Magazine - Year 1975 - Version 2
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Language: HINDI
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बढ़ती हुई पैशाचिकता हमारा सर्वनाश करेगी
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जीव विकास की क्रमिक शृंखला पार करता हुआ मनुष्य शरीर में प्रवेश करता है। यों यह सुरदुर्लभ ईश्वरीय उपहार है। तो भी उसके साथ निकृष्ट योनियों के पिछले संस्कार जुड़े रहते हैं। इन्हें परिष्कृत करके इस देव योनि के उपयुक्त आदतें विनिर्मित करनी है। यही जीवन साधना है। यदि यह प्रयत्न न किया जाय तो पशु संस्कार बने रहेंगे और मनुष्य ऐसे कृत्य करता रहेगा जो उसकी संस्कृति के लिए कलंक पूर्ण है।
सिंह, व्याघ्र, सर्प, बिच्छू, बाज, गिद्ध को आक्रमण करने और दूसरों का विनाश करने में प्रसन्नता अनुभव करने की प्रवृत्ति असंस्कृत मनुष्यों में भी पाई जाती है। नर, मादा के बीच बिना माता, पुत्री, बहिन आदि का अन्तर किये अन्य प्राणियों में यौन स्वेच्छाचार चलता है। मानवी विवेक कुछ मर्यादा लगाता है, पर पशुओं और कीड़ों में वैसा कोई बन्धन नहीं होता। जिनके मानवी संस्कार उदय न हुए होंगे, उनमें भी ऐसा ही स्वेच्छाचार चल रहा होगा। कुत्तों को रोटी के टुकड़े फेंके जायें तो वे बिना साथी बच्चों का ध्यान रखे पहले अपना पेट भरेंगे। दुर्बलों को दुत्कार कर अपनी स्वार्थ सिद्धि करेंगे। नर पशु भी ऐसी ही स्वार्थपरता, क्रूरता, निर्दयता और स्वेच्छाचार का परिचय देते हैं। इन दुष्प्रवृत्तियों को रोकने के लिए धर्म, अध्यात्म, दर्शन, पुण्य, परमार्थ, संयम, नीति, मर्यादा, कर्त्तव्य आदि का निर्धारण हुआ है। यदि भाव परिष्कारों से उसे सुसंस्कृत न बनाया जाय तो उसकी पशुता यथावत् बनी रहेगी और पोषण पाकर अधिक विकृत विघातक बनती रहेगी। यह स्थिति उसे नर पशु और नर पिशाच स्तर का रखेगी और बुद्धिमत्ता का संयोग मिलने से वह रोमाञ्चकारी, अनाचार के दृश्य उपस्थित करेगी। आज हमारी प्रगति इसी दिशा में तेजी से हो भी रही हैं।
यूनेस्को द्वारा पैरिस में आयोजित एक आक्रामक प्रवृत्ति अन्वेषण गोष्ठी में कतिपय मनः शास्त्र वेत्ताओं ने अपने विचार व्यक्त किये और इस बात पर चिन्ता प्रकट की कि मनुष्य जहाँ बुद्धि, सम्पत्ति और वैज्ञानिक उपलब्धियों की ओर बढ़ रहा है, वहाँ उसमें आक्रामक प्रवृत्ति भी बढ़ रही है, जो हत्या, आत्महत्या तथा दूसरे अपराधों के रूप में सामने आ रही हैं। लड़ाई, झगड़े आदि की घटनाएँ बढ़ रही है।
द्वेष, घृणा और मनोमालिन्य का बाजार गर्म है। साथ−साथ रहने वाले भी केवल शिष्टाचार का निर्वाह करते हैं। सहानुभूति, स्नेह, सेवा और करुणा के तत्व धीरे−धीरे घटते चल जा रहा है। अपने आप में सीमित रहने और अपनी सुविधा को ही महत्व देने वाली प्रवृत्ति इतनी अधिक बढ़ गई है कि दूसरे के दर्द में सहायता करना तो दूर उलटे उसमें रस लेते हुए परपीड़ा को अच्छा−खासा विनोद माना जाने लगा है। अब बड़े जानवर तो शिकार के लिए उतने नहीं मिलते, पर मछली और चिड़ियाँ मारने, पकड़ने की एक मनोरंजन मान लिया गया है। आर्थिक लाभ के लिए छोटे−बड़े शिकार करने की अपेक्षा उन लोगों की संख्या अधिक है जो सिर्फ एक खेल की तरह यह सब करते हैं। निशाना साधने का अभ्यास करने के लिए चिड़ियों को—फंसाने की कला में प्रवीणता पाने के लिए मछलियों को मारा जाता है।
मांसाहार के पीछे स्वाद की बात प्रधान नहीं होती क्योंकि वस्तुतः वह फल, मेवा, दूध, घी आदि की तुलना में कहीं अधिक घटिया होता है। गंध तो और भी अधिक घिनौनी होती है। सिद्ध हो चुका है कि माँस की तुलना में सोयाबीन में प्रोटीन अधिक मात्रा में है और अधिक निर्दोष है। विटामिन ए. गाजर जैसे सस्ते पदार्थों में पर्याप्त हैं। माँस दुष्पाच्य भी है, महंगा भी और पकाने में बहुत झंझट भरा भी। इतने पर भी माँसाहार की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण लोगों में हिंसा के प्रति उत्साह और दूसरों को कष्ट देने में अपना पराक्रम दिखाने की छिपी इच्छा बलवती रहती है। किसी को उजाड़ने, बर्बाद करने और पीड़ा से चीत्कार करने का अपने आपको निमित्त बनाते हुए लोग अपने आपको साहसी, शूरवीर, पराक्रमी, विजेता, प्रगतिशील आदि न जाने क्या−क्या अनुभव करते हैं। आतंकवाद इसी आधार पर पनपता है। गुण्डागर्दी और दुष्टता की घटनाएँ इसी आधार पर होती है और इसी प्रवृत्ति से माँसाहार को बढ़ते हुए लोक उत्साह के साथ जुड़ा, हुआ देखा जा सकता है।
माँसाहार के पक्ष में जितनी भी दलीलें प्रस्तुत की जा सकती हैं, उन सबको काट देने के लिए एक ही तर्क बहुत बड़ा है कि उससे निरीह प्राणियों का अकारण विनाश होता है और उसके साधन जुटाने में मनुष्य की सर्वोपरि गरिमा संवेदना सहानुभूति को भारी आघात लगता है। निष्ठुरता—संवर्धन की यह क्रिया मनुष्य के स्वभाव का अंग बनती जाती हैं और फिर वह मनुष्य समाज में भी प्रयुक्त होती हैं। लोग परोक्ष रूप से एक दूसरे को जाल में फँसाते और परस्पर रक्त गत करते हैं। इस चपेट में अपना प्रिय परिवार भी आ जाता है। लोग अपने छोटे से स्वार्थों के लिए अपने आश्रितों, कुटुम्बियों, स्वजनों, मित्रों के हितों का किस प्रकार बलिदान करते रहते हैं इसके दुःखद दृश्य हम अपने चारों ओर बिखरे हुए पर्याप्त मात्रा में देख सकते हैं और यह अनुमान लगा सकते हैं कि निष्ठुरता किस कदर बढ़ती जा रही है। कहना न होगा कि यदि निष्ठुरता की जड़ मनः क्षेत्र में जम जायं तो मनुष्य निकृष्ट कोटि का स्वार्थी बन जायगा और फिर सहज ही आक्रामक बनने के लिए तत्पर रहेगा। स्नेह सौजन्य की घटती हुई संवेदनाएँ वस्तुतः मानवी जीवन का नीरस, कर्कश, कलह ग्रस्त और असुरक्षित बनाती है इसमें समस्त समाज के लिए—समस्त संसार के लिए भयंकर सम्भावनाओं के विष बीज छिपे हुए हैं।
क्रूर कर्मों में आनन्द लेने की वृत्ति को पैशाचिकता कहा जाता है और वह जब−तब ऐसे लोगों में भी उभरती रहती है जिन्हें सभ्य या सुशिक्षित कहा जाता है।
जर्मनी के विषाणु शोधकर्ता फिजराँफ को पुलिस ने पकड़ा और पाया कि वह छोटे बच्चों को चुरा कर उनको तड़फा−तड़फा कर मारने के कितने ही कुकृत्य कर चुक है। लोग आश्चर्य चकित रह गये जब उन्होंने यह सुना कि मानवतावादी विचारों का इतना अधिक समर्थन करने वाला व्यक्ति अकारण ऐसे क्रूर कर्म करने में संलग्न रहा है।
हिटलर के दाँये हाथ मार्शल गोरिंग की क्रूरता प्रसिद्ध थी। इन दोनों ने मिलकर शत्रु पक्ष की सेना का जितना संहार रचा था उससे दस गुने अधिक जर्मन नागरिक−अपने ही देश वासी गाजर मूली की तरह काट कर फेंक दिये थे। जिन कारणों से इतने मनुष्यों के प्राण हरण किये गये, वे इतने बड़े नहीं थे जिनके लिए मौत आवश्यक ही होती। थोड़ा डरा धमका देने से भी लोग चुप हो सकते या बदल सकते थे, पर इससे उन क्रूर कर्माओं की अहंता तृप्त कैसे होती। उनके सामने भिन्न मत वालों को मजा चखाने के लिए गोली ही एक मात्र शामक उपाय था।
सामान्य नागरिकों को जिस प्रकार तड़फा−तड़फा कर इन लोगों ने मारा, उससे वे हत्याएँ और भी अधिक वीभत्स हो जाती है। मारना ही ठहरा तो वह कार्य बन्दूक, बिजली आदि से सेकेंडों में पूरा हो सकता है, उसके लिए इतनी नृशंस पीड़ा देने की क्या जरूरत थी। पर नहीं, इससे कम में उनके भीतर का पिशाच तृप्त ही नहीं हो सका और लाखों हत्याएँ इस प्रकार इतनी प्रताड़नाओं के साथ की गई, जिन्हें लिखना इसलिए अनुपयुक्त है कि पढ़ने वाले भयाक्रान्त हो जायेंगे।
इतिहास में अनेक नृशंस शासक हुए हैं जिन्होंने निरीह लोगों का नृशंस रक्त पात करने में भरपूर मजा उठाया। वे लोग कसाई और जल्लाद की भूमिका निभाने में न जाने अपना क्या−क्या गौरव मानते रहे। मिस्र के पिरामिड, चीन की दीवार आदि बनाने में जितना चूना लगा होगा, उससे अधिक जीवित मनुष्यों की हड्डियाँ पिसी हैं। अमेरिका के गोरे अफ्रीकी कालों का न केवल शोषण करने में वरन् उनके शरीरों से रक्त की धाराएँ उछालने में भी फव्वारों का आनन्द लेते रहे हैं। मध्य काल में कैदियों को मजा देने के विधान तो कितने ही थे, पर वह भिन्नता वध करने के समय बरती जाने वाली क्रूरता के स्तर का ही मान कराते हैं। जिसमें कैदी के प्राण जल्दी निकल जायं, वह अधिक दयापूर्ण और अधिक हलकी सजा। जिससे जितनी देर तक जितना तड़फा−तड़फा कर, एक−एक अंग काटते हुए—अधिक चित्र−विचित्र प्रकार की चीत्कारें निकल बाते हुए प्राण हरण किया जाय वह कड़ी सजा मानी जाती थी। मध्यकालीन दण्ड विधान वस्तुतः सामन्तों के हलके भारी मनोरंजन के ही साधन थे। इस बहाने किसी न किसी बहाने विनोद स्थल पर कोई न कोई अभागे नर−नारी, बाल वृद्ध पकड़ कर खड़े कर ही दिये जाते थे। आखिर दैनिक विनोद का आधार भी तो जारी रखा ही जाना था इसलिए किसी न किसी को तो अपराधी बनाया ही जाता था। न जाँच पड़ताल का किसी को समय था और न अपराधी को सफाई देने की सुविधा थी। शासक का मुँह ही अदालत था, जो निकल गया सो ठीक।
क्रूरता में आनन्द लेने की वृत्ति ‘सैडिज्म’ कहलाती है। प्राचीन काल में सरकार, समाज जैसे तत्व विकसित नहीं हुए थे, इसलिए उसकी तृप्ति समर्थ लोग बिना किसी प्रतिरोध के करते रहते थे। सामन्त लोग अपने साथ डाकुओं के गिरोह बना कर रखते थे, और उन्हें लेकर किसी भी ठिकाने पर चढ़ाई कर देते थे। एक जगह संग्रहित सम्पदा तो इस चढ़ाई में हाथ लगती ही थी, उस देश की प्रजा को भी पूरी तरह खसोट लिया जाता था, इस भगदड़ में सैनिक और असैनिक अपने हाथ खून से चाहे जितने गहरे रंग लेने के लिए स्वतंत्र रहते थे। अब वैसी सुविधा नहीं रही। पुलिस, जेल, कचहरी, कानून आदि का सिलसिला चल पड़ा है और समाज भी उस तरह की नृशंसता सहन नहीं करता, दूसरे मनुष्यों ने सभ्यता की चादर भी ओढ़ ली है। तीसरे ऐसे कृत्यों से प्रतिक्रिया, प्रतिशोध, प्रतिरोध आदि का भी झंझट हैं, इसलिए सस्ते और सरल तरीके ढूँढ़ लिये गये है। अब शोषण के परोक्ष तरीके सैकड़ों निकल आये हैं। ठगी, जालसाजी, फुसलाना, फँसाना अब एक कला के रूप में विकसित हो गया है।
कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय में मानव विज्ञान के प्राध्यापक डा.शेर वुड वाँशवर्च को कथन है—आक्रमण एक छुतहा उन्माद है, जो एक की देखा−देखी दूसरे पर चढ़ता है। भीड़ में हिंसा फूट पड़े तो उस समूह के अन्य लोग भी अकारण गदर मचा देते हैं चाहे उसका परिणाम किसी के लिए कुछ भी क्यों न हो। विजय में उन्मत्त सेनाएँ पिछले दिनों किस कदर निरीह प्रजा का उत्पीड़न करती रही हैं, इसका इतिहास बहुत ही कालिमापूर्ण है। युद्धों में सेना—सेना से ही लड़ती हो, ऐसी बात नहीं। लड़ाकुओं को जन विनाश में भी मजा आता है उन्माद का नशा उतर जाने पर सोचते हैं—आक्रमण से किसी का कुछ भला नहीं होता यहाँ तक कि आक्रमणकारी स्वयं भी बहुत घाटे में रहता है।
कैलीफोर्निया के स्टेनफोर्ड विश्व विद्यालय में मनोविकार विभाग के अध्यक्ष डा. डेबिड हाम्बुर्ग का कथन है—आक्रमण को सर्वत्र क्रियान्वित होते देखा जा रहा है, इस पर भी उसकी उपयोगिता सिद्ध नहीं हो सकी। अपराधों की रोक थाम में दण्ड नीति को कानूनी समर्थन मिल सकता है, पर लोग एक दूसरे पर चढ़ दौड़ने की नीति अपनायें तो, उसकी क्रिया प्रतिक्रिया का कुचक्र अमुक व्यक्ति यों तक ही सीमित न रहेगा वरन् पूरी सामाजिक शान्ति को अपनी चपेट में ले लेगा।
हममें से हर मनुष्य का कर्तव्य हे कि क्रूरता, निष्ठुरता, निर्दयता की आक्रामक पशु प्रवृत्ति का शमन करने के लिए मानवी संस्कृति के सद्भावना पक्ष की समुन्नत करें अन्यथा बढ़ती हुई दुष्टता छूत की बीमारी की तरह फैल कर इस सुन्दर संसार को सर्वनाश करके रहेगी।