम न किया गया तो वही गन्दा और विषैला धुआँ खेती को नष्ट कर डाल सकता है। इस स्थिति में यन्त्रीकरण के प्रभाव को प्रत्येक तरीके से निरस्त करना हम सबका नैतिक कर्तव्य हो जाता है।
जो फसलें अधिक संवेदनशील होती है जैसे फूल, सरसों, अरहर, आदि वह धुयें से बहुत प्रभावित होती है न्यूजर्सी और कैलीफोर्निया में इसके प्रत्यक्ष उदाहरण देखने में आये है।
वायु में धुयें के बढ़ने का अर्थ होता है उसकी कीटाणु नाशक शक्ति का नाश। स्पष्ट है वायु में कीटाणुओं को मारने वाली क्षमता नष्ट होगी तो भारी मात्रा में बढ़ेंगे और कृषि नष्ट करेंगे। अमेरिका के सबसे अधिक वायु प्रदूषण वाले इन क्षेत्रों में कृषि कीटाणुओं की यहाँ तक भरमार पाई जाती है कि कभी किसी खेत में कीटाणुनाशक औषधि न पहुँचे तो उससे एक दाना भी बचकर न आये, जब डी.डी.टी. जैसी कीटाणुनाशक दवाओं के प्रयोग से अन्न विषैला बनता है दोनों ही समस्यायें भयंकर है उनसे बचाव कस एक ही उपाय है धुआँ बढ़ाने वाले उद्योगों का स्थान लघु कुटीर उद्योग और हस्त शिल्प ले लें तथा यज्ञो का विस्तार न केवल भारतवर्ष वरन् सारे विश्व में किया जाये।
कैलीफोर्निया में धुयें के कुहरे से 15 मिलियन (1 करोड़ 50 लाख रुपये) डालर्स की फसलों को प्रत्यक्ष नुकसान पहुँचता है अप्रत्यक्ष क्षति 132 मिलियन डालर आँकी गई है यही समस्या अन्य राज्यों में भी है।
जान टी. मिडिल्यन(डाइरेक्टर यूनिवर्सिटी स्अटपाइड एअर पोलूजन रिसर्च सेन्टर) का कहना है कि फोटा केमिकल्स वाले वायु प्रदूषण से सभी 27 स्टेटस का प्रभावित हुई है पर कोलम्बिया के कुछ जिले सर्वाधिक । इनकी फसलें तो पिछले दिनों नष्ट होते होते बची। इसके अतिरिक्त डस्ट पार्टिकल्स , ठोस और द्रव केमिकल्स जिनमें तेल और कोयला मिला होता है उनसे सम्मिश्रित कोहरा भी फसलों को प्रभावित करता है। गैसों से हुआ वायू प्रदूषण जिनमें हाइड्रोकार्बन, नाइट्रोजन आक्साइड, फ्लोरिड, सल्फर डाई आक्साइड शामिल है वह भी फसलों को नष्ट करता है। सूडान घास शकर के कणों , ढालें, पान, अलफाफा ओटस, मूँगफली,एप्रिकाटस विटरस , अंगूर, प्लम्बस अर्चिटस पेटूनियस,स्पैन ड्रेगन्स , लार्कस और रे ग्रास की जाँच करने पर पता चलता है कि वे वायु प्रदूषण से विशेष रूप से प्रभावित होते हैं यदि इनको इससे न बचाया जा सका तो एक दिन वह सकता है कि जब ये पूरी तरह विषाक्त होने लगेंगे इनको अन्य कडुए जंगली फलों के समान अखाद्य मान लिया जायेगा।
16 वीं शताब्दी के अन्त में पृथ्वी मंडल पर कार्बन गैस (धुँये) की मात्रा 360000000000 टन थी, संडे स्टैडर्ण्ड के 26 जनवरी 1666 अंक ने इसमें वृद्धि पर चिन्ता करते हुये लिख है कि अकेले अमरीका के न्यूयार्क शहर में ही एक वर्श में 36000000 टन धुयें की वृद्धि हुई जबकि संसार में कितने शहर है और धुआँ-उद्योग कितना बढ़ रहा है इसके सुविस्तृत आंकड़े निकाले जायें तो यही कहा जा सकेगा कि संसार एक ऐसी प्रलय की ओर जा रहा है जिसमें जल वृद्धि या उपल वृद्धि न होकर केवल धुआँ इतना सघन छा जायेगा कि मनुष्य उसी में तड़फड़ा कर मार जायेगा।
धरती हमारी माता ,हमारी पोषक और जीवनदात्री है यदि अन्न और जल शुद्ध मिलता रहे तो भी हम रोगों और रोगों के कीटाणुओं से लड़ सकते हैं पर धुयें ने उसे भी बेकार कर दिया तो जीवन संकट में ही समझना चाहिए। औषधियां उसे बचाती और नष्ट करती है। इनसे तो भूमि के उर्वरक कीटाणु “कैमिस्ट” मरते हैं। कीटाणुनाशक औषधि छिड़का हुआ चारा मुर्गियों को खिलाकर देखा गया तो पाया गया कि उनके अण्डे कमजोर थे । आस्ट्रेलिया में डी.डी.टी. प्रयोग बन्द कर दिया गया है दूसरी ओर अमरीका यह औषधियां इतनी अधिक बनाता है कि प्रतिवर्ष उनके लिये 48 अरब कनस्तर ,28 अरब बोतलें ओर अथाह कागज की आवश्यकता होती है। लास एन्जिलस में ही पैकिंग के बाद बचा हुआ कूड़ा 1 करोड़ 20 लाख घन गज होता है जो यह बताता है कि जमीन को कीटाणुओं से बचाने की मूर्खता में उसे और भी तेजी से नष्ट होने में सहायता पहुँचाई जा रही है।
हमारी धरती शुद्ध और पौष्टिक अन्न दे-तब उसका एक ही विकल्प रह जाता है धुयें को कम किया जाये और वायुमंडल को शुद्ध रखने के तरीकों की खोज की जाये अन्यथा हमें मनुष्य की जनसंख्या से अधिक कीटाणुओं की जनसंख्या में वृद्धि के लिए तैयार रहना पड़ेगा।