Magazine - Year 1971 - Version 2
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स्वर्ग और नरक दोनों अपने अन्दर है यह अपने मन पर निर्भर है कि स्वर्ग प्राप्त करे या नरक।
छठवाँ चक्र महतत्व वाला और तपः लोक का बीज स्थान है यह नाक की जड़ तथा दोनों भौहों के बीच द्विदल की बनावट वाला चक्र है। इसको जागृत कर लेने से मनुष्य सर्व दर्शी, मिताहारी , वाक् सिद्धि आदि सामर्थ्य पाता है। इसे तीसरी आँख भी कहते हैं इससे ही योगी बाह्मभ्यन्नर सब कुछ देखने में समर्थ होते हैं। फ्राँस के टूरकुइंग नगर में मशहूर क्लेमेण्ट नाम की लड़की 1766 में जन्मी थी उसके माथे पर केवल एक ही आँख थी उसमें यह सारे गुण थे । वह 15 वर्ष तक स्वस्थ जीवित रही और एक आश्चर्य के रूप में भारतीय योग विद्या का प्रमाण प्रस्तुत करती रही।
सातवें सहस्रदल कमल को ब्रह्म का निवास स्थान कहा जाता है इच्छा शक्ति या मनुष्य जीवन की नाना प्रकार की इच्छायें इस सत्य लोक में लय हो जाने पर ब्राह्मी भूत हो जाती है। चेतना केवल मात्र ब्रह्म हो जाती है। सहस्रार सिद्ध गौतम बुद्ध थे , राम और कृष्ण थे वह इसी चक्र की सिद्धि के कारण मनुष्य शरीर में ही भगवान् हो गये थे सहस्रार सिद्ध विश्व विजेता होता है । शक्ति और सिद्धियां उसकी दासी होती है-
मही मूलाधारे कर्माय मणिपूरे द्रुतवहम्।
स्थितं स्वाधिश्ठाने हृदिमरुत माकाश मुपरि॥
मनोअपि भ्रृमध्मे सकलमपि भित्वा कुलपथम।
सहस्त्रारे पद्यै सह रहसि पत्या विहरसि॥
हे जननी मूलाधार स्थित पृथ्वी से चलकर तुम मणिपुर स्वाधिष्ठान अनाहन भ्रू मध्य चक्र का वेधन करती हुई अपने पति परमपिता परमेश्वर से जा मिलती हो।
इस तरह योग शास्त्रों में नाडी विद्या के उन रहस्यों का उद्घाटन किया गया है जिन्हें जाकर योगी शरीर में ही सप्तलोकों में विचरण का आनन्द लेता है हर लोक की सिद्धि और सामर्थ्य का वह स्वामी हो जाता है ऐसा विज्ञान दुनिया के पर्दे पर आज तक किसी ने नहीं दिया। किन्तु अब वैज्ञानिक इन सत्यों को स्वीकार अवश्य करने लगे है। इस सम्बन्ध में कोराइन हेलाइन ने अपनी पुस्तक “आकल्ट एनाटमी “ में जो प्रकाश डाला है वह इन सप्त लोकों की रचना और उनमें निहित शक्तियों से 67 प्रतिशत मिलता जुलता है। डॉ॰ कोराइन हेलाइन स्वयं भी एक वैज्ञानिक थे और बाइबिल तथा आध्यात्म दर्शन का भी उन्होंने विस्तृत अध्ययन किया था। भारतीय जिसे प्राण प्रवाह कहते हैं, थियोसाफी वाले जिसे जीवन शक्ति या वाइटैलिटि कहते हैं उसे उन्होंने “नर्व फ्लूड” नाडियों में बहने वाला द्रव्य कहा है। और हर ग्रन्थि या चक्र का विशेषता का कारण उस चक्र में उपस्थित अन्तः स्राव (हारमोन्स)
को माना है । भारतीय योग ग्रंथों में चन्द्र और सूर्य या गर्म और ठण्डी नाड़ियों को उन्होंने स्त्री वाचक और पुरुष वाचक माना है जो भारतीय योग-शब्दावली के समानार्थी ही है। प्राण में अग्नि तत्व की प्रधानता को उन्होंने फास्फोरस माना है।”सात पुष्प केन्द्र और उनकी पुप्तत कार्य शैली (दिसेविन फ्लग्वी सेंटर एण्ड देयर एसेटोरि एक्टिविरी) शीर्षक से उन्होंने भी लिखा है कि मनुष्य शरीर के यह सात केंद्र यद्यपि प्रसुप्त अवस्थान में रहते हैं तथापि उनका बहुत अधिक महत्व है। यदि आध्यात्मिक विचार प्रबुद्ध किये जा सके तो इन्हें प्रकाश व शक्ति के भंवरों के रूप में अनुभव किया जा सकता है तथा उनकी सुगन्ध और शोभा के दिव्य लाभ से लाभान्वित भी हुआ जा सकता है।
मूलाधार के त्रिकोण-अणु को कोराइन ने हेलाइन ने कुदिर के मुख्य कोण का पत्थर लिखा है और उसका स्थान ठीक वही है जो भारतीय योग ग्रंथों में है। दूसरा केन्द्र सोलर प्लैक्सस लाल नारगी सूर्य की भाँति हलके पीले रंग नाभि स्थित , तीसरा तिल्ली या स्पिलीन स्थित है उसकी सिद्धि श्री हेलाइन ने अप्रत्यक्ष वस्तुओं को देखने की क्षमा या दूरदर्शन माना है। इसके जागरण की स्थिति में रात में हवा में उड़ने के स्वप्न आते हैं।
चौथे केन्द्र हृदय की सिद्धि से पृथ्वी में पूर्व जीवन की स्मृति आ जाती है यह लिखकर उन्होंने एक प्रकार से ईसाई धर्म की पुनर्जन्म न मानने की धारणा को ठुकरा दिया है।