Magazine - Year 1975 - Version 2
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Language: HINDI
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अपने को पहचानें और विकसित करें
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मनुष्य को न तो अभागा बनाया गया है और न अपूर्ण। उसमें वे सभी क्षमताएँ बीज रूप से विद्यमान हैं जिनके आधार पर अभीष्ट भौतिक एवं आत्मिक सफलताएँ प्रचुर परिमाण में प्राप्त की जा सकती हैं। आवश्यकता उनके समझने और उपयोग करने की है। जिन्हें यह विश्वास है कि हम आत्म−निरीक्षण और आत्म−विकास का अवलम्बन करके अपनी आवश्यक क्षमताएँ विकसित कर सकते हैं उन्हें यही उचित प्रतीत होता है कि दूसरों के सामने सहायता के लिए गिड़गिड़ाने की अपेक्षा अपनी ही शक्ति , सामर्थ्य एवं प्रतिभा के विकास में जुटा जाय।
संसार के प्राँगण में अनेक व्यक्ति अपने प्रकार की बढ़ी−चढ़ी सफलताएँ प्राप्त करते हैं। इसके पीछे एकमात्र कारण यही होता है कि उन्होंने अपने साहस भर संकल्प को जागृत किया और अपने को इस योग्य बनाया कि अभीष्ट उपलब्धियों को प्राप्त कर सकना कठिन न रहे। जो लोग प्रगति के साधन बाहर ढूँढ़ते हैं—परिस्थितियों अथवा व्यक्ति यों के सहयोग अवरोध को अनावश्यक महत्व देते हैं—वे भूल जाते हैं कि बाहरी सहयोग यदाकदा ही क्वचित् उपयोगी सिद्ध होता है। उसे प्राप्त करके किसी समय—किसी प्रकार की एक छोटी सफलता भले ही प्राप्त कर ली जाय; निरन्तर प्रगति पथ पर बढ़ने के लिए हर समय आवश्यक सहायता अन्यत्र कहीं से नहीं मिल सकती। वह तो अपने भीतर से ही जगानी पड़ती है।
कितने ही मनुष्यों के पास प्रतिभा एवं क्षमता का अपार भंडार भरा होता है, पर वे उसे जानते नहीं और जानते हैं तो यह अनुभव नहीं करते कि यह विशेषताएँ कितनी अधिक मूल्यवान हैं। आमतौर से लोग साधनों को महत्व देते रहते हैं उन्हें ही प्रगति का आधार मानते हैं—इस तथ्य को कोई बिरले ही समझ पाते हैं कि अपना संकल्प बल और उसका गुण, कर्म, स्वभाव के परिष्कृत रूप में सामने आने वाला सदुपयोग कितना अधिक मूल्यवान है। यदि इस सचाई को समझा जा सके तो सबसे अधिक प्रयत्न इसी एक बिन्दु पर एकत्रित किया जाय कि अपनी साहसिकता, तत्परता एवं एकाग्रता को किस तरह अभीष्ट प्रयोजन के लिए जुटा दिया जाय। प्रगति के पथ पर चलने के लिए कई प्रकार के साधनों की जरूरत पड़ती है। इनमें से सबसे बड़ा साधन है, अपना मनोबल। अपने को समझने और सुधारने से बढ़कर और कुछ बुद्धिमत्ता इस संसार में नहीं है। अपनी बिखरी हुई शक्ति यों को यदि एकत्रित करने का अभ्यास कर लिया जाय और उन्हें किस काम में किस प्रकार लगाना यह निश्चय कर लिया जाय तो समझना चाहिए सफलता का अधिकाँश प्रयोजन पूरा कर सकने वाला आधार बन गया।
दूसरे लोग हमें एक सीमा तक ही सहारा दे सकते हैं। हर व्यक्ति की अपनी समस्याएँ हैं उन्हीं को सुलझाना कठिन पड़ता है फिर दूसरों की सहायता करने में कोई कितनी दिलचस्पी ले सकता है या सहयोग दे सकता है यह एक विचारणीय बात है। जब हमीं दूसरों से आशाएँ बाँधते हैं और अपनी गुत्थी आप नहीं सुलझा सके तो दूसरों से ही यह आशा कैसे रखी जा सकती है कि अन्य लोगों के पास इतना फालतू समय या साधन होगा कि हमारे लिए कुछ अधिक कर सकें।
हम जिन दूसरों से सहायता की आशा करते हैं उनके वर्चस्व को स्वीकार करते हैं। हमें स्वीकार करना चाहिए कि यदि अपना आपा विकसित और व्यवस्थित किया जा सके तो उसकी गरिमा उन सभी सहायकों की मिली−जुली सहायता से भी अनेक गुनी उच्च है जिनसे कुछ पाया है या पाने का स्वप्न देखा है।